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राष्ट्रीय ध्वज: तिरंगे की उम्र बढ़ेगी, सालाना एक करोड़ किलो पॉलिस्टर का घटेगा भार
सीमा शर्मा, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: लव गौर
Updated Thu, 27 Nov 2025 05:37 AM IST
सार
अब तिरंगे की उम्र बढ़ेगी। इसी के साथ सालाना एक करोड़ किलो पॉलिस्टर का भार भी घटेगा। पानीपत में देश का पहला राष्ट्रीय ध्वज रिसाइकलिंग सेंटर बना है, जिसका शुक्रवार को उद्घाटन होगा।
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राष्ट्रीय ध्वज
- फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
अब एक ही राष्ट्रीय ध्वज (पॉलिस्टर निर्मित) को लंबे समय तक बार-बार फहराया जा सकेगा। आईआईटी के वैज्ञानिकों ने रिटायर्ड मेजर जनरल असीम कोहली की सलाह पर केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय के नेशनल टेक्निकल टेक्सटाइल मिशन (एनटीटीएम) के तहत पहली बार झंडे को सम्मानजक तरीके से रिसाइकिल करने की तकनीक ईजाद की है। इसमें, तिरंगे को दोबारा से राष्ट्रीय ध्वज ही बनाया जाएगा।
भारतीय सेना ने पायलट प्रोजेक्ट के लिए 15 अगस्त से अब तक करीब 500 झंडे मुहैया करवाए थे। यूं तो, पॉलिस्टर निर्मित तिरंगे की उम्र तीन से चार महीने होती है पर इस तकनीक से नए कलेवर में तिरंगे को 50 साल तक बार-बार प्रयोग में लाया जा सकेगा। खास बात है कि इससे धरती से सालाना एक करोड़ पॉलिस्टर का भार भी कम होगा। केंद्र सरकार ने तकनीकी वस्त्रों के रिसाइकिल के लिए पानीपत में अटल सेंटर ऑफ टेक्सटाइल रिसाइकिलिंग एंड सस्टेनेबिलिटी (एसीटीआरएस) बनाया है। केंद्रीय कपड़ा मंत्री गिरिराज सिंह शुक्रवार को इस सेंटर का उद्घाटन करेंगे।
अभी तक सम्मानजनक रिसाइकिल की तकनीक नहीं थी
रिटायर्ड मेजर जनरल असीम कोहली ने बताया, देश में अभी तक पॉलिस्टर निर्मित राष्ट्रीय ध्वज को सम्मानजनक निपटान की कोई तकनीक नहीं थी। नियमों के तहत, कॉटन के तिरंगे तो साफ जमीन में दबा दिए जाते हैं और कुछ महीनों बाद वे मिटटी में मिल जाते हैं। लेकिन पॉलिस्टर निर्मित तिरंगा जमीन में 100 साल तक नहीं गलता। इसके कारण, पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान पहुंच रहा था। दूसरा, इधर-उधर फेंकने से राष्ट्रीय ध्वज का अपमान भी हो रहा था। एक अनुमान के मुताबिक, सालाना एक करोड़ किलो पॉलिस्टर निर्मित तिरंगा बेकार होता है। एयरपोर्ट, शहरों, स्कूलों, रेलवे स्टेशनों में बड़े-बड़े तिरंगा पोल लगे हैं, उनके झंडे तीन से चार महीने में खराब हो जाते हैं।
इस तरह से तिरंगे का सम्मानजनक निपटान होगा
आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर डॉ. बिपिन कुमार ने बताया, देशभर से पॉलिस्टर निर्मित तिरंगे को अटल रिसाइकलिंग सेंटर तक भेजा जाएगा। रिसाइकिल से पहले तिरंगे के सफेद, हरा व केसरिया रंग को अलग किया जाएगा। फिर फाइबर धागा निकाला जाएगा। रिसाइकिल में तिरंगे की गुणवत्ता से समझौता नहीं होगा। इसलिए, दोबारा तिरंगा बनाने से पहले पुराने फाइबर धागे के साथ नया फाइबर धागा मिलाया जाएगा। इसमें, 40% पुराना और 60% नए धागे का प्रयोग होगा। एक तिरंगा पहले तीन से चार महीने के बाद बेकार चला जाता था, लेकिन इस तकनीक के बाद बार-बार रिसाइकिल करके उसे 50 साल तक प्रयोग किया जा सकेगा।
ये भी पढ़ें: Who Designed Indian Flag?: कब और किसने बनाया भारतीय राष्ट्रीय ध्वज, जानें तिरंगे के हर रंग का मतलब
आईआईटी वैज्ञानिकों ने इस तकनीक को पर्यावरण फ्रेंडली बनाया है। इस रिसाइकिल सर्कल में पानी, रंग और बिजली आदि का प्रयोग नहीं होगा। इससे पर्यावरण को होने वाले बड़े नुकसान से बचा जा सकेगा। इसमें सबसे कम कार्बन फुटप्रिंट निकलेगा। यानी रियूज, रिडयूज और रिसाइकिल थीम पर काम होगा। रिसाइकिलिंग में ही फाइबर लेवल कलर मिक्स कर देते हैं। इसमें तिरंगे के तीनों कलर अलग-अलग आ जाते हैं। इसीलिए डाई व पानी की जरूरत नहीं होगी।
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अभी तक सम्मानजनक रिसाइकिल की तकनीक नहीं थी
रिटायर्ड मेजर जनरल असीम कोहली ने बताया, देश में अभी तक पॉलिस्टर निर्मित राष्ट्रीय ध्वज को सम्मानजनक निपटान की कोई तकनीक नहीं थी। नियमों के तहत, कॉटन के तिरंगे तो साफ जमीन में दबा दिए जाते हैं और कुछ महीनों बाद वे मिटटी में मिल जाते हैं। लेकिन पॉलिस्टर निर्मित तिरंगा जमीन में 100 साल तक नहीं गलता। इसके कारण, पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान पहुंच रहा था। दूसरा, इधर-उधर फेंकने से राष्ट्रीय ध्वज का अपमान भी हो रहा था। एक अनुमान के मुताबिक, सालाना एक करोड़ किलो पॉलिस्टर निर्मित तिरंगा बेकार होता है। एयरपोर्ट, शहरों, स्कूलों, रेलवे स्टेशनों में बड़े-बड़े तिरंगा पोल लगे हैं, उनके झंडे तीन से चार महीने में खराब हो जाते हैं।
इस तरह से तिरंगे का सम्मानजनक निपटान होगा
आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर डॉ. बिपिन कुमार ने बताया, देशभर से पॉलिस्टर निर्मित तिरंगे को अटल रिसाइकलिंग सेंटर तक भेजा जाएगा। रिसाइकिल से पहले तिरंगे के सफेद, हरा व केसरिया रंग को अलग किया जाएगा। फिर फाइबर धागा निकाला जाएगा। रिसाइकिल में तिरंगे की गुणवत्ता से समझौता नहीं होगा। इसलिए, दोबारा तिरंगा बनाने से पहले पुराने फाइबर धागे के साथ नया फाइबर धागा मिलाया जाएगा। इसमें, 40% पुराना और 60% नए धागे का प्रयोग होगा। एक तिरंगा पहले तीन से चार महीने के बाद बेकार चला जाता था, लेकिन इस तकनीक के बाद बार-बार रिसाइकिल करके उसे 50 साल तक प्रयोग किया जा सकेगा।
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आईआईटी वैज्ञानिकों ने इस तकनीक को पर्यावरण फ्रेंडली बनाया है। इस रिसाइकिल सर्कल में पानी, रंग और बिजली आदि का प्रयोग नहीं होगा। इससे पर्यावरण को होने वाले बड़े नुकसान से बचा जा सकेगा। इसमें सबसे कम कार्बन फुटप्रिंट निकलेगा। यानी रियूज, रिडयूज और रिसाइकिल थीम पर काम होगा। रिसाइकिलिंग में ही फाइबर लेवल कलर मिक्स कर देते हैं। इसमें तिरंगे के तीनों कलर अलग-अलग आ जाते हैं। इसीलिए डाई व पानी की जरूरत नहीं होगी।