{"_id":"68b699f5e75ce4283901ddcf","slug":"supreme-court-says-will-only-interpret-provisions-of-constitution-in-president-reference-not-individual-cases-2025-09-02","type":"story","status":"publish","title_hn":"SC: 'राष्ट्रपति-राज्यपालों के लिए फैसले लेने की समयसीमा तय करना ठीक नहीं'; सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी","category":{"title":"India News","title_hn":"देश","slug":"india-news"}}
SC: 'राष्ट्रपति-राज्यपालों के लिए फैसले लेने की समयसीमा तय करना ठीक नहीं'; सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: दीपक कुमार शर्मा
Updated Tue, 02 Sep 2025 12:47 PM IST
सार
मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने यह टिप्पणी की। सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि अगर वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी आंध्र प्रदेश आदि राज्यों से जुड़े उदाहरणों का हवाला देंगे, तो केंद्र को भी जवाब दाखिल करना होगा।
विज्ञापन
सुप्रीम कोर्ट
- फोटो : एएनआई
विज्ञापन
विस्तार
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधेयकों को स्वीकृति देने में देरी के कुछ मामलों की वजह से संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए फैसला लेने की समयसीमा तय करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
Trending Videos
चीफ जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस चंदुरकर की संविधान पीठ ने कहा, इस बारे में संविधान में पर्याप्त लचीलेपन का प्रावधान है, जिसके तहत बिना कोई समयसीमा तय किए विधेयकों को यथाशीघ्र लौटाने की बात कही गई है।
विज्ञापन
विज्ञापन
राष्ट्रपति की ओर से इस बारे में मांगे गए संदर्भ पर छठे दिन की सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने मंगलवार को मौखिक टिप्पणी में कहा कि यदि विधेयकों पर फैसला लेने के कुछ व्यक्तिगत मामले सामने आते हैं, तो पीड़ित पक्ष अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं। इन व्यक्तिगत मामलों की सुनवाई कर अदालत निश्चित समय में फैसला लेने के लिए कह सकती है, लेकिन इसके मायने यह नहीं है कि वह राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसला लेने के लिए समान समयसीमा निर्धारित कर दे।
पीठ के सामने तमिलनाडु सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने वहां के राज्यपाल के मामले में शीर्ष कोर्ट की खंडपीठ की ओर से विधेयकों पर फैसला लेने के लिए निर्धारित तीन महीने की समयसीमा का समर्थन किया। सिंघवी ने कहा, राज्यपालों की ओर से विधेयकों को बेमियाद रोके रखने के लगातार मामलों को देखते हुए यह सीमा जरूरी थी।
सिंघवी ने हाल ही में चीफ जस्टिस गवई की ओर से लिखे गए तीन जजों की पीठ के फैसले का हवाला दिया, जिसमें तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष को अयोग्यता याचिकाओं पर तीन महीने में फैसला करने का निर्देश दिया गया था। चीफ जस्टिस ने कहा, उस फैसले में कोर्ट ने निर्देश जारी किया था, जो सिर्फ उस मामले के लिए था। हमने यह निर्देश नहीं दिया था कि सभी विधानसभा अध्यक्ष अयोग्यता याचिकाओं पर तीन महीने में फैसला करें। वह मामले के तथ्यों व परिस्थितियों के अनुसार था। सिंघवी ने पेरारिवलन मामले का भी हवाला दिया, जहां राज्यपाल की ओर से क्षमा याचिका पर कार्रवाई न करने पर कोर्ट ने राजीव गांधी हत्याकांड के दोषियों को रिहा करने का निर्देश दिया था। इस पर जस्टिस गवई ने कहा कि ये अलग-अलग मामले हैं।
सुनवाई के दौरान किसने क्या कहा?
जस्टिस गवई : क्या हम राष्ट्रपति व राज्यपाल की शक्तियों के प्रयोग को लेकर संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सीधा सूत्र तय कर सकते हैं?
सिंघवी : व्यावहारिकता से अलग दृष्टिकोण न अपनाए कोर्ट, विधेयकों पर अत्यधिक विलंब की वास्तविकताओं से निपटे। संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राष्ट्रपति व राज्यपालों की शक्तियों के प्रयोग के लिए सामान्य समयसीमा तय करना जरूरी है।
जस्टिस नाथ : सामान्य समयसीमा तय करना व्यावहारिक रूप से कोर्ट की ओर से संविधान संशोधन करने के समान होगा, क्योंकि अनुच्छेद 200 व 201 में कोई सीमा निर्दिष्ट नहीं है। इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा।
पीठ : यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल समयसीमा का पालन नहीं करते हैं तो इसके क्या परिणाम होंगे? क्या राष्ट्रपति या राज्यपाल को कोर्ट की अवमानना के लिए दोषी ठहराया जा सकता है।
सिंघवी : राष्ट्रपति-राज्यपाल की ओर से तय समय में फैसला न लेने पर विधेयकों को स्वीकृत मान लिया जाना एक तरीका हो सकता है।
जस्टिस नाथ : अगर अदालत किसी विधेयक को स्वीकृत करार देता है और बाद में उस विधेयक को कोर्ट में ही चुनौती दी जाती है तो क्या यह हितों का टकराव नहीं होगा?
सिंघवी : कोर्ट किसी विधेयक को स्वीकृत मान लेने की घोषणा करते हुए उसके गुण-दोष के आधार पर विचार नहीं करेगा। राज्यपालों की ओर से विधेयकों पर फैसला करने से इन्कार करने पर सरकार को हर बार अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है तो इससे देरी और बढ़ेगी। व्यक्तिगत मामलों में अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाने से समस्या का समाधान नहीं होगा। अनुच्छेद 200 और 201 एक सामान्य समयसीमा की आवश्यकता रखते हैं।
जस्टिस नाथ : अगर समयसीमा का पालन नहीं किया गया तो क्या होगा?
सिंघवी : अदालत शक्तिशाली है। वह सुनिश्चित कर सकती है कि फैसले का पालन हो।
ये भी पढ़ें: सियासत: 'बिहार में RJD-कांग्रेस के मंच से मेरी मां को गाली, देश की मां-बहन-बेटी का अपमान'; विपक्ष पर बरसे पीएम
संविधान के अनुच्छेद 200 में प्रयुक्त शब्द यथाशीघ्र का नहीं रहेगा कोई व्यवहारिक उद्देश्य
इससे पहले, 28 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यदि राज्यपालों को 'अनंत काल' तक सहमति रोकने की अनुमति दी जाती है, तो विधेयकों के भाग्य का फैसला करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 200 में प्रयुक्त शब्द 'यथाशीघ्र' का कोई व्यवहारिक उद्देश्य नहीं रह जाएगा। यह टिप्पणी तब आई जब केंद्र ने दलील दी कि राज्य सरकारें मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में राष्ट्रपति और राज्यपाल की कार्रवाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में रिट अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं।
ये भी पढ़ें: SC: पीएम मोदी के आपत्तिजनक कार्टून बनाने, धार्मिक भावनाएं आहत करने का आरोप; कार्टूनिस्ट को मिली अग्रिम जमानत
राज्यपाल को ये अधिकार देता है अनुच्छेद 200
अनुच्छेद 200 राज्यपाल को यह अधिकार देता है कि विधानसभा से पारित विधेयक पर वह या तो मंजूरी दें, मंजूरी रोक लें, पुनर्विचार के लिए वापस भेजें या राष्ट्रपति के पास आरक्षित करें। पहली शर्त यह है कि अगर विधानसभा दोबारा विचार के बाद विधेयक वापस भेज दे, तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देनी ही होगी।
भाजपा शासित राज्यों ने राज्यपालों और राष्ट्रपति की स्वायत्ता का बचाव किया
26 अगस्त को, शीर्ष अदालत ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि यदि राज्यपाल विधेयकों को स्वीकृति देने में अनिश्चितकाल के लिए देरी करते हैं, तो क्या न्यायालय को शक्तिहीन हो जाना चाहिए और क्या सांविधानिक पदाधिकारी की विधेयक को रोकने की स्वतंत्र शक्ति का अर्थ यह होगा कि धन विधेयक भी अवरुद्ध किए जा सकते हैं। न्यायालय ने ये प्रश्न तब उठाए जब कुछ भाजपा शासित राज्यों ने विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को स्वीकृति देने में राज्यपालों और राष्ट्रपति की स्वायत्तता का बचाव करते हुए कहा कि 'किसी कानून को स्वीकृति न्यायालय द्वारा नहीं दी जा सकती।' वहीं, राज्य सरकारों ने यह भी तर्क दिया कि न्यायपालिका हर बीमारी की दवा नहीं हो सकती।