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गुलामी की सोच से मुक्ति दिलाती नई शिक्षा नीति... नई उन्नति की ओर बढ़ रहा देश
नवनीत सहगल, पूर्व अध्यक्ष, प्रसार भारती
Published by: हिमांशु चंदेल
Updated Mon, 15 Dec 2025 05:52 AM IST
सार
Navneet Sehgal on New Education Policy: भारत जिस परिवर्तन की ओर अग्रसर है, वह शैक्षणिक सुधार ही नहीं, बल्कि मानसिकता और राष्ट्रीय दृष्टिकोण का पुनर्निर्माण है। यह उस आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना को साकार करता है, जिसमें ज्ञान, भाषा, अवसर और सम्मान समान रूप से सुलभ हैं।
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नवनीत सहगल, पूर्व अध्यक्ष, प्रसार भारती
- फोटो : अमर उजाला ग्राफिक्स
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विस्तार
स्वतंत्रता के आठ दशक बाद भी बार-बार प्रश्न उठता है कि हम अभी तक उस औपनिवेशिक सोच से मुक्त क्यों नहीं हो पाए हैं, जिसने भारतीय शिक्षा की जड़ों को कमजोर कर दिया था? यह प्रश्न हाल के वर्षों में और अधिक प्रखर हुआ है, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस गुलामी की मानसिकता के दुष्परिणामों को रेखांकित करने और 2035 तक इससे पूर्ण मुक्ति का आह्वान करने के बाद। तमाम शिक्षाविद और शोधकर्ता जब मैकाले की शिक्षा पद्धति के दीर्घकालिक प्रभावों पर गंभीर विमर्श कर रहे हैं, तो यह भी स्पष्ट है कि इस विमर्श को राष्ट्रीय आत्मविश्वास की पुनर्स्थापना से जोड़ने में पीएम मोदी की पहल निर्णायक रही है।
भारत में शिक्षा का इतिहास केवल विद्यालयों की संरचना या पाठ्यपुस्तकों की भाषा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस सांस्कृतिक दर्शन का इतिहास है, जिसने इस देश को सामाजिक न्याय, विज्ञान, गणित, खगोल, चिकित्सा और दर्शन में अग्रणी बनाया। भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति का मूल इस विचार में था कि शिक्षा व्यक्ति के समग्र विकास का साधन है। एक ऐसी दृष्टि जिसमें जीवन-कौशल, नैतिकता, अध्यात्म, शास्त्र, विज्ञान और प्रकृति एकीकृत रूप से उपस्थित रहें।
गुलामी की मानसिकता का प्रभाव सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह प्रगति, आत्मविश्वास और नवाचार क्षमता पर भी गहराई से प्रभाव डालता रहा। लंबे समय तक देश की नीतियों, प्रशासनिक ढांचे और सामाजिक आकांक्षाओं में वह झिझक देखी गई, जो औपनिवेशिक मनोविज्ञान की देन थी। किंतु पिछले एक दशक में भारत ने जिस गति से आर्थिक, तकनीकी और वैचारिक उन्नति दर्ज की है, वह इस मानसिक बंधन के टूटने का सूचक भी है।
आज भारत 8.2 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि के साथ सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में है। यह परिवर्तन केवल आर्थिक नीतियों के परिणाम नहीं हैं, बल्कि मानसिकता में आए उस व्यापक बदलाव का सूचक भी हैं, जिसकी दिशा पीएम मोदी ने बार-बार स्पष्ट की है कि भारत को आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और अपनी बौद्धिक जड़ों पर पुनः गर्व करने की आवश्यकता है। औपनिवेशिक शासन ने इस दृष्टि को तोड़ दिया था।
भारत की पारंपरिक शिक्षा प्रणाली चाहे गुरुकुल हों या विक्रमशिला, नालंदा, वल्लभी और तक्षशिला जैसे महाविद्यालय, समाज के विविध वर्गों के लिए व्यापक रूप से खुले थे। 18वीं व 19वीं सदी के प्राथमिक स्रोत जैसे विलियम एडम की रिपोर्ट्स स्पष्ट करती हैं कि औपनिवेशिक शासन से पहले बंगाल और मद्रास प्रेसिडेंसी में शिक्षा गांव-स्तर तक उपलब्ध थी और मातृभाषा इसका मूल आधार थी। मैकाले मॉडल ने इस व्यवस्था को मूलतः तीन तरीकों से प्रभावित किया।
पहला, मातृभाषाओं का महत्व घटा दिया गया। दूसरा, शिक्षा को केवल रोजगार-केंद्रित और सीमित संरचना में बांधा गया। तीसरा, इतिहास और संस्कृति की व्याख्या औपनिवेशिक नजरिये से की गई, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय ज्ञान, कौशल और वैज्ञानिक परंपराएं हाशिये पर चली गईं। इसका दीर्घकालिक परिणाम यह हुआ कि एक बड़ी आबादी शिक्षा से दूर हुई, स्थानीय ज्ञान प्रणाली असंगठित और उपेक्षित हुई। हैरानी की बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी शिक्षा नीति में बड़े संरचनात्मक बदलाव दशकों तक नहीं हुए।
साल 1968, 1986 और 1992 की राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों में सुधार के प्रयास तो हुए परंतु वे अंग्रेजी केंदि्रत, परीक्षा-आधारित और डिग्री-उन्मुख ढांचे को चुनौती देने में असमर्थ रहे। मगर, पीएम मोदी के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने पहली बार मातृभाषा आधारित शिक्षा, बहुभाषावाद, कौशल आधारित शिक्षा, शोध-उन्मुख उच्च शिक्षा और भारतीय ज्ञान परंपरा के समावेश को नीति के केंद्र में रखा। मौजूदा नेतृत्व की निर्णायक सोच ने यह स्पष्ट किया है कि यह बहस अब केवल राजनीतिक विमर्श नहीं रही बल्कि शिक्षा नीति, सामाजिक संरचना और कौशल-विकास की दिशा में वास्तविक समस्याओं का समाधान खोजने का मंच बन चुकी है।
नई शिक्षा नीति के तीन आयाम
औपनिवेशिक प्रतीकों का पुनर्मूल्यांकन जरूरी
हाल में कई औपनिवेशिक नामों और प्रतीकों को हटाया गया है। गुलामी की मानसिकता से मुक्ति की दिशा में यह कदम महत्वपूर्ण है।
शिक्षक प्रशिक्षण का आधुनिक और सुदृढ़ ढांचा
एनसीटीई का नेशनल मिशन फॉर मेंटरिंग, डिजिटल प्रशिक्षण मॉड्यूल, डॉयट्स का आधुनिकीकरण और विशेषज्ञ शिक्षकों का मेंटरिंग ढांचा...सभी संकेत देते हैं कि शिक्षक-प्रशिक्षण आज पेशेवर क्षमता-निर्माण का राष्ट्रीय अभियान बन चुका है।
शोध-आधारित उच्च शिक्षा का विस्तार
भारत का अनुसंधान और विकास का खर्च बढ़कर जीडीपी का 0.6–0.7% हुआ है। राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना ऐतिहासिक कदम है। आईआईटी जैसे संस्थान वैश्विक शोध रैंकिंग में ऊपर आ रहे हैं।
कौशल विकास व व्यावसायिक शिक्षा
ये सब मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास जमीनी परिवर्तन का रूप ले चुके हैं। स्किल इंडिया मिशन, प्रधानमंत्री कौशल विकास आईटीआई आधुनिकीकरण और स्कूल स्तर पर इंटर्नशिप के अवसर, ये सभी शिक्षा को रोजगार-केंद्रित बनाने की दिशा में बड़े सुधार हैं।
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भारत में शिक्षा का इतिहास केवल विद्यालयों की संरचना या पाठ्यपुस्तकों की भाषा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस सांस्कृतिक दर्शन का इतिहास है, जिसने इस देश को सामाजिक न्याय, विज्ञान, गणित, खगोल, चिकित्सा और दर्शन में अग्रणी बनाया। भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति का मूल इस विचार में था कि शिक्षा व्यक्ति के समग्र विकास का साधन है। एक ऐसी दृष्टि जिसमें जीवन-कौशल, नैतिकता, अध्यात्म, शास्त्र, विज्ञान और प्रकृति एकीकृत रूप से उपस्थित रहें।
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गुलामी की मानसिकता का प्रभाव सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह प्रगति, आत्मविश्वास और नवाचार क्षमता पर भी गहराई से प्रभाव डालता रहा। लंबे समय तक देश की नीतियों, प्रशासनिक ढांचे और सामाजिक आकांक्षाओं में वह झिझक देखी गई, जो औपनिवेशिक मनोविज्ञान की देन थी। किंतु पिछले एक दशक में भारत ने जिस गति से आर्थिक, तकनीकी और वैचारिक उन्नति दर्ज की है, वह इस मानसिक बंधन के टूटने का सूचक भी है।
आज भारत 8.2 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि के साथ सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में है। यह परिवर्तन केवल आर्थिक नीतियों के परिणाम नहीं हैं, बल्कि मानसिकता में आए उस व्यापक बदलाव का सूचक भी हैं, जिसकी दिशा पीएम मोदी ने बार-बार स्पष्ट की है कि भारत को आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और अपनी बौद्धिक जड़ों पर पुनः गर्व करने की आवश्यकता है। औपनिवेशिक शासन ने इस दृष्टि को तोड़ दिया था।
भारत की पारंपरिक शिक्षा प्रणाली चाहे गुरुकुल हों या विक्रमशिला, नालंदा, वल्लभी और तक्षशिला जैसे महाविद्यालय, समाज के विविध वर्गों के लिए व्यापक रूप से खुले थे। 18वीं व 19वीं सदी के प्राथमिक स्रोत जैसे विलियम एडम की रिपोर्ट्स स्पष्ट करती हैं कि औपनिवेशिक शासन से पहले बंगाल और मद्रास प्रेसिडेंसी में शिक्षा गांव-स्तर तक उपलब्ध थी और मातृभाषा इसका मूल आधार थी। मैकाले मॉडल ने इस व्यवस्था को मूलतः तीन तरीकों से प्रभावित किया।
पहला, मातृभाषाओं का महत्व घटा दिया गया। दूसरा, शिक्षा को केवल रोजगार-केंद्रित और सीमित संरचना में बांधा गया। तीसरा, इतिहास और संस्कृति की व्याख्या औपनिवेशिक नजरिये से की गई, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय ज्ञान, कौशल और वैज्ञानिक परंपराएं हाशिये पर चली गईं। इसका दीर्घकालिक परिणाम यह हुआ कि एक बड़ी आबादी शिक्षा से दूर हुई, स्थानीय ज्ञान प्रणाली असंगठित और उपेक्षित हुई। हैरानी की बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी शिक्षा नीति में बड़े संरचनात्मक बदलाव दशकों तक नहीं हुए।
साल 1968, 1986 और 1992 की राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों में सुधार के प्रयास तो हुए परंतु वे अंग्रेजी केंदि्रत, परीक्षा-आधारित और डिग्री-उन्मुख ढांचे को चुनौती देने में असमर्थ रहे। मगर, पीएम मोदी के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने पहली बार मातृभाषा आधारित शिक्षा, बहुभाषावाद, कौशल आधारित शिक्षा, शोध-उन्मुख उच्च शिक्षा और भारतीय ज्ञान परंपरा के समावेश को नीति के केंद्र में रखा। मौजूदा नेतृत्व की निर्णायक सोच ने यह स्पष्ट किया है कि यह बहस अब केवल राजनीतिक विमर्श नहीं रही बल्कि शिक्षा नीति, सामाजिक संरचना और कौशल-विकास की दिशा में वास्तविक समस्याओं का समाधान खोजने का मंच बन चुकी है।
नई शिक्षा नीति के तीन आयाम
- मातृभाषा आधारित शिक्षा पर जोर... 2020 में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति का केंद्रीय सिद्धांत यह है कि प्रारंभिक स्तर पर सीखने की प्रक्रिया तभी ज्यादा प्रभावी होती है, जब बच्चा अपनी प्रथम भाषा या मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करे। यूनेस्को, यूनीसेफ और विश्व बैंक के कई अध्ययन दर्शाते हैं कि मातृभाषा में शिक्षा से बच्चों की अवधारणात्मक समझ, स्मरण-शक्ति, विश्लेषण क्षमता और समस्या-समाधान कौशल अधिक विकसित होते हैं। इसीलिए नई नीति सुनिश्चित करती है कि कक्षा 5 तक और जहां संभव हो, कक्षा 8 तक शिक्षण की प्राथमिक भाषा मातृभाषा, स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा ही हो।
- भारतीय भाषाओं का उच्च शिक्षा में समावेश... आईआईटी, एम्स और अन्य तकनीकी संस्थानों में भारतीय भाषाओं को शामिल करने की दिशा में उठाए गए कदम शिक्षा के भारतीयकरण की ऐतिहासिक शुरुआत हैं। तकनीकी शब्दावली के मानकीकरण और उद्योग–शिक्षा साझेदारी में निरंतर प्रगति के साथ, यह प्रयास उच्च शिक्षा को अधिक समावेशी, अधिक नवोन्मेषी और भारतीय संदर्भों के अनुकूल बनाने की अपार संभावनाएं रखता है।
- भारतीय ज्ञान परंपरा का पाठ्यक्रम में पुनर्संयोजन... वैदिक गणित, आयुर्वेद, ज्योतिष, दर्शन और साहित्य को शोध-आधारित मॉड्यूल के रूप में शामिल करने के प्रयास हो रहे हैं और मौजूदा नेतृत्व के प्रोत्साहन से यह प्रक्रिया एक सांस्कृतिक पुनरुत्थान से आगे बढ़कर वैज्ञानिक कठोरता पर आधारित हो रही है।
औपनिवेशिक प्रतीकों का पुनर्मूल्यांकन जरूरी
हाल में कई औपनिवेशिक नामों और प्रतीकों को हटाया गया है। गुलामी की मानसिकता से मुक्ति की दिशा में यह कदम महत्वपूर्ण है।
शिक्षक प्रशिक्षण का आधुनिक और सुदृढ़ ढांचा
एनसीटीई का नेशनल मिशन फॉर मेंटरिंग, डिजिटल प्रशिक्षण मॉड्यूल, डॉयट्स का आधुनिकीकरण और विशेषज्ञ शिक्षकों का मेंटरिंग ढांचा...सभी संकेत देते हैं कि शिक्षक-प्रशिक्षण आज पेशेवर क्षमता-निर्माण का राष्ट्रीय अभियान बन चुका है।
शोध-आधारित उच्च शिक्षा का विस्तार
भारत का अनुसंधान और विकास का खर्च बढ़कर जीडीपी का 0.6–0.7% हुआ है। राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना ऐतिहासिक कदम है। आईआईटी जैसे संस्थान वैश्विक शोध रैंकिंग में ऊपर आ रहे हैं।
कौशल विकास व व्यावसायिक शिक्षा
ये सब मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास जमीनी परिवर्तन का रूप ले चुके हैं। स्किल इंडिया मिशन, प्रधानमंत्री कौशल विकास आईटीआई आधुनिकीकरण और स्कूल स्तर पर इंटर्नशिप के अवसर, ये सभी शिक्षा को रोजगार-केंद्रित बनाने की दिशा में बड़े सुधार हैं।