"श्रीकान्त जी अपने कमरे में बंद हो गए और अंदर से सिटकनी लगा ली"

यह वाक़या रवीन्द्र कालिया की किताब ‘ग़ालिब छुटी शराब’ से है जिसमें वह लिखते हैं कि

उन दिनों श्रीकान्त वर्मा 'दिनमान' के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध थे और मैं भी उसी प्रतिष्ठान से लौटा था। एक गोष्ठी में श्रीकान्तजी ने बग़ावती क़िस्म का वक्तव्य दिया। उन्होंने धर्मवीर भारती पर भी कुछ आक्षेप किये। जब तक मैं 'धर्मयुग' में रहा, साहित्य और कला के पृष्ठ मैं ही देखा करता था। रचनाओं के साथ लेखकों के पत्र पढ़ने का अवसर भी अनायास मिल जाता था। श्रीकान्त ने अत्यन्त सधे ढंग से समकालीन परिदृश्य पर अपने विचार रखे थे, मगर मुझे उनके वक्तव्य और उनके भारती के नाम लिखे पत्रों में स्पष्ट विरोधाभास दिखाई दिया।
नशे की झोंक में उनके वक्तव्य के बाद मैंने कह दिया कि श्रीकान्त जी की कथनी और करनी में बड़ा अन्तर है। लेखक से एक विषयगत ईमानदारी की अपेक्षा तो करनी ही चाहिए। श्रीकान्त जी ने गोष्ठी में जो विचार व्यक्त किये हैं, वह उनके उन विचारों से भिन्न हैं जो वह भारती जी को लिखते रहे हैं। गोष्ठी में सन्नाटा खिंच गया। भद्र समाज में जैसे मुझ जैसा कोई मूढ़ और गंवार अनधिकृत रूप से प्रवेश पा गया हो। श्रीकान्त का बहुत दबदबा था।
श्रीकान्त जी ने मेरी बात का कोई उत्तर नहीं दिया, नेमि जी उनके बचाव के लिए सामने आये और उन्होंने मेरी स्थापना पर गम्भीर असहमति दर्ज कराते हए इसे अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण कहा। श्रीकान्त ऐसे श्रीहीन हो गये जैसे किसी ने छुई-मुई का पौधा छू दिया हो। अचानक वह उठे और बहिर्गमन कर गये, उससे अभिजात वर्ग के लेखकों के बीच मेरी स्थिति और भी दयनीय हो गयी।
श्रीकान्त जी अपने कमरे में बन्द हो गये और अन्दर से सिटकनी भी लगा ली। कमरे की बत्ती भी बुझा दी। मुझे नेमिजी का हस्तक्षेप नागवार गुज़रा। बाद में इलाहाबाद लौटकर मैंने पत्र में अशोक से अपनी असहमति और नाराज़गी भी व्यक्त की। अशोक ने लिखा था कि मेरी शिकायत उन्होंने नेमिजी तक पहुंचा दी है।
कमलेश और श्रीकान्त वर्मा एक ही कमरे में ठहरे थे । कमलेश भी श्रीकान्त जी से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा न कर रहे थे। मेरी तरह वह भी हतप्रभ थे। मुझे बहुत ग्लानि हुआ कि मैंने बेवजह माहौल बेमज़ा कर दिया। श्रीकान्त जी से मेरा पुराना रिश्ता था। कई बार मैं उनके यहां नॉर्थ एवेन्यू में भी गया था। ये स्वयं बहुत तीखी टिप्पणियां करते थे। एक बार मैंने डॉ. मदान के हवाले से कहीं लिख दिया था कि श्रीकान्त बहुत अच्छे रचनाकार हैं, मगर बालों में इतना तेल क्यों चुपड़ लेते हैं! तब उन्होंने बुरा नहीं माना था। उनसे हल्की-हल्की छूट न मिली होती तो मैं अनौपचारिक रूप से कुछ भी कहने में संकोच करता।
श्रीकान्त जी के कमरे की बगल में ही हमारा कमरा था। कमलेश हमारे यहां बैठे रहे। उन दिनों कमलेश को पीने में संकोच नहीं था, बाद में तो सुना अत्यन्त शुचितावादी हो गये थे, खाना तक ख़ुद बनाने लगे थे। पहली ही मुलाक़ात में हमारी दोस्ती हो गयी थी। जब खाने की मेज़ पर भी श्रीकान्त न आये तो मुझे बहुत अपराधबोध हुआ। मैंने कमलेश से अनुरोध किया कि श्रीकान्त जी को खाने पर ले आयें, मगर उन्होंने कहा कि वह जोख़िम नहीं उठा सकते।
हाथ में गिलास थामे मैं अपने को काफ़ी अटपटी स्थिति में पा रहा था, श्रीकान्त जी ठीक बच्चों की तरह रूठ गये थे। रूठे हुए बीवी-बच्चों को मनाना मुझे आज तक नहीं आया। आख़िर मैंने तय किया कि स्वयं जाकर उनसे भोजन करने का अनुरोध करूंगा। मैंने गिलास से ही उनका दरवाज़ा खटखटाया। भीतर कोई हलचल न हुई।
मैंने दुबारा दरवाज़ा खटखटाया। इस बार अन्दर की बत्ती जली। कुछ देर बाद श्रीकान्त जी ने दरवाज़ा खोला। वह शायद मुंह धोकर आये थे और तौलिये से पोंछ रहे थे। बिस्तर के पास ही उनका गिलास पड़ा था, जस का तस। मैं बिस्तर के पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया।
"मुझे अफ़सोस है कि मेरी बात से आपको तक़लीफ़ हुई।" मैंने कहा।
श्रीकान्त जी ने अपनी उनींदी आंखों से मेरी ओर देखा। मैंने गिलास उठाते हुए उन्हें चियर अप किया-'चियर्स।' उन्होंने बेमन से गिलास उठाया और दो-एक घूंट लेकर रख दिया।
"चलिए बाहर सब लोग भोजन पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।" मैंने कहा।
"चलिए।" श्रीकान्त जी ने कहा और हम लोग खाने के कमरे में पहुंचे। तमाम लोग हम दोनों को सामान्य और साथ-साथ देखकर हैरान रह गये। मैंने श्रीकान्त जी को उनके मित्रों के हवाले किया और खुद अपनी थाली लेकर वहां से हट गया।