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Year Ender 2025: सियासी चौसर पर होती रही शह-मात, बिहार-दिल्ली के नतीजों से SIR तक ये घटनाएं बनीं सुर्खियां
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: हिमांशु चंदेल
Updated Wed, 31 Dec 2025 04:17 PM IST
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सार
साल 2025 भारतीय राजनीति के लिए उथल-पुथल भरा रहा। बिहार और दिल्ली के चुनावी नतीजों ने कई सियासी समीकरण बदले। गठबंधन, टकराव, रणनीति और बयानबाजी के बीच लोकतांत्रिक चौसर पर शह-मात का खेल चलता रहा। आइए विस्तार से जानते हैं उन सियासी घटनाओं को, जिन्होंने देश के परिदृश्य को बदल कर रख दिया।
इन सियासी घटनाओं ने बदला देश का परिदृश्य
- फोटो : अमर उजाला ग्राफिक्स
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विस्तार
राजा नहीं बनता यहां खून के दस्तूर से...वोट तय करता है किसे हुकूमत का नूर मिले... कुछ ऐसा ही साल 2025 में हुआ। वोट की ताकत ने किसी को सत्ता से बाहर किया तो किसी को फिर कमान सौंप दी। किसी नेता ने अपनी खोई होई ताकत दिखाई तो किसी नए नवेले नेता ने भीड़ के हुजूम को इक्ट्ठा कर दिया।
आइए जानते हैं साल 2025 में किन-किन प्रदेशों में चुनाव हुए। उत्तर प्रदेश से लेकर तेलंगाना तक किन नेताओं ने शक्ति प्रदर्शन किया। कई सियासी समीकरण बदले, तो कई फैसलों और विवादों ने सत्ता और विपक्ष को आमने-सामने ला दिया। आइए अब साल 2025 की सभी राजनीतक घटनाओं को विस्तार से जानते हैं।
यहां हुई वर्चस्व की जंग
साल 2025 की शुरुआत भी सियासी सरगर्मी के साथ हुई। दिल्ली में विधानसभा का चुनाव हुआ। लगातार तीन बार से चुनाव जीत रहे केजरीवाल की कड़ी परीक्षा थी। भाजपा भी 27 वर्ष से खोई हुई अपनी सियासत को वापस लाने के लिए बेकरार थी। ऐसे में दिल्ली का चुनाव बड़ा दिलचस्प था। कोई कह रहा था फिर केजरीवाल बाजी मारेंगे तो किसी को भाजपा की ताकत पर भरोसा था। खैर, जब नतीजे आए तो पता चला भाजपा ने देर से मगर कमबैक कर लिया।
70 में से 48 सीटें जीतकर पूर्ण भाजपा ने बहुमत प्राप्त किया। 27 वर्षों की बंजर जमीन को उपजाऊ बनाकर जीत की फसल काट ली। दिल्ली की सत्ता में शानदार वापसी की। दस वर्षों से भी ज्यादा समय के शासन के बाद आम आदमी पार्टी को हार का सामना कर पड़ा। हार भी इस कदर कि उस समय के मौजूदा आम आदमी पार्ट के मुखिया और कई धुरंधर भी अपनी विधानसभा सीट से हार गए। भाजपा की जीत के बाद रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बना दिया गया। फिलहाल दिल्ली की सत्ता वही संभाल रही हैं।
कुल 70 सीटों वाली विधानसभा में आम आदमी पार्टी (आप) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच सीधी टक्कर देखने को मिली। चुनाव में आप ने 22 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि भाजपा ने 48 सीटों पर शानदार जीत हासिल की। वहीं, कांग्रेस पार्टी इस चुनाव में खाता भी नहीं खोल सकी और उसे एक भी सीट नहीं मिली।
बिहार में मोदी-नीतीश ने गर्दा उड़ा दिया
भाजपा का मुख्यालय। पीएम मोदी जीत का गमछा लहरा रहे थे... इस पल सब खुद-ब-खुद बयां कर दिया था। लोगों को पता चल चुका था कि बिहार में भाजपा की बहार आई है। इस बहार में नीतीश थोड़ा हल्के हो गए। बड़े भाई से वो छोटे भाई हो चुके थे। मखाना उत्पादने करने वाले इस प्रदेश ने बता दिया कि तेजस्वी को अभी और मेहनत करने की जरूरत है। वहीं, औवेसी ने पांच सीटे जीतकर अपनी ताकत का प्रदर्शन किया। नए नवेले नेता बने प्रशांत किशोर ने सोशल मीडिया पर तो अपनी चमक बिखेरी लेकिन नतीजे बिल्कुल फीके रहें।
राष्ट्रीय जनता दल क्यों हारी?
साल 2020 के चुनाव हुए तो लगा अगली बार यानी 2025 में तेजस्वी नीतीश सरकार को पटखनी दे देंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इसके कई कारण हैं। फिर चाहे वो तेज प्रताप का टूटना या फिर चाहे वो संजय यादव और उनके लोगो से घरे रहना। ओवैसी की सेंधमारी ने भी तेजस्वी को काफी नुकसान किया। तेज प्रताप द्वारा बनाई गई नई पार्टी कुछ खास नहीं लेकिन थोड़ा झटका जरूर दिया
कौन कितनी सीटें जीता?
243 विधानसभा सीटों वाले बिहार में इस बार का चुनावी जनादेश स्पष्ट और निर्णायक रहा। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और उसने 89 सीटों पर जीत दर्ज की। उसके सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) को 85 सीटें मिलीं, जिससे एनडीए को मजबूत बहुमत हासिल हुआ। विपक्ष में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने 25 सीटें जीतीं।
अन्य दलों की बात करें तो लोजपा (रामविलास) को 19 सीटें, कांग्रेस को 6 सीटें मिलीं। अन्य दलों ने कुल छह सीटें जीतीं। वहीं हम (सेक्युलर) को पांच, आरएलएम को चार, सीपीआई (एम-एल) लिबरेशन को दो, जबकि सीपीआई (एम) और आईआईपी को एक-एक सीट पर जीत मिली। नतीजे बताते हैं कि बिहार की राजनीति में एनडीए का दबदबा कायम रहा।
प्रशांत किशोर को करना होगा और इंतजार
चुनावी रणनीतिकार के तौर पर लंबा अनुभव रखने वाले प्रशांत किशोर ने जब सक्रिय राजनीति में उतरते हुए जनसुराज पार्टी बनाई, तो इसे बिहार की राजनीति में एक नए प्रयोग के रूप में देखा गया। खुद प्रशांत किशोर ने इस चुनाव को अपनी पार्टी के लिए अर्श या फर्श की लड़ाई बताया था। शुरुआती दौर में ऐसा लगा भी कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पलायन और भ्रष्टाचार जैसे बुनियादी मुद्दों को उन्होंने चुनावी विमर्श के केंद्र में ला दिया है।
हालांकि नतीजों ने एक अलग ही तस्वीर पेश की। जिन मुद्दों को प्रशांत किशोर ने जोर-शोर से उठाया, वे तो चर्चा में रहे, लेकिन मतदाताओं का भरोसा पार्टी में नहीं बदल पाया। जनसुराज पार्टी न सिर्फ एक भी सीट जीतने में नाकाम रही, बल्कि 238 उम्मीदवारों में से केवल पांच ही अपनी जमानत बचा सके। इससे यह साफ हो गया कि प्रशांत किशोर को अभी और मेहनत करनी पड़ेगी।
ठाकरे भाइयों की नजदीकियों ने बढ़ाई हलचल
साल 2025 की राजनीति में ठाकरे परिवार का पुनर्मिलन सबसे चर्चित घटनाओं में शुमार हो गया है। लंबे समय तक अलग-अलग राजनीतिक राहों पर चलने वाले ठाकरे चचेरे भाइयों का साथ आना महाराष्ट्र की राजनीति में संभावित बड़े बदलाव का संकेत माना जा रहा है। उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के एक मंच पर दिखने को राजनीतिक हलकों में महज पारिवारिक मेल-मिलाप नहीं, बल्कि रणनीतिक कदम के तौर पर देखा जा रहा है।
इस पुनर्मिलन का समय खास है, क्योंकि राज्य में जल्द ही बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के चुनाव होने हैं। बीएमसी देश की सबसे समृद्ध नगर निकायों में गिनी जाती है और लंबे समय तक शिवसेना का गढ़ रही है। हालांकि, बीते वर्षों में पार्टी टूट, सत्ता परिवर्तन और गठबंधनों के उतार-चढ़ाव ने राजनीतिक समीकरणों को जटिल बना दिया है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ठाकरे भाइयों की नजदीकी मराठी मतदाताओं के बिखराव को रोकने में अहम भूमिका निभा सकती है। खासकर मुंबई और आसपास के शहरी इलाकों में इसका सीधा असर देखने को मिल सकता है। समर्थक इसे मराठी अस्मिता की राजनीति को नई धार देने की कोशिश बता रहे हैं, जबकि आलोचकों का कहना है कि पुराने मतभेद और वैचारिक अंतर इस एकता की सबसे बड़ी परीक्षा होंगे।
एसआईआर रहा सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा
साल 2025 में भारत निर्वाचन आयोग द्वारा शुरू किया गया विशेष गहन पुनरीक्षण (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन–SIR) कार्यक्रम देश की राजनीति में बड़े विवाद का कारण बन गया। मतदाता सूचियों के सत्यापन और संशोधन से जुड़े इस अभियान को लेकर विपक्षी दलों ने गंभीर आपत्तियां दर्ज कराईं और इसे मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश बताया।
एसआईआर के खिलाफ कई राज्यों में विरोध प्रदर्शन हुए, वहीं यह मुद्दा भारतीय संसद में भी गूंजता रहा। विपक्ष का आरोप था कि इस प्रक्रिया के तहत बड़ी संख्या में योग्य मतदाताओं के नाम हटाए जा सकते हैं, जिससे चुनाव की निष्पक्षता पर असर पड़ेगा।
वहीं, निर्वाचन आयोग ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि यह प्रक्रिया पूरी तरह संवैधानिक और पारदर्शी है तथा इसका उद्देश्य केवल मतदाता सूची को सटीक बनाना है। इसके बावजूद, 2025 में चुनावी विमर्श पर एसआईआर का असर साफ तौर पर दिखाई दिया और यह साल के सबसे बड़े राजनीतिक टकरावों में शामिल रहा।
वोटर चोरी के आरोप
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कई राज्यों में कथित वोटर चोरी के मामलों को लेकर गंभीर आरोप लगाए हैं। राहुल गांधी का दावा है कि चुनावी सूचियों में गड़बड़ी कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश की गई। उन्होंने आरोप लगाया कि बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम हटाए गए या स्थानांतरित किए गए, जिससे निष्पक्ष चुनाव पर सवाल खड़े होते हैं।
इन आरोपों के बाद निर्वाचन आयोग और भारतीय जनता पार्टी की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया सामने आई। आयोग ने आरोपों को निराधार बताते हुए कहा कि चुनावी प्रक्रिया पूरी तरह नियमों और पारदर्शिता के साथ संचालित की जाती है। वहीं भाजपा ने इसे चुनावी हार की आशंका से उपजा बयान करार दिया। इस मुद्दे ने संसद और राजनीतिक गलियारों में तीखी बहस को जन्म दे दिया है।
कर्नाटक में सत्ता खींचतान की चर्चा
कर्नाटक की राजनीति में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के बीच कथित सत्ता खींचतान की अटकलें लगातार चर्चा में बनी हुई हैं। राजनीतिक हलकों में यह दावा किया जा रहा है कि कांग्रेस के भीतर एक कथित सत्ता-साझेदारी समझौता हुआ था, जिसके तहत सिद्धारमैया ढाई साल मुख्यमंत्री रहने के बाद पद शिवकुमार को सौंपेंगे।
हालांकि, इस तरह के किसी भी औपचारिक समझौते की दोनों नेताओं ने सार्वजनिक रूप से पुष्टि नहीं की है। पार्टी नेतृत्व भी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है। इन अटकलों के बीच कर्नाटक में सरकार की स्थिरता और भविष्य की राजनीति को लेकर चर्चाएं तेज हो गई हैं। जानकारों का मानना है कि यह विवाद कांग्रेस के लिए आंतरिक संतुलन की बड़ी परीक्षा साबित हो सकता है।
जब राजनीतिक भीड़ हुई हादसे का शिकार
27 सितंबर को विजय की टीवीके की रैली के दौरान करूर में मची भगदड़ ने राजनीति और जन-सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए। इस दर्दनाक घटना में 41 लोगों की मौत हो गई, जबकि 60 से अधिक लोग घायल हुए। अत्यधिक भीड़, अव्यवस्थित प्रवेश-निकास और सुरक्षा इंतजामों की कमी हादसे की बड़ी वजह बनी।
मामले की गंभीरता को देखते हुए जांच फिलहाल सीबीआई के पास है। इस घटना ने ये तो बता दिया कि याद दिलाती है कि राजनीतिक आयोजनों में भीड़ प्रबंधन और सुरक्षा मानकों की अनदेखी जानलेवा साबित हो सकती है।
मायावती का शक्ति प्रदर्शन और रणनीतिक चूक
कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर लखनऊ में आयोजित बहुजन समाज पार्टी की महारैली 2025 की सबसे बड़ी राजनीतिक सभाओं में गिनी गई। भारी भीड़, हजारों वाहन और राज्य-देश के अलग-अलग हिस्सों से पहुंचे लोगों ने इसे बसपा का बड़ा शक्ति प्रदर्शन बना दिया। करीब दो लाख लोगों की मौजूदगी का अनुमान लगाया गया, जबकि पार्टी ने इससे कहीं अधिक संख्या का दावा किया।
लगभग चार साल बाद मायावती का सार्वजनिक मंच पर आना अपने आप में अहम रहा। रैली की पहली बड़ी चर्चा मायावती के भाषण को लेकर रही। समाजवादी पार्टी पर हमला करते-करते उन्होंने शुरुआत में ही योगी सरकार की तारीफ कर दी, जिसे बाद में की गई आलोचनाएं भी संतुलित नहीं कर सकीं। यही बात विपक्ष को यह कहने का मौका दे गई कि बसपा का रुख अस्पष्ट है।
दूसरी अहम बात रही आकाश आनंद की प्रभावी राजनीतिक लॉन्चिंग। मायावती ने खुले तौर पर उन्हें अपना उत्तराधिकारी संकेतित किया और मंच पर उन्हें विशेष स्थान दिया। इससे बसपा के भीतर चल रही खींचतान पर विराम लगता दिखा। साथ ही सतीश चंद्र मिश्र और अन्य नेताओं की मौजूदगी से जातीय संतुलन साधने की कोशिश भी साफ नजर आई।
तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण पहलू बसपा का संगठनात्मक संदेश था। मायावती ने अकेले चुनाव लड़ने और सत्ता में वापसी का दावा दोहराया। उनका मुख्य हमला सपा-कांग्रेस के पीडीए फार्मूले पर रहा, जिसे वे अपने परंपरागत वोटबैंक में सेंध मानती हैं। हालांकि, योगी सरकार की तारीफ ने मुस्लिम और अल्पसंख्यक मतदाताओं के बीच नकारात्मक संदेश भी दिया।
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आइए जानते हैं साल 2025 में किन-किन प्रदेशों में चुनाव हुए। उत्तर प्रदेश से लेकर तेलंगाना तक किन नेताओं ने शक्ति प्रदर्शन किया। कई सियासी समीकरण बदले, तो कई फैसलों और विवादों ने सत्ता और विपक्ष को आमने-सामने ला दिया। आइए अब साल 2025 की सभी राजनीतक घटनाओं को विस्तार से जानते हैं।
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यहां हुई वर्चस्व की जंग
साल 2025 की शुरुआत भी सियासी सरगर्मी के साथ हुई। दिल्ली में विधानसभा का चुनाव हुआ। लगातार तीन बार से चुनाव जीत रहे केजरीवाल की कड़ी परीक्षा थी। भाजपा भी 27 वर्ष से खोई हुई अपनी सियासत को वापस लाने के लिए बेकरार थी। ऐसे में दिल्ली का चुनाव बड़ा दिलचस्प था। कोई कह रहा था फिर केजरीवाल बाजी मारेंगे तो किसी को भाजपा की ताकत पर भरोसा था। खैर, जब नतीजे आए तो पता चला भाजपा ने देर से मगर कमबैक कर लिया।
70 में से 48 सीटें जीतकर पूर्ण भाजपा ने बहुमत प्राप्त किया। 27 वर्षों की बंजर जमीन को उपजाऊ बनाकर जीत की फसल काट ली। दिल्ली की सत्ता में शानदार वापसी की। दस वर्षों से भी ज्यादा समय के शासन के बाद आम आदमी पार्टी को हार का सामना कर पड़ा। हार भी इस कदर कि उस समय के मौजूदा आम आदमी पार्ट के मुखिया और कई धुरंधर भी अपनी विधानसभा सीट से हार गए। भाजपा की जीत के बाद रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बना दिया गया। फिलहाल दिल्ली की सत्ता वही संभाल रही हैं।
कुल 70 सीटों वाली विधानसभा में आम आदमी पार्टी (आप) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच सीधी टक्कर देखने को मिली। चुनाव में आप ने 22 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि भाजपा ने 48 सीटों पर शानदार जीत हासिल की। वहीं, कांग्रेस पार्टी इस चुनाव में खाता भी नहीं खोल सकी और उसे एक भी सीट नहीं मिली।
बिहार में मोदी-नीतीश ने गर्दा उड़ा दिया
भाजपा का मुख्यालय। पीएम मोदी जीत का गमछा लहरा रहे थे... इस पल सब खुद-ब-खुद बयां कर दिया था। लोगों को पता चल चुका था कि बिहार में भाजपा की बहार आई है। इस बहार में नीतीश थोड़ा हल्के हो गए। बड़े भाई से वो छोटे भाई हो चुके थे। मखाना उत्पादने करने वाले इस प्रदेश ने बता दिया कि तेजस्वी को अभी और मेहनत करने की जरूरत है। वहीं, औवेसी ने पांच सीटे जीतकर अपनी ताकत का प्रदर्शन किया। नए नवेले नेता बने प्रशांत किशोर ने सोशल मीडिया पर तो अपनी चमक बिखेरी लेकिन नतीजे बिल्कुल फीके रहें।
राष्ट्रीय जनता दल क्यों हारी?
साल 2020 के चुनाव हुए तो लगा अगली बार यानी 2025 में तेजस्वी नीतीश सरकार को पटखनी दे देंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इसके कई कारण हैं। फिर चाहे वो तेज प्रताप का टूटना या फिर चाहे वो संजय यादव और उनके लोगो से घरे रहना। ओवैसी की सेंधमारी ने भी तेजस्वी को काफी नुकसान किया। तेज प्रताप द्वारा बनाई गई नई पार्टी कुछ खास नहीं लेकिन थोड़ा झटका जरूर दिया
कौन कितनी सीटें जीता?
243 विधानसभा सीटों वाले बिहार में इस बार का चुनावी जनादेश स्पष्ट और निर्णायक रहा। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और उसने 89 सीटों पर जीत दर्ज की। उसके सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) को 85 सीटें मिलीं, जिससे एनडीए को मजबूत बहुमत हासिल हुआ। विपक्ष में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने 25 सीटें जीतीं।
अन्य दलों की बात करें तो लोजपा (रामविलास) को 19 सीटें, कांग्रेस को 6 सीटें मिलीं। अन्य दलों ने कुल छह सीटें जीतीं। वहीं हम (सेक्युलर) को पांच, आरएलएम को चार, सीपीआई (एम-एल) लिबरेशन को दो, जबकि सीपीआई (एम) और आईआईपी को एक-एक सीट पर जीत मिली। नतीजे बताते हैं कि बिहार की राजनीति में एनडीए का दबदबा कायम रहा।
प्रशांत किशोर को करना होगा और इंतजार
चुनावी रणनीतिकार के तौर पर लंबा अनुभव रखने वाले प्रशांत किशोर ने जब सक्रिय राजनीति में उतरते हुए जनसुराज पार्टी बनाई, तो इसे बिहार की राजनीति में एक नए प्रयोग के रूप में देखा गया। खुद प्रशांत किशोर ने इस चुनाव को अपनी पार्टी के लिए अर्श या फर्श की लड़ाई बताया था। शुरुआती दौर में ऐसा लगा भी कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पलायन और भ्रष्टाचार जैसे बुनियादी मुद्दों को उन्होंने चुनावी विमर्श के केंद्र में ला दिया है।
हालांकि नतीजों ने एक अलग ही तस्वीर पेश की। जिन मुद्दों को प्रशांत किशोर ने जोर-शोर से उठाया, वे तो चर्चा में रहे, लेकिन मतदाताओं का भरोसा पार्टी में नहीं बदल पाया। जनसुराज पार्टी न सिर्फ एक भी सीट जीतने में नाकाम रही, बल्कि 238 उम्मीदवारों में से केवल पांच ही अपनी जमानत बचा सके। इससे यह साफ हो गया कि प्रशांत किशोर को अभी और मेहनत करनी पड़ेगी।
ठाकरे भाइयों की नजदीकियों ने बढ़ाई हलचल
साल 2025 की राजनीति में ठाकरे परिवार का पुनर्मिलन सबसे चर्चित घटनाओं में शुमार हो गया है। लंबे समय तक अलग-अलग राजनीतिक राहों पर चलने वाले ठाकरे चचेरे भाइयों का साथ आना महाराष्ट्र की राजनीति में संभावित बड़े बदलाव का संकेत माना जा रहा है। उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के एक मंच पर दिखने को राजनीतिक हलकों में महज पारिवारिक मेल-मिलाप नहीं, बल्कि रणनीतिक कदम के तौर पर देखा जा रहा है।
इस पुनर्मिलन का समय खास है, क्योंकि राज्य में जल्द ही बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के चुनाव होने हैं। बीएमसी देश की सबसे समृद्ध नगर निकायों में गिनी जाती है और लंबे समय तक शिवसेना का गढ़ रही है। हालांकि, बीते वर्षों में पार्टी टूट, सत्ता परिवर्तन और गठबंधनों के उतार-चढ़ाव ने राजनीतिक समीकरणों को जटिल बना दिया है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ठाकरे भाइयों की नजदीकी मराठी मतदाताओं के बिखराव को रोकने में अहम भूमिका निभा सकती है। खासकर मुंबई और आसपास के शहरी इलाकों में इसका सीधा असर देखने को मिल सकता है। समर्थक इसे मराठी अस्मिता की राजनीति को नई धार देने की कोशिश बता रहे हैं, जबकि आलोचकों का कहना है कि पुराने मतभेद और वैचारिक अंतर इस एकता की सबसे बड़ी परीक्षा होंगे।
एसआईआर रहा सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा
साल 2025 में भारत निर्वाचन आयोग द्वारा शुरू किया गया विशेष गहन पुनरीक्षण (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन–SIR) कार्यक्रम देश की राजनीति में बड़े विवाद का कारण बन गया। मतदाता सूचियों के सत्यापन और संशोधन से जुड़े इस अभियान को लेकर विपक्षी दलों ने गंभीर आपत्तियां दर्ज कराईं और इसे मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश बताया।
एसआईआर के खिलाफ कई राज्यों में विरोध प्रदर्शन हुए, वहीं यह मुद्दा भारतीय संसद में भी गूंजता रहा। विपक्ष का आरोप था कि इस प्रक्रिया के तहत बड़ी संख्या में योग्य मतदाताओं के नाम हटाए जा सकते हैं, जिससे चुनाव की निष्पक्षता पर असर पड़ेगा।
वहीं, निर्वाचन आयोग ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि यह प्रक्रिया पूरी तरह संवैधानिक और पारदर्शी है तथा इसका उद्देश्य केवल मतदाता सूची को सटीक बनाना है। इसके बावजूद, 2025 में चुनावी विमर्श पर एसआईआर का असर साफ तौर पर दिखाई दिया और यह साल के सबसे बड़े राजनीतिक टकरावों में शामिल रहा।
वोटर चोरी के आरोप
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कई राज्यों में कथित वोटर चोरी के मामलों को लेकर गंभीर आरोप लगाए हैं। राहुल गांधी का दावा है कि चुनावी सूचियों में गड़बड़ी कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश की गई। उन्होंने आरोप लगाया कि बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम हटाए गए या स्थानांतरित किए गए, जिससे निष्पक्ष चुनाव पर सवाल खड़े होते हैं।
इन आरोपों के बाद निर्वाचन आयोग और भारतीय जनता पार्टी की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया सामने आई। आयोग ने आरोपों को निराधार बताते हुए कहा कि चुनावी प्रक्रिया पूरी तरह नियमों और पारदर्शिता के साथ संचालित की जाती है। वहीं भाजपा ने इसे चुनावी हार की आशंका से उपजा बयान करार दिया। इस मुद्दे ने संसद और राजनीतिक गलियारों में तीखी बहस को जन्म दे दिया है।
कर्नाटक में सत्ता खींचतान की चर्चा
कर्नाटक की राजनीति में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के बीच कथित सत्ता खींचतान की अटकलें लगातार चर्चा में बनी हुई हैं। राजनीतिक हलकों में यह दावा किया जा रहा है कि कांग्रेस के भीतर एक कथित सत्ता-साझेदारी समझौता हुआ था, जिसके तहत सिद्धारमैया ढाई साल मुख्यमंत्री रहने के बाद पद शिवकुमार को सौंपेंगे।
हालांकि, इस तरह के किसी भी औपचारिक समझौते की दोनों नेताओं ने सार्वजनिक रूप से पुष्टि नहीं की है। पार्टी नेतृत्व भी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है। इन अटकलों के बीच कर्नाटक में सरकार की स्थिरता और भविष्य की राजनीति को लेकर चर्चाएं तेज हो गई हैं। जानकारों का मानना है कि यह विवाद कांग्रेस के लिए आंतरिक संतुलन की बड़ी परीक्षा साबित हो सकता है।
जब राजनीतिक भीड़ हुई हादसे का शिकार
27 सितंबर को विजय की टीवीके की रैली के दौरान करूर में मची भगदड़ ने राजनीति और जन-सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए। इस दर्दनाक घटना में 41 लोगों की मौत हो गई, जबकि 60 से अधिक लोग घायल हुए। अत्यधिक भीड़, अव्यवस्थित प्रवेश-निकास और सुरक्षा इंतजामों की कमी हादसे की बड़ी वजह बनी।
मामले की गंभीरता को देखते हुए जांच फिलहाल सीबीआई के पास है। इस घटना ने ये तो बता दिया कि याद दिलाती है कि राजनीतिक आयोजनों में भीड़ प्रबंधन और सुरक्षा मानकों की अनदेखी जानलेवा साबित हो सकती है।
मायावती का शक्ति प्रदर्शन और रणनीतिक चूक
कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर लखनऊ में आयोजित बहुजन समाज पार्टी की महारैली 2025 की सबसे बड़ी राजनीतिक सभाओं में गिनी गई। भारी भीड़, हजारों वाहन और राज्य-देश के अलग-अलग हिस्सों से पहुंचे लोगों ने इसे बसपा का बड़ा शक्ति प्रदर्शन बना दिया। करीब दो लाख लोगों की मौजूदगी का अनुमान लगाया गया, जबकि पार्टी ने इससे कहीं अधिक संख्या का दावा किया।
लगभग चार साल बाद मायावती का सार्वजनिक मंच पर आना अपने आप में अहम रहा। रैली की पहली बड़ी चर्चा मायावती के भाषण को लेकर रही। समाजवादी पार्टी पर हमला करते-करते उन्होंने शुरुआत में ही योगी सरकार की तारीफ कर दी, जिसे बाद में की गई आलोचनाएं भी संतुलित नहीं कर सकीं। यही बात विपक्ष को यह कहने का मौका दे गई कि बसपा का रुख अस्पष्ट है।
दूसरी अहम बात रही आकाश आनंद की प्रभावी राजनीतिक लॉन्चिंग। मायावती ने खुले तौर पर उन्हें अपना उत्तराधिकारी संकेतित किया और मंच पर उन्हें विशेष स्थान दिया। इससे बसपा के भीतर चल रही खींचतान पर विराम लगता दिखा। साथ ही सतीश चंद्र मिश्र और अन्य नेताओं की मौजूदगी से जातीय संतुलन साधने की कोशिश भी साफ नजर आई।
तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण पहलू बसपा का संगठनात्मक संदेश था। मायावती ने अकेले चुनाव लड़ने और सत्ता में वापसी का दावा दोहराया। उनका मुख्य हमला सपा-कांग्रेस के पीडीए फार्मूले पर रहा, जिसे वे अपने परंपरागत वोटबैंक में सेंध मानती हैं। हालांकि, योगी सरकार की तारीफ ने मुस्लिम और अल्पसंख्यक मतदाताओं के बीच नकारात्मक संदेश भी दिया।
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