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अपने हितों के लिए गढ़ी जा रही वामपंथ की परिभाषा
अमर उजाला ब्यूरो, इलाहाबाद
Updated Fri, 11 Mar 2016 01:38 AM IST
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जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, इलाहाबाद
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नए-नए शिगूफों से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर चर्चा के केंद्र में है। तकरीबन हर रोज नए मुद्दे गढ़े जा रहे हैं, जिसे तमाम सियासी पार्टियां राष्ट्रहित को ताक पर रखकर अपने-अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। पहले परिसर में राष्ट्रविरोधी नारों की गूंज रही, फिर कुछ आपत्तियों को लेकर मनुस्मृति की प्रतियां जलाई गईं और बाद में कश्मीर मुद्दे पर सेना के जवानों पर महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे आरोप लगाए गए। तमाम सहमति और असहमति के बीच शिक्षा का गढ़ सियासत का केंद्र बन गया है।
शिक्षाविदें, बुद्धिजीवियों से लेकर आम आदमी तक आंदोलन और आजादी की नई परिभाषा से हतप्रभ है। सवाल उठने लगा है कि जेएनयू कैंपस की घटनाओं को किस सीमा तक वामपंथ से जोड़ा जाए। अगर वामपंथ के गढ़ माने जाने वाले देशों का वामपंथ यहां लागू हो तो फिर उस लोकतंत्र की छतरी कहां मिलेगी जिसके तहत यहां खुलेआम परिसर में ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ जैसे देशविरोधी नारे लगाए गए। ऐसे ही तमाम सवालों पर बुद्धिजीवियों और वामविचारकों से बात की गई तो नया सच सामने आया।
नेहरू ग्रामभारती विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर केबी पांडेय ने सीधे तौर पर कहा, वामपंथ की परिभाषा अपने हितों के लिए गढ़ी जा रही है। जहां तक जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की बात है तो वह ‘मिसगाइड’ हो रहा है। बिना किसी सुबूत सेना के साथ ही वहां की महिलाओं पर लांछन लगाना निंदनीय है। यह बयान देने का हक उसे किसने दे दिया। सीधी सी बात है, मीडिया में तवज्जो के कारण ही वह आपे से बाहर है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। राष्ट्र की रक्षा और अस्मिता के लिए कोई भी समर्पण कम है।
सुपरिचित साहित्यकार यश मालवीय के मुताबिक चाहे राष्ट्रविरोधी नारे लगाने की बात हो या मनुस्मृति की प्रतियां जलाने की, ऐसा करने वालों का अपना कोई चेहरा नहीं है। भारत को समझने के लिए गांधी और विवेकानंद को समझना होगा। दूसरे की पगड़ी उछालना कम्युनिज्म नहीं है। ऐसी स्थितियां वामपंथ का चेहरा बिगाड़ रही हैं, वामपंथ एक उद्दात चिंतन है। प्रचार पाने के लिए बहुत सारे लोग सक्रिय हो गए हैं। हालांकि इसके लिए वामपंथ और दक्षिणपंथ दोनों को नहीं बख्शा जा सकता है। कबीर के शब्दों में कहें तो ‘अरे इन दोऊ राह न पाई।’ दोनों ही खुले तौर पर देश को बांट रहे हैं। देश में संतुलित और सम्यक राजनीति जरूरी है।
वरिष्ठ पत्रकार डॉ.प्रदीप भटनागर कहते हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो जेएनयू कैंपस पढ़ाई के लिए जाना जाता है, वह राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का केंद्र बनता जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि यदि कोई छात्र नहीं असंवैधानिक गतिविधियों में लिप्त है तो कैंपस में पुलिस को क्यों नहीं जाना चाहिए। वामपंथ आज प्रतिक्रियावादी हो गया है। जेएनयू कैंपस में जो कुछ हो रहा है, वह भी प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप है। निष्प्राण वामपंथ को बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं ढोया जा सकता। कन्हैया कुमार को आईकान बनाकर मुद्दों को हवा दी जा रही है और राजनीति दल उसे मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।
वहीं सीपीएम के वरिष्ठ सदस्य और जनवादी लेेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष दूधनाथ सिंह का कहना है कि कन्हैया वामपंथ से जुड़ा है तो आमजन के मुद्दों पर बोल रहा है। वैसे वामपंथ का मतलब न देशविरोधी नारे लगाना है और न ही मनुस्मृति की प्रतियां जलाना। जेएनयू के संघर्ष को वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ के रूप में देखा जाना चाहिए। वहां वामपंथियों के तीनों धड़े अपने-अपने वर्चस्व की लड़ाई में जुटे हैं। इसी क्रम में मनुस्मृति जलाकर आइसा केलोगों ने अपनी पहचान पाने का सनसनीखेज कारनामा किया।
इतिहासकार प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा का मानना है कि सरलीकरण करके चीजों को नही समझा जा सकता है। इससे बात उलझती है। अभिव्यक्तियों को उनके संदर्भों में जोड़कर देखना चाहिए। चाहे देशविरोधी नारे हों या मनुस्मृति जैसे किसी ग्रंथ को जलाने की बात, मैं इसका विरोध करता हूं। देशविरोधी नारे लगाने वालों को सजा देनी चाहिए। यह सीधे तौर पर नासमझी है और ऐसे नारे लगाने वाले कम्युनिज्म के प्रतिनिधि नहीं है। सही कम्युनिस्ट ऐसा काम नहीं करेगा।
शिक्षाविदें, बुद्धिजीवियों से लेकर आम आदमी तक आंदोलन और आजादी की नई परिभाषा से हतप्रभ है। सवाल उठने लगा है कि जेएनयू कैंपस की घटनाओं को किस सीमा तक वामपंथ से जोड़ा जाए। अगर वामपंथ के गढ़ माने जाने वाले देशों का वामपंथ यहां लागू हो तो फिर उस लोकतंत्र की छतरी कहां मिलेगी जिसके तहत यहां खुलेआम परिसर में ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ जैसे देशविरोधी नारे लगाए गए। ऐसे ही तमाम सवालों पर बुद्धिजीवियों और वामविचारकों से बात की गई तो नया सच सामने आया।
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नेहरू ग्रामभारती विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर केबी पांडेय ने सीधे तौर पर कहा, वामपंथ की परिभाषा अपने हितों के लिए गढ़ी जा रही है। जहां तक जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की बात है तो वह ‘मिसगाइड’ हो रहा है। बिना किसी सुबूत सेना के साथ ही वहां की महिलाओं पर लांछन लगाना निंदनीय है। यह बयान देने का हक उसे किसने दे दिया। सीधी सी बात है, मीडिया में तवज्जो के कारण ही वह आपे से बाहर है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। राष्ट्र की रक्षा और अस्मिता के लिए कोई भी समर्पण कम है।
सुपरिचित साहित्यकार यश मालवीय के मुताबिक चाहे राष्ट्रविरोधी नारे लगाने की बात हो या मनुस्मृति की प्रतियां जलाने की, ऐसा करने वालों का अपना कोई चेहरा नहीं है। भारत को समझने के लिए गांधी और विवेकानंद को समझना होगा। दूसरे की पगड़ी उछालना कम्युनिज्म नहीं है। ऐसी स्थितियां वामपंथ का चेहरा बिगाड़ रही हैं, वामपंथ एक उद्दात चिंतन है। प्रचार पाने के लिए बहुत सारे लोग सक्रिय हो गए हैं। हालांकि इसके लिए वामपंथ और दक्षिणपंथ दोनों को नहीं बख्शा जा सकता है। कबीर के शब्दों में कहें तो ‘अरे इन दोऊ राह न पाई।’ दोनों ही खुले तौर पर देश को बांट रहे हैं। देश में संतुलित और सम्यक राजनीति जरूरी है।
वरिष्ठ पत्रकार डॉ.प्रदीप भटनागर कहते हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो जेएनयू कैंपस पढ़ाई के लिए जाना जाता है, वह राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का केंद्र बनता जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि यदि कोई छात्र नहीं असंवैधानिक गतिविधियों में लिप्त है तो कैंपस में पुलिस को क्यों नहीं जाना चाहिए। वामपंथ आज प्रतिक्रियावादी हो गया है। जेएनयू कैंपस में जो कुछ हो रहा है, वह भी प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप है। निष्प्राण वामपंथ को बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं ढोया जा सकता। कन्हैया कुमार को आईकान बनाकर मुद्दों को हवा दी जा रही है और राजनीति दल उसे मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।
वहीं सीपीएम के वरिष्ठ सदस्य और जनवादी लेेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष दूधनाथ सिंह का कहना है कि कन्हैया वामपंथ से जुड़ा है तो आमजन के मुद्दों पर बोल रहा है। वैसे वामपंथ का मतलब न देशविरोधी नारे लगाना है और न ही मनुस्मृति की प्रतियां जलाना। जेएनयू के संघर्ष को वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ के रूप में देखा जाना चाहिए। वहां वामपंथियों के तीनों धड़े अपने-अपने वर्चस्व की लड़ाई में जुटे हैं। इसी क्रम में मनुस्मृति जलाकर आइसा केलोगों ने अपनी पहचान पाने का सनसनीखेज कारनामा किया।
इतिहासकार प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा का मानना है कि सरलीकरण करके चीजों को नही समझा जा सकता है। इससे बात उलझती है। अभिव्यक्तियों को उनके संदर्भों में जोड़कर देखना चाहिए। चाहे देशविरोधी नारे हों या मनुस्मृति जैसे किसी ग्रंथ को जलाने की बात, मैं इसका विरोध करता हूं। देशविरोधी नारे लगाने वालों को सजा देनी चाहिए। यह सीधे तौर पर नासमझी है और ऐसे नारे लगाने वाले कम्युनिज्म के प्रतिनिधि नहीं है। सही कम्युनिस्ट ऐसा काम नहीं करेगा।