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बेबसी: डब्ल्यूएचओ ने दिया सम्मान पर अभावों में टूट रहीं ‘आशा’, महामारी में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की बनीं रीढ़, नहीं हो रहा गुजारा
अमर उजाला ब्यूरो, नई दिल्ली
Published by: देव कश्यप
Updated Wed, 01 Jun 2022 06:33 AM IST
सार
उत्तर प्रदेश के बस्ती की रहने वाली 42 वर्षीय शैलेंद्री एक ऐसी ही आशा कार्यकर्ता हैं, जो रोजाना सुबह तीन बजे उठकर घर का काम निपटाकर गांव-गांव स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने में जुट जाती हैं। लेकिन उनका घरेलू खर्च भी ठीक से नहीं निकल पाता।
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एनएचएम (सांकेतिक तस्वीर)।
- फोटो : सोशल मीडिया
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विस्तार
ग्रामीण क्षेत्रों तक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने और कोरोना महामारी के दौरान अपनी जिंदगी दांव पर लगाकर मरीजों की सेवा के लिए आशा कार्यकर्ताओं ने दुनियाभर में तो नाम कमाया, पर घर में ही वे अभाव झेलने को मजबूर हैं। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से सम्मान पाने वाली ये 10 लाख महिलाएं निर्धारित वेतन, काम के अनिश्चित घंटे और जरूरी सुविधाओं के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रही हैं लेकिन, अब तक उनकी आस पूरी नहीं हुई है।
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उत्तर प्रदेश के बस्ती की रहने वाली 42 वर्षीय शैलेंद्री एक ऐसी ही आशा कार्यकर्ता हैं, जो रोजाना सुबह तीन बजे उठकर घर का काम निपटाकर गांव-गांव स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने में जुट जाती हैं। लेकिन उनका घरेलू खर्च भी ठीक से नहीं निकल पाता। 16 साल से आशा कार्यकर्ता के रूप में कार्यरत शैलेंद्री का कहना है कि सरकार को हमारी तनख्वाह तय करनी चाहिए। अधिकारियों को पता है कि हम कितनी लगन से काम करते हैं लेकिन बदले में कोरी तारीफें मिलती हैं। निजी जीवन में तमाम समझौते करते हुए हमें महीने भर में बामुश्किल 10 हजार रुपये मिल पाते हैं। बढ़ती महंगाई हमें तोड़ रही है और इतने पैसे में हमारा गुजारा नहीं हो पाता।
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निभाई बड़ी भूमिका, सुविधाएं-वेतन की हकदार
पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुतरेजा के मुताबिक, हमारे देश में नियमित फ्रंटलाइन वर्करों और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत संविदा पर तैनात कर्मचारियों के वेतन-सुविधाओं में काफी फर्क है। सरकार ने उनके लिए प्रदर्शन आधारित भुगतान प्रक्रिया अपनाई है। हालांकि, यह राज्यों पर भी निर्भर करता है, जिनमें से कुछेक ने उनका वेतन निर्धारित कर दिया है। आशा महिलाओं को समय पर नियमित भुगतान मिलना जरूरी है। साथ ही इनकी सुविधाएं भी बढ़ाई जानी चाहिए।
दूर जाने के लिए साधन तक नहीं मिलता
बिहार के भागलपुर जिले की सुनीता सिन्हा के हालात भी कमोबेश शैलेंद्री जैसे ही हैं। उनका कहना है कि दिनभर घर-घर जाकर स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने की जिम्मेदारी जितनी बड़ी है, बदले में सुविधाएं उतनी ही कम। हमें कोई साधन भी मुहैया नहीं कराया जाता। इतने दबाव में काम करना पड़ता है कि कई बार तो पांच मिनट बैठने की फुर्सत भी नहीं मिल पाती।