सिरमौर: गिरिपार क्षेत्र में पारंपरिक व्यंजनों की महक, नाटियों से शुरू हुआ बूढ़ी दिवाली पर्व, जानें रोचक इतिहास
सिरमौर की करीब पौने तीन लाख आबादी वाले गिरिपार हाटी क्षेत्र में बूढ़ी दियाली (दिवाली) पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा है।
विस्तार
हिमाचल प्रदेश के सिरमौर की करीब पौने तीन लाख आबादी वाले गिरिपार हाटी क्षेत्र में बूढ़ी दियाली (दिवाली) पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा है। मशालों (बीट) हाथों में लिए, बड़यातू की हुड़कों की थाप के साथ प्राचीन पर्व की धूम शुरू हो गई है। गिरिपार में बूढ़ी दियाली पर्व तीन, पांच व कहीं-कहीं पर सात दिनों तक मनाया जाता है। इस दौरान घर पहुंचने वाले मेहमानों व लोगों को मुड़ा-शाकुली और बेडोली-असकली समेत पहाड़ी व्यंजन परोसे जाते हैं। कई दिनों तक चलने वाले इस पर्व को लेकर गांव-गांव में सामूहिक नृत्यों का आयोजन हो रहा है। घर-घर में पहाड़ी व्यंजनों की खुशबू महक रही है। इस पर्व को लेकर देश के कोने-कोने से लोग अपने घर वापस पहुंच रहे हैं। इससे बाजार में भी रौनक बढ़ गई है।
कमरऊ में मशाल जुलूस के साथ शौर्य गाथाओं समेत रासा नृत्य
बूढ़ी दिवाली के माैके पर में गिरिपार के कमरऊ में हल्लडात(मशाल जुलूस) की खूब धूम रही। इस पर्व में लोगों को पुरातन संस्कृति की झलक देखने को मिली। तड़के पंचायत के तीन गांव मुनाना, शालना व चौकी के सैकड़ों लोग हाथों में जलती मशाल लेकर एक स्थल पर एकत्रित हुए। हल्लडात के दौरान प्राचीन परंपरा अनुसार शौर्य गाथाओं समेत रासा नृत्य की खूब धूम रही। पारंपरिक वाद्ययंत्रों की थाप पर लोग खूब झूमते रहे। तड़के 4 बजे से सुबह 7 बजे तक जमकर रासी व नाटी लगी। इस पर्व में लोगों को पुरातन संस्कृति की झलक देखने को मिलती है।
क्या बोले पंचायत प्रधान
कमरऊ पंचायत के प्रधान मोहन ठाकुर ने बताया कि हिमाचल के कुल्लू जिले के आनी और निरमंड में अनोखे रूप से यह पर्व मनाया जाता है। ऐसी ही परंपरा हिमाचल के अन्य जिलों सिरमौर, शिमला, जनजातीय जिले लाहाैल-स्पीति व उतराखंड के जोनसार में भी निभाई जाती है। एक मान्यता है कि देवता का गुणगान करते हुए मशाल जुलूस से बुरी आत्माओं को गांव से खदेड़ा जाता है। गांव के बाहर बहुत सी लकड़ियों का बलराज जला कर बुराई को स्वाह किया जाता है। इस दौरान लोग देव वंदनाओं के साथ-साथ जमकर नाच गाना करते हैं।
इंद्रदेव और बृत्रासुर के मध्य संग्राम
प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में प्राचीन बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा आज भी प्रचलित है। मंडी, शिमला और कुल्लू के कई जिलों में मार्गशीष की अमावस्या को पूरी रातभर लोग अग्नि प्रज्वलित कर इसके चारों ओर परिक्रमा कर अग्नि की सुरक्षा करते हैं और जनता इस परंपरा को आज भी एक बहुत बड़े त्योहार के रूप में मनाया जाता है। आनी में धोगी, कुईंर, देउरी, कोट और निरमंड में बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा आज भी प्राचीन है, जिसे लोगों ने धूमधाम के साथ मनाया। ऋग्वेद के अनुसार इंद्रदेव और बृत्रासुर के बीच काफी समय तक युद्ध हुआ था, जिसमें इंद्रदेव ने बृत्रासुर का बध कर विजयी प्राप्त की थी। कहते हैं कि पानी पर बृत्रासुर का आधिपत्य था, जबकि अग्नि पर इंद्रदेव का। पानी का आदिपत्य बृत्रासुर के पास होने पर लोग पानी के लिए त्राहि-त्राहि करने लगे।
तब इंद्रदेव ने देवताओं के सहयोग से बृत्रासुर को युद्ध के लिए ललकारा, जिसके पश्चात इन दोनो के मध्य भयंकर युद्ध हुआ और अंतत: मार्गशीष की अमावस्या को बृत्रासुर का वध कर जल देवता को मुक्त कर लोगों को राहत दी। जिसके बाद इंद्र देवताओं के राजा बने। इस परंपरा को कायम रखने के लिए आज तक इस अमावस्या को दिवाली के रूप में मनाते हैं, जिसकी खुशी में लोग पूरी रात भर अग्नि प्रज्वलित कर अग्नि के चारों ओर प्राचीन लोकगीतों व वाद्ययंत्रों की थाप पर नृत्य करते हैं। परंपरा काफी प्राचीन होने के कारण इसे बूढ़ी दिवाली के नाम से जाना जाता है। वहीं आउटर सिराज में मनाई जाने वाली जिला स्तरीय बूढ़ी दिवाली का आगाज बीती रात हो गया है। अंबिका मंदिर निरमंड के कारदार पुष्पेंद्र शर्मा ने बताया कि निरमंड में प्राचीन रिति-रिवाजों से अमावस्या की रात को पर्व का विधिवत श्रीगणेश किया गया। रविवार की रात को क्षेत्र के 12 गांव के लोग अग्नि को प्रज्ज्वलित कर इस युद्ध स्वरूप के प्रतीक रूप में रस्म अदायगी की गई, जिसमें पूरी रात भर लोगों ने प्राचीन और पारंपरिक गीत गाकर इस उत्सव के साक्षी बने।
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