लोकतंत्र के पर्व में 80 अरब रुपये खर्च करने के बाद लोकसभा में पहुंचेंगे नेताजी !

लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व का आगाज हो चुका है।तकरीबन दो तिहायी सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिए गए हैं।प्रत्याशियों ने अपनी-अपनी जीत के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया है। चुनाव आयोग ने प्रत्येक लोकसभा सीट के लिए खर्च की सीमा बड़े राज्यों में 70 लाख रुपए और छोटे राज्यों में 54 लाख तय की है।जाहिर सी बात है कि चुनाव हारने या जीतने के बाद उम्मीदवार चुनाव आयोग को जब अपने खर्च का ब्यौरा देते हैं तो वे इस सीमा से बहुत पीछे खड़े नजर आते हैं।जमीनी हकीकत देखें तो लोकतंत्र का यह पर्व मनाने में कम से कम 80 अरब यानी 8 हजार करोड़ रुपये खर्च हो जाते हैं।इस राशि तक तो केवल तब पहुंचते हैं, जब एक सीट पर एक प्रत्याशी न्यूनतम 15 करोड़ रुपये खर्च करता है।

चुनाव आयोग भी यह बात अच्छी तरह से समझता है कि 70 लाख रुपये में नगर पार्षद का चुनाव नहीं लड़ा जा सकता। बड़े गांवों के सरपंच के चुनाव में ही करोड़ रुपया खर्च हो जाता है। देश के पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी इस बात को स्वीकार करते हैं कि आयोग ने लोकसभा चुनाव लड़ने की जो खर्च सीमा तय की है, उससे कहीं ज्यादा राशि खर्च होती है। अधिकांश प्रत्याशी तो रिपोर्ट ही गलत देते हैं।दस्तावेजों में झूठ बोला जाता है। ऐसे में आयोग भी क्या करे, कोई सबूत तो होता नहीं।हालांकि यह सबकी आंखों के सामने है कि कौन सा उम्मीदवार किस तरह से और कितना खर्च कर रहा है, लेकिन बात सबूतों पर आकर अटक जाती है। डमी कैंडिडेट खड़े किए जाते हैं।उनके हिस्से का खर्च बड़ी पार्टियों वाले उम्मीदवार करते हैं।चुनाव आयोग की टीम चूहे-बिल्ली का खेल खेलती रहती है।अधिकारी दौड़ते रहते हैं, पकड़ते भी हैं, मगर सबूत के अभाव में छूट जाते हैं।
75 अरब रुपये का मतलब, इसे यूं समझा जा सकता है
चुनाव आयोग के अधिकारी भी इस बात को मानते हैं कि चुनाव में असल खर्च तय सीमा से काफी ज्यादा होता है।बड़े राज्यों जैसे कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्यप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा, उड़ीसा, पंजाब, तमिलनाडू, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड आदि में चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाकर 70 लाख रुपये कर दी गई है।छोटे राज्य, जिनमें अरुणाचल प्रदेश, गोवा, सिक्किम, अंडमान एवं निकोबार और पूर्वोत्तर के दूसरे राज्य शामिल हैं।यहां पर चुनाव आयोग ने 54 लाख कर दी है। छोटे राज्यों की लोकसभा सीटों का हिसाब-किताब देखें तो 43 सीटों पर (पांच करोड़ रुपए प्रति लोकसभा सीट) 215 करोड़ रुपये खर्च हो जाते हैं।हालांकि असल खर्च तो इससे ज्यादा ही रहता है।
बाकी बची 500 लोकसभा सीटों पर न्यूनतम 15 करोड़ रुपये प्रति लोकसभा क्षेत्र का खर्च मानें तो यह राशि 75 सौ करोड़ रुपये यानी 75 अरब पर पहुंचती है।
हर सीट पर कम से कम 10 डमी कैंडिडेट मान लेते हैं।अगर वे चुनाव आयोग द्वारा तय खर्च सीमा यानी 70 लाख और 50 लाख रुपये खर्च करते हैं तो यह राशि 35 सौ करोड़ के पार चली जाती है।हालांकि यह राशि बड़ी पार्टियों के उम्मीदवार कथित तौर पर अपने चुनाव प्रचार में खर्च करते हैं। एक लोकसभा क्षेत्र में औसतन पांच से सात विधानसभा मान लेते हैं।जैसे दिल्ली में लोकसभा की सात सीटें हैं और विधानसभा की सत्तर हैं।इसी तरह हरियाणा में विधानसभा की 90 और लोकसभा की दस सीट हैं।पंजाब में विधानसभा की 117 और लोकसभा की 13 सीट हैं।कई लोकसभा क्षेत्र ऐसे भी हैं, जहाँ विधानसभा की सीट पाँच से कम हैं।
लोकसभा चुनाव के दौरान हर विधानसभा क्षेत्र में कम से कम एक चुनावी दफ़्तर खोला जाता है।बड़ी विधानसभाओं में कई दफ्तर खुलते हैं।सौ लोगों के लिए एक दफ़्तर पर एक समय का खाना तैयार होता है तो उसके कम से कम 20 हजार रुपये लगते हैं।इसी तरह सात दफतरों में एक समय का खाना करीब डेढ़ लाख रुपये में पड़ता है।तीस दिन तक इन सभी दफ्तरों में दो समय के खाने पर 90 लाख रुपये खर्च होते हैं।
अगर 543 सीटों पर इस खर्च का अनुमान लगाएं तो वह करीब 490 करोड़ रुपये बनता है।एक दफ़्तर पर एक दिन में पांच सौ चाय बनती हैं तो सात चुनावी कार्यालयों में एक दिन का खर्च 28 हजार रुपये आएगा।तीस दिन तक चुनाव प्रचार चलता है तो वह खर्च साढ़े सात लाख रुपये तक पहुंच जाता है।543 लोकसभा क्षेत्रों में चाय का खर्च मिलायें तो 38 करोड़ रुपये बन जाते हैं।एक चाय का रेट आठ रुपए माना गया है। एक गाड़ी, अगर उसे दिनभर के लिए किराये पर लिया जाता है तो कम से कम चार हजार रुपये लगेंगे।एक उम्मीदवार की औसतन सौ गाड़ियाँ तो चलती हैं।एक दिन में चार लाख रुपये किराया बनता है।सभी लोकसभा क्षेत्रों को देखें तो एक दिन में वाहनों का यह खर्च 21 करोड़ रुपये से ज्यादा होता है।
एक अनुमान: 2019 के लोकसभा चुनाव में 30 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च आएगा
भारत में पहले तीन लोकसभा चुनावों में सरकारी खर्च देखें तो वह हर साल लगभग 10 करोड़ रुपये था।2009 में यही खर्च 1,483 करोड़ हो गया।2014 में यह खर्च करीब तीन गुना बढ़कर 3,870 करोड़ रुपये पर पहुंच गया।इसमें पार्टी का खर्च और सुरक्षा पर हुआ व्यय शामिल नहीं है।जानकारों का कहना है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सभी तरह के खर्च को मिलाएं तो वह 30 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा बनेगा।ऐसी स्थिति में अगर 75 फीसदी मतदान हुआ तो प्रति वोटर पांच-छह सौ रुपये खर्च होने का अनुमान है।कांग्रेस पार्टी के नेता रणदीप सुरजेवाला का कहना है कि चुनाव प्रचार में भाजपा पानी की तरह पैसा बहा रही है।अभी तक पांच हजार करोड़ रुपये तो विज्ञापन ही खर्च हो चुके हैं।उन्होंने दावा किया है कि भाजपा का चुनावी खर्च कम से कम 10 हजार करोड़ रुपये से अधिक होगा।
यह नियम बना है, लेकिन डमी कैंडिडेट इसे फेल करा देते हैं
निर्वाचन आयोग ने चुनाव लड़ने वाले हर उम्मीदवार के लिए प्रतिदिन के खर्च का ब्यौरा देना अनिवार्य कर दिया है।इसके लिए हर उम्मीदवार को अलग से बैंक में खाता खुलवाना पड़ता है।चुनाव आयोग ने इस खर्च पर नजर रखने के लिए सख्त हिदायत जारी की हैं, लेकिन डमी कैंडिडेट इस नियम को फेल करा देते हैं।रोजाना लाखों करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जाते हैं, लेकिन सबूत न होने के कारण किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो पाती।प्रत्याशियों के करीबी स्वीकार करते हैं कि चुनावी खर्च की तय सीमा यानी 70 लाख रुपये, इसका तो मजाक ही बनता है।सब जानते हैं कि एक-दो दिन के चुनाव प्रचार का खर्च करोड़ रुपये आ जाता है।एक माह तक चलने वाले प्रचार में कितना खर्च होता होगा, यह अंदाजा लगा सकते हैं।