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Telangana election: तेलंगाना की लड़ाई में 18, 12 और 13 वाला दांव, मोदी के इस भरोसे से क्या बदल जाएगी बाजी?

Ashish Tiwari आशीष तिवारी
Updated Mon, 27 Nov 2023 06:26 PM IST
सार
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि तेलंगाना में दलितों, आदिवासियों के साथ-साथ मुसलमानों के वोटों से सत्ता का रास्ता तय किया जाता है। बीते दो चुनावों में तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर के हिस्से इन तीनों प्रमुख समुदाय के मिले वोट से सत्ता की गद्दी हासिल हुई थी...
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Telangana election: the path to power is decided by the votes of Dalits, tribals as well as Muslims
Telangana election - फोटो : Amar Ujala/Sonu Kumar

विस्तार
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तेलंगाना में 30 नवंबर को चुनाव होने हैं। लेकिन इन चुनावों से पहले सियासी दशा और दिशा को बदलने वाले समीकरणों को साधने की सभी राजनीतिक चालें चली जा रही हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि तेलंगाना में दलित, आदिवासी के साथ-साथ मुसलमानों के वोट से सत्ता का रास्ता तय किया जाता है। बीते दो चुनावों में तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर के हिस्से इन तीनों प्रमुख समुदाय के मिले वोट से सत्ता की गद्दी हासिल हुई थी। यही वजह है कि कांग्रेस ने दलित, आदिवासी और मुसलमानों पर एक साथ सियासी दांव आजमाने शुरू किए हैं। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी ने दलितों और आदिवासियों के सहारे राज्य में सत्ता पाने की अपनी जुगत लगाई है।

तेलंगाना की सियासत में दलित आदिवासी और मुस्लिम समुदाय का प्रमुख योगदान होता है। इन तीनों समुदायों के 43 फ़ीसदी वोट तय करते हैं कि तेलंगाना में सरकार किसकी बनेगी। आंकड़ों के मुताबिक तेलंगाना में 18 फ़ीसदी दलित और 12 फीसदी आदिवासी समुदाय के साथ-साथ 13 फीसदी मुस्लिम मतदाता शामिल हैं। राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार पीएस रेड्डी कहते हैं कि बीते दो चुनाव में तो इन तीनों प्रमुख समुदायों पर केसीआर का ही बड़ा हक बना था। नतीजतन वह 2014 और 2018 में तेलंगाना की सत्ता में काबिज हुए। इस बार फिर सभी राजनीतिक दल इन्हीं सियासी समीकरणों के माध्यम से जातीयता के आधार पर तेलंगाना में सत्ता पाने का रास्ता तैयार कर रहे हैं।

सियासी जानकारों का कहना है कि 2014 के विधानसभा चुनावों में 19 आरक्षित सीटों में केसीआर की पार्टी बीआरएस को 16 सीटें हासिल हुई थीं। इसी तरह 2018 के चुनाव में भी आरक्षित सीटों में केसीआर की पार्टी बीआरएस की हिस्सेदारी तकरीबन बराबर ही रही थी। राजनीतिक विश्लेषक रेड्डी कहते हैं कि 2014 और 2018 के चुनाव में केसीआर ने 18 फ़ीसदी दलित, 12 फ़ीसदी आदिवासी और 13 फ़ीसदी मुसलमानों के वोट बैंक से 2014 की बनी सरकार की नीतियों के चलते वोट बैंक में बड़ी हिस्सेदारी हासिल की। अब दो चुनावों के बाद कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को तेलंगाना में सत्ता पाने का वह नुस्खा पता चल गया है, जिसके आधार पर केसीआर राज्य में सत्ता पाते आए हैं। यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी दलित और आदिवासियों की योजनाओं को आगे कर और कांग्रेस दलित, आदिवासी और मुसलमान की योजनाओं के सहारे तेलंगाना की सियासत में बड़ा दांव लगा रही है।

राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार एन सुदर्शन कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने तेलंगाना में माडिगा समुदाय को जिस तरीके से सरकार बनने पर उनके हित और हिस्सेदारी की बात की है, वह दलित समुदायों के लिहाज से एक बड़ा दांव माना जा रहा है। सुदर्शन कहते हैं कि तेलंगाना की 119 सीटों में से तकरीबन 28 सीटें ऐसी हैं जो माडिगा समुदाय के प्रभाव में आती हैं। सियासी जानकारों का कहना है कि प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद सिर्फ मडिगा समुदाय ही नहीं, बल्कि माला समुदाय को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सियासी तौर पर साधा है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि आरक्षण की लड़ाई लड़ने वाले मडिगा और माला समुदाय के माध्यम से भारतीय जनता पार्टी तेलंगाना में दलितों की सियासत को आगे कर रही है।

सियासी जानकारों का कहना है कि तेलंगाना के तकरीबन 6 जिलों में तो 24 फीसदी आबादी दलितों की है। जिसमें नागरकोइलूं, जोनगांव भेपालपल्ली और मंचिर्याल जैसे जिले प्रमुखता से शामिल हैं। इसलिए सभी सियासी दल तेलंगाना में दलितों को अपने साथ जोड़ने के लिए इन जिलों में मजबूती से सियासी दांव पेंच आजमाते हैं। वरिष्ठ पत्रकार सुदर्शन कहते हैं कि भाजपा जहां दलितों और आदिवासियों को लुभाने के लिए केंद्र सरकार की योजनाओं को आगे कर रही है, वहीं केसीआर अपनी बीती दो सरकारों की योजनाओं के माध्यम से दलितों आदिवासियों और मुसलमानों को उनसे जोड़कर तीसरी बार सत्ता पाने की राह बना रहे हैं। कांग्रेस भी अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रमुख दलित नेता मल्लिकार्जुन खरगे को आगे कर दलितों की सियासत में मजबूती से खुद को आगे रखने की बात कर रही है।

तकरीबन साढ़े तीन करोड़ आबादी वाले तेलंगाना राज्य में 13 फीसदी आबादी मुस्लिम है। सियासी जानकारों का कहना है कि राज्य की 119 विधानसभा सीटों में एक तिहाई से ज्यादा सीटें मुस्लिम प्रभावित हैं। यानी तेलंगाना की करीब 46 सीटों पर मुस्लिम मतदाता हार जीत का फैसला करते हैं। वरिष्ठ पत्रकार एन सुदर्शन कहते हैं कि अगर राज्य की सभी सीटों का आकलन करें, तो हैदराबाद की 10 सीटों पर औसतन 40 फ़ीसदी मुसलमान प्रभावी रूप से न सिर्फ मतदाता हैं, बल्कि हार-जीत उसके वोट पर ही निर्भर करती है। तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद के अलावा 20 सीटें ऐसी हैं, जहां पर औसतन 20 फीसदी मुसलमान निर्णायक मतदाता के तौर पर पहचाना जाता है। जबकि राज्य की 16 सीटों पर औसतन 14 फ़ीसदी मतदाता मुसलमान हैं और यही हार जीत का फैसला भी करते हैं। यही वजह है कि कांग्रेस और बीआरएस मुस्लिम समुदाय को अपने साथ जोड़ने के लिए सियासी योजनाओं को आगे रख रही है।

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