Vande Mataram: अब क्यों राजनीति के केंद्र में आया वंदे मातरम; क्या है विवाद, जिसे लेकर BJP-कांग्रेस में टकराव?
वंदे मातरम पर लोकसभा में शुरू हुई इस चर्चा के बीच यह जानना अहम है कि आखिर वंदे मातरम का मुद्दा अचानक संसद तक पहुंचा क्यों? प्रधानमंत्री ने किस तरह राष्ट्रगीत को लेकर कांग्रेस को घेरा है? कांग्रेस ने इस मुद्दे का जवाब किस तरह दिया? वंदे मातरम को लेकर जो विवाद है, उसकी जड़ें कहां हैं और आरोप-प्रत्यारोप के बीच इस पूरे मामले की सच्चा क्या है? आइये जानते हैं...
विस्तार
पीएम मोदी की ओर से इन वक्तव्यों का विपक्ष की तरफ से लोकसभा में जवाब भी दिया गया। इस दौरान कांग्रेस ने पीएम पर पलटवार किया। इतना ही नहीं समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव और अन्य नेताओं ने वंदे मातरम पर चर्चा में हिस्सा लिया।
7 नवंबर 1875 को बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा लिखे गए वंदे मातरम के 2025 में 150 साल पूरे हुए हैं। इस उपलक्ष्य पर केंद्र सरकार ने कई आयोजन भी किए हैं। ऐसे ही एक आयोजन में प्रधानमंत्री ने पिछले महीने कांग्रेस को घेरा था। पीएम ने आरोप लगाया था कि कांग्रेस ने 1937 के कलकत्ता में रखे गए अधिवेशन में वंदे मातरम के कुछ अहम छंद हटा दिए गए थे। उन्होंने दावा किया था कि इस फैसले ने बंटवारे के बीज बोए थे।
प्रधानमंत्री ने कहा था कि कांग्रेस ने राष्ट्रगीत को दो हिस्सों में तोड़ दिया और इसकी असल आत्मा को कमजोर कर दिया। उन्होंने इस मुद्दे को विकसित भारत के अपने विजन से जोड़ा और राष्ट्रीय विकास को सांस्कृतिक प्रतीकों के साथ मेल के तौर पर पेश किया।
कांग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी के इन आरोपों को न सिर्फ नकारा, बल्कि पलटवार भी किया। पार्टी ने महात्मा गांधी के कथनों और लेखन से संचित- 'द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी' (वॉल्यूम 66, पेज 46) का हवाला देते हुए कहा कि 1937 में वंदे मातरम को लेकर हुआ फैसला कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्लयूसी) के प्रस्ताव के बाद आया था। इस समिति में जवाहरलाल नेहरू के अलावा खुद महात्मा गांधी, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, राजेंद्र प्रसाद, अबुल कलाम आजाद, सरोजिनी नायडू और कई वरिष्ठ नेता शामिल थे।
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कांग्रेस ने आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री वंदे मातरम के बहाने आजादी के आंदोलन की विरासत पर हमला बोल रहे हैं और आज के मुद्दे, जैसे- बेरोजगारी, गैरबराबरी और विदेश नीति की चुनौतियों से ध्यान हटाने की कोशिश कर रहे हैं।
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वंदे मातरम को लेकर सरकार और विपक्ष में छिड़ी इस बहस के बीच सरकार ने फैसला किया कि 8 दिसंबर (सोमवार) को वंदे मातरम की 150वीं वर्षगांठ पर संसद में इस मुद्दे पर चर्चा कराई जाएगी। इस चर्चा की शुरुआत भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से किए जाने की जानकारी सामने आई। सरकार का मकसद राष्ट्रगीत से जुड़े इतिहास, इसके महत्व और स्वतंत्रता आंदोलन में इसकी भूमिका पर व्यापक स्तर पर चर्चा कराना रहा। हालांकि, विपक्ष ने कहा है कि सरकार पश्चिम बंगाल चुनाव के मद्देनजर वंदे मातरम को मुद्दा बनाना चाहती है और इसके छंदों को हटाने पर राजनीति कर रही है।
जिन दलों ने सरकार पर वंदे मातरम को लेकर बहस छेड़ने और इससे बंगाल चुनाव को प्रभावित करने का आरोप लगाया है, उनमें कांग्रेस के साथ-साथ तृणमूल कांग्रेस भी शामिल है। वंदे मातरम की 150वीं वर्षगांठ के मौके पर जब देशभर में इससे जुड़े आयोजन किए गए तब भी विपक्षी दलो ने इसके छंद हटाए जाने के मुद्दे पर बयान दिए।
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वंदे मातरम की रचना बंगाल के महान साहित्यकार बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा 1870 के दशक में की गई थी। यह पहली बार 1875 में उपन्यास आनंठ में प्रकाशित हुआ था। उपन्यास 'आनंद मठ' का मूल कथानक संन्यासियों के एक समूह के इर्द-गिर्द घूमता है, जिन्हें संतान कहा जाता है, जिसका आशय बच्चे होता है, जो अपनी मातृभूमि के लिए अपनी जिंदगी समर्पित कर देते हैं। वे मातृभूमि को देवी मां के रूप में पूजते हैं; उनकी भक्ति सिर्फ अपनी जन्मभूमि के लिए है। वंदे मातरम आनंद मठ में चित्रित इन्हीं संतानों द्वारा गाया गया गीत है। यह राष्ट्रभक्ति के धर्म का प्रतीक था, जो आनंद मठ का मुख्य विषय था।
कहा जाता है कि बंकिमचंद्र चटर्जी ने वंदे मातरम की रचना कर मातृभूमि को मां के रूप में देखने का नजरिया दिया, ताकि क्रांतिकारियों में आजादी की अलख जागती रहे।
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1905
राजनीतिक नारे के तौर पर वंदे मातरम का सबसे पहले इस्तेमाल 7 अगस्त 1905 को हुआ था, जब सभी समुदाय के हजारों छात्रों ने कलकता (कोलकाता) में टाउन हॉल की तरफ जुलूस निकालते हुए वंदे मातरम और दूसरे नारों से आसमान गूंजा दिया था । वहां एक बड़ी ऐतिहासिक सभा में, विदेशी सामानों के बहिष्कार और स्वदेशी अपनाने के प्रसिद्ध प्रस्ताव को पास किया गया, जिसने बंगाल के बंटवारे के खिलाफ आंदोलन का संकेत दिया। इसके बाद बंगाल में जो घटनाएं हुईं, उन्होंने पूरे देश में जोश भर दिया।
नवंबर 1905 में, बंगाल के रंगपुर के एक स्कूल के 200 छात्रों में से हर एक पर 5-5 रुपये का जुर्माना लगाया गया, क्योंकि वे वंदे मातरम गाने के दोषी थे। रंगपुर में, बंटवारे का विरोध करने वाले जाने-माने नेताओं को स्पेशल कांस्टेबल के तौर पर काम करने और वंदे मातरम गाने से रोकने का निर्देश दिया गया।
अप्रैल 1906 में, नए बने पूर्वी बंगाल प्रांत के बारीसाल में बंगाल प्रांतीय सम्मेलन के दौरान, ब्रिटिश हुक्मरानों ने वंदे मातरम के सार्वजनिक नारे लगाने पर रोक लगा दी और आखिरकार सम्मेलन पर ही रोक लगा दी। आदेश की अवहेलना करते हुए, प्रतिनिधियों ने नारा लगाना जारी रखा और उन्हें पुलिस के भारी दमन का सामना करना पड़ा।
20 मई 1906 को, बारीसाल (जो अब बांग्लादेश में है) में एक अभूतपूर्व वंदे मातरम जुलूस निकाला गया, जिसमें 10 हजार से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। हिंदू और मुसलमान दोनों ही शहर की मुख्य सड़कों पर वंदे मातरम के झंडे लेकर मार्च कर रहे थे।
मई 1907 में, लाहौर में, युवा प्रदर्शनकारियों के एक समूह ने औपनिवेशिक आदेशों की अवहेलना करते हुए जुलूस निकाला और रावलपिंडी में स्वदेशी नेताओं की गिरफ्तारी की निंदा करने के लिए वंदे मातरम का नारा लगाया। इस प्रदर्शन को पुलिस के क्रूर दमन का सामना करना पड़ा, फिर भी युवाओं द्वारा निडरता से नारे लगाना देश भर में फैल रही प्रतिरोध की बढ़ती भावना को दर्शाता है।
1908
27 फरवरी 1908 को, तूतीकोरिन (तमिलनाडु) में कोरल मिल्स के लगभग हजार मजदूर स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी के साथ एकजुटता दिखाते हुए और अधिकारियों की दमनकारी कार्रवाइयों के खिलाफ हड़ताल पर चले गए। वे देर रात तक सड़कों पर मार्च करते रहे, विरोध और देशभक्ति के प्रतीक के तौर पर वंदे मातरम के नारे लगाते रहे।
1908 में, बेलगाम (कर्नाटक) में जिस दिन लोकमान्य तिलक को बर्मा के मांडले भेजा जा रहा था, वंदे मातरम गाने के खिलाफ एक मौखिक आदेश के बावजूद ऐसा करने के लिए पुलिस ने कई लड़कों को पीटा और कई लोगों को गिरफ्तार किया।
वंदे मातरम गीत 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में कांग्रेस की राजनीतिक संस्कृति से जुड़ गया। 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में रवींद्रनाथ टैगोर की तरफ से इसे गाए जाने के बाद देश भर में यह गीत लोकप्रिय हो गया। 1905 में कांग्रेस के वाराणसी अधिवेशन में इस गीत को राष्ट्रीय आयोजनों के गीत के तौर पर शामिल कर लिया गया।
हालांकि, 1930 के दशक में जब मोहम्मद अली जिन्ना की धर्म आधारित राजनीति उभार पर थी, तब वंदे मातरम का विरोध शुरू हो गया। खासकर वंदे मातरम के आखिरी चार छंदों को धार्मिक बताकर मुस्लिमों ने इसका विरोध किया। यह वही समय था, जब जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के अलग अधिकारों की वकालत की थी। बताया जाता है कि कांग्रेस ने अपने स्वतंत्रता आंदोलन को एकजुट रखने के लिए वंदे मातरम के सिर्फ दो ही छंदों के साथ आगे बढ़ने का निर्णय लिया।
1937 के फैजाबाद अधिवेशन में सीडब्ल्यूसी ने इससे जुड़ा प्रस्ताव पेश किया और कहा कि वंदे मातरम के जो दो छंद सबसे ज्यादा गाए जाते हैं, उन्हें ही राष्ट्रीय आयोजनों में आगे गाया जाएगा।
24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने एलान किया कि 'जन गण मन' भारत का राष्ट्रगान होगा। वहीं, वंदे मातरम को बराबर सम्मान और दर्जा दिया जाएगा, क्योंकि देश में इसकी ऐतिहासिक भूमिका रही है। उनके इस एलान के बाद संविधान सभा तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठी और इस पर किसी ने आपत्ति नहीं जताई।
वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलाम्
मातरम्।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्
सप्तकोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
द्विसप्तकोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले।
बहुबलधारिणीं
नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं
मातरम्
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे
त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,
नमामि त्वाम्
नमामि कमलाम्
अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलाम्
मातरम्
वन्दे मातरम्
श्यामलाम् सरलाम्
सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीं भरणीं
मातरम्