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Bihar: उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी से बिहार में क्या बदलेगा, 2024 के लोकसभा चुनाव में कैसे होंगे सियासी समीकरण?
स्पेशल डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: हिमांशु मिश्रा
Updated Tue, 21 Feb 2023 05:30 PM IST
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उपेंद्र कुशवाहा, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव
- फोटो :
अमर उजाला
विस्तार
बिहार की सियासत में इन दिनों भारी उथलपुथल है। सोमवार को जनता दल (यूनाइटेड) के नेता उपेंद्र कुशवाहा ने पार्टी छोड़ दी। कुशवाहा ने अपनी नई राजनीतिक पार्टी का भी एलान कर दिया। इसका नाम 'राष्ट्रीय लोक जनता दल' रखा है। ऐसा पहली बार नहीं है कि उपेंद्र कुशवाहा ने जदयू का साथ छोड़ा है। इसके पहले भी 2013 में वह ऐसा कर चुके हैं। तब उन्होंने राष्ट्रीय लोक समता पार्टी बनाई (आरएलएसपी) बनाई थी। आरएलएसपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था और उपेंद्र कुशवाहा मोदी सरकार में मंत्री भी बनाए गए थे।इस बार भी उपेंद्र कुशवाहा की नई पार्टी के गठन की खूब चर्चा हो रही है। सवाल ये भी उठ रहा है कि आखिर इस नई पार्टी का जदयू और राजद के गठबंधन पर कितना असर पड़ेगा? उपेंद्र कुशवाहा जदयू को कितना नुकसान पहुंचा सकते हैं? बिहार का ताजा सियासी समीकरण आखिर क्या है? आइए समझते हैं...
उपेंद्र कुशवाहा की बिहार की राजनीति में क्या भूमिका है?
उपेंद्र कुशवाहा का सियासी सफर समता पार्टी से ही शुरू हुआ था। नीतीश समता पार्टी के कद्दावर नेता रहे। साल 2000 के बिहार विधानसभा चुनावों में हारने के बाद समता पार्टी जदयू में बदल गई । साल 2003 में नीतीश कुमार ने उपेंद्र कुशवाहा को बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया था। कुशवाहा साल 2000 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीते थे।
उन दिनों बिहार में लालू प्रसाद यादव ने 'एमवाई' यानी मुस्लिम-यादव का समीकरण बेहद मजबूत माना जाता था। लालू के इस समीकरण के खिलाफ नीतीश कुमार ने उपेंद्र कुशवाहा के जरिए 'लव-कुश' समीकरण तैयार किया। लव-कुश समीकरण में कुर्मी, कोइरी, कुशवाहा व ओबीसी की अन्य गैर यादव जातियां शामिल थीं।
2013 में जब भाजपा ने एनडीए की तरफ से गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित किया तो नीतीश कुमार ने एनडीए का साथ छोड़ दिया। इसी समय उपेंद्र कुशवाहा भी जदयू से अलग हो गए और उन्होंने अपनी खुद की नई पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी बनाई (आरएलएसपी) बना ली। आरएलएसपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था और उपेंद्र कुशवाहा चुनाव जीते और मोदी सरकार में मंत्री भी बनाए गए।
साल 2017 में नीतीश के बिहार में महागठबंधन को छोड़ एनडीए में लौटने के बाद साल 2018 में कुशवाहा ने एनडीए का साथ छोड़ दिया। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार में कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी ने विपक्षी महागठबंधन का दामन थामा था। इन चुनावों में बुरी हार के बाद साल 2020 के विधानसभा चुनाव में कुशवाहा ने महागठबंधन को छोड़ मायावती की बीएसपी और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा। उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को न तो 2019 के लोकसभा चुनाव में और न ही 2020 के विधानसभा चुनाव में कोई सीट मिली थी। 2020 के चुनाव के बाद कुशवाहा ने अपनी पार्टी का विलय जदयू में कर दिया। नीतीश के महागठबंधन के साथ जाने के कुछ समय बाद से कुशवाहा के पार्टी से नाराज होने की खबरें आने लगीं। करीब दो साल तक जदयू में रहने के बाद सोमवार को आखिरकार कुशवाहा ने फिर ले अपने रास्ते नीतीश से अलग कर लिए।
उपेंद्र कुशवाहा का सियासी सफर समता पार्टी से ही शुरू हुआ था। नीतीश समता पार्टी के कद्दावर नेता रहे। साल 2000 के बिहार विधानसभा चुनावों में हारने के बाद समता पार्टी जदयू में बदल गई । साल 2003 में नीतीश कुमार ने उपेंद्र कुशवाहा को बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया था। कुशवाहा साल 2000 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीते थे।
उन दिनों बिहार में लालू प्रसाद यादव ने 'एमवाई' यानी मुस्लिम-यादव का समीकरण बेहद मजबूत माना जाता था। लालू के इस समीकरण के खिलाफ नीतीश कुमार ने उपेंद्र कुशवाहा के जरिए 'लव-कुश' समीकरण तैयार किया। लव-कुश समीकरण में कुर्मी, कोइरी, कुशवाहा व ओबीसी की अन्य गैर यादव जातियां शामिल थीं।
2013 में जब भाजपा ने एनडीए की तरफ से गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित किया तो नीतीश कुमार ने एनडीए का साथ छोड़ दिया। इसी समय उपेंद्र कुशवाहा भी जदयू से अलग हो गए और उन्होंने अपनी खुद की नई पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी बनाई (आरएलएसपी) बना ली। आरएलएसपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था और उपेंद्र कुशवाहा चुनाव जीते और मोदी सरकार में मंत्री भी बनाए गए।
साल 2017 में नीतीश के बिहार में महागठबंधन को छोड़ एनडीए में लौटने के बाद साल 2018 में कुशवाहा ने एनडीए का साथ छोड़ दिया। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार में कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी ने विपक्षी महागठबंधन का दामन थामा था। इन चुनावों में बुरी हार के बाद साल 2020 के विधानसभा चुनाव में कुशवाहा ने महागठबंधन को छोड़ मायावती की बीएसपी और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा। उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को न तो 2019 के लोकसभा चुनाव में और न ही 2020 के विधानसभा चुनाव में कोई सीट मिली थी। 2020 के चुनाव के बाद कुशवाहा ने अपनी पार्टी का विलय जदयू में कर दिया। नीतीश के महागठबंधन के साथ जाने के कुछ समय बाद से कुशवाहा के पार्टी से नाराज होने की खबरें आने लगीं। करीब दो साल तक जदयू में रहने के बाद सोमवार को आखिरकार कुशवाहा ने फिर ले अपने रास्ते नीतीश से अलग कर लिए।
जदयू-राजद को कितना नुकसान पहुंचाएंगे कुशवाहा?
इसे समझने के लिए हमने बिहार के वरिष्ठ पत्रकार नवीन वाजपेयी से बात की। उन्होंने कहा, 'बिहार में करीब नौ से दस फीसदी कुशवाहा और कुर्मी वोटर्स हैं। नीतीश कुमार खुद कुर्मी जाति से हैं। ऐसे में इन जाति के वोटर्स पर किसी एक नेता की पकड़ नहीं कही जा सकती है। हां, इतना जरूर है कि उपेंद्र कुशवाहा राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं।'
वाजपेयी आगे कहते हैं, 'मौजूदा सियासी समीकरण देखें तो अभी महागठबंधन के पास 74 फीसदी से ज्यादा वोट है। 2020 में भाजपा को 19.46 फीसदी वोट मिले थे। अभी चिराग पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी भी भाजपा को बाहर से सपोर्ट कर रही है। ऐसे में भाजपा आने वाले लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव में इन छोटी पार्टियों के सहारे मैदान में उतर सकती है। इससे भाजपा को जातिगत वोटर्स के बीच फायदा मिल सकता है।'
वाजपेयी के अनुसार, 'उपेंद्र कुशवाहा अब जदयू और राजद के उन नेताओं को टारगेट करेंगे जिन्हें पार्टी ने एक तरह से साइडलाइन कर दिया गया है। ऐसे नेताओं को वह अपने साथ जोड़कर आने वाले चुनावों में जदयू और राजद को टक्कर देने की कोशिश करेंगे। संभव है कि वह भाजपा के साथ गठबंधन भी कर लें। जैसा कि 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान किया था। कुशवाहा अगर भाजपा के साथ आते हैं तो भाजपा गैर यादव वोटर्स को अपने साथ करने की कोशिश करेगी। इसका सीधे नुकसान जदयू को उठाना पड़ सकता है।'
इसे समझने के लिए हमने बिहार के वरिष्ठ पत्रकार नवीन वाजपेयी से बात की। उन्होंने कहा, 'बिहार में करीब नौ से दस फीसदी कुशवाहा और कुर्मी वोटर्स हैं। नीतीश कुमार खुद कुर्मी जाति से हैं। ऐसे में इन जाति के वोटर्स पर किसी एक नेता की पकड़ नहीं कही जा सकती है। हां, इतना जरूर है कि उपेंद्र कुशवाहा राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं।'
वाजपेयी आगे कहते हैं, 'मौजूदा सियासी समीकरण देखें तो अभी महागठबंधन के पास 74 फीसदी से ज्यादा वोट है। 2020 में भाजपा को 19.46 फीसदी वोट मिले थे। अभी चिराग पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी भी भाजपा को बाहर से सपोर्ट कर रही है। ऐसे में भाजपा आने वाले लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव में इन छोटी पार्टियों के सहारे मैदान में उतर सकती है। इससे भाजपा को जातिगत वोटर्स के बीच फायदा मिल सकता है।'
वाजपेयी के अनुसार, 'उपेंद्र कुशवाहा अब जदयू और राजद के उन नेताओं को टारगेट करेंगे जिन्हें पार्टी ने एक तरह से साइडलाइन कर दिया गया है। ऐसे नेताओं को वह अपने साथ जोड़कर आने वाले चुनावों में जदयू और राजद को टक्कर देने की कोशिश करेंगे। संभव है कि वह भाजपा के साथ गठबंधन भी कर लें। जैसा कि 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान किया था। कुशवाहा अगर भाजपा के साथ आते हैं तो भाजपा गैर यादव वोटर्स को अपने साथ करने की कोशिश करेगी। इसका सीधे नुकसान जदयू को उठाना पड़ सकता है।'