वैदिक युग में छिपा गणित का खजाना: प्रो.आरपी पंत की वर्षों के गहन शोध में मिले विश्वसनीय प्रमाण, ये किया दावा
लंबे समय से इतिहासकारों और गणितज्ञों के बीच यह सवाल उठता रहा है कि क्या भारत के वैदिक ऋषियों को पाइथागोरस प्रमेय और त्रिभुजों की गुत्थियों का ज्ञान था? अब ताजा शोध ने इस रहस्य से पर्दा उठा दिया है।

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लंबे समय से इतिहासकारों और गणितज्ञों के बीच यह सवाल उठता रहा है कि क्या भारत के वैदिक ऋषियों को पाइथागोरस प्रमेय और त्रिभुजों की गुत्थियों का ज्ञान था? अब ताजा शोध ने इस रहस्य से पर्दा उठा दिया है। गणित और वेदों के विद्वान प्रो. आरपी पंत ने वर्षों के गहन अध्ययन, शोध और विश्लेषण के आधार पर यह साबित कर दिया है कि शुक्ल यजुर्वेद के अठारहवें अध्याय के सूक्त 24 और 25 में ऐसे संख्यात्मक सूत्र दिए गए हैं जिनसे न केवल सभी पाइथागोरस त्रिक बनते हैं बल्कि द्विघात डायोफैंटाइन समीकरणों के पूर्णांक हल और फिबोनाची जैसी संख्यात्मक श्रेणियों का भी आधार मिलता है। इस महत्वपूर्ण शोध पर आधारित उनका शोधपत्र हिम्स इन यजुर्वेद : अलजेबरा एंड जोमेट्री ऑफ पाइथगोरन ट्रिपल्स प्रतिष्ठित जर्नल इनोवेशन साइंसेस एंड सस्टेनेबल टेक्नोलॉजीज के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है।

93 साल पुराना रहस्य सुलझा
1920 के दशक में महान गणितज्ञ विभूति भूषण दत्त ने अनुमान जताया था कि प्राचीन भारतीय ऋषियों के पास रेशनल ट्राएंगल्स यानी युक्तिसंगत त्रिभुज खोजने का सामान्य सूत्र रहा होगा। कुमाऊं विश्वविद्यालय के गणित विभाग के सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष प्रो. पंत ने गहन शोध से प्रमाण सहित इस अनुमान की पुष्टि कर दी है। उनका दावा है कि वैदिक ऋषियों ने पाइथागोरस प्रमेय (समकोण त्रिभुज के कर्ण का वर्ग अन्य दो भुजाओं के वर्गों का योग) को न केवल जाना बल्कि उसे व्यवस्थित सूत्रों के रूप में प्रस्तुत किया।
संख्याओं के जोड़े और उनमें छिपा पैटर्न
सूक्त 24 में 1 से 33 तक की विषम संख्याओं के जोड़े दिए गए हैं जबकि सूक्त 25 में 4 से 48 तक चार के गुणकों के जोड़े दर्ज हैं। इन जोड़ों को जोड़ने से ऐसे समीकरण बनते हैं जो हर बार पाइथागोरस त्रिक (जैसे 3-4-5, 5-12-13, 7-24-25 आदि) का निर्माण करते हैं। यह पद्धति इतनी सरल है कि किसी अतिरिक्त गणना या प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ती। शोध बताता है कि यह वैदिक विद्वानों की सोची समझी और गणना पर आधारित गणितीय संरचना थी।
पाइथागोरस से पहले भारत में प्रमेय
यूरोपीय इतिहासकार अब तक गणितज्ञ पाइथागोरस को इस प्रमेय का जनक मानते रहे हैं किंतु शुक्ल यजुर्वेद (1200-900 ईसा पूर्व) में इसका स्पष्ट उल्लेख यह दर्शाता है कि भारतीय परंपरा में यह ज्ञान पाइथागोरस से कई शताब्दियों पहले विद्यमान था। शोध में यह भी सामने आया कि वैदिक युग में दशमलव प्रणाली, गुणनखंड, घातांक और संख्याओं के घात तक की जानकारी व्यवस्थित रूप से प्रयोग में थी।
सिर्फ यज्ञशाला नहीं गणितशाला भी
प्रो. पंत ने निष्कर्ष निकाला कि यजुर्वेद मुख्य रूप से यज्ञ विधानों का ग्रंथ माना जाता है। यज्ञों के लिए जो वेदियां और अग्निकुंड बनाए जाते थे उनमें ज्यामिति और विशेषकर समकोण त्रिभुज की जरूरत पड़ती थी। यही कारण है कि ऋषियों ने सूक्तों में संख्याओं को देवता मानकर प्रस्तुत किया। उनके माध्यम से गणितीय सूत्र गढ़े। यह स्पष्ट करता है कि वैदिक गणना प्रणाली केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं थी बल्कि वैज्ञानिक और गणितीय खोज का हिस्सा भी थी।
फिबोनाची श्रेणियों का भी रहस्योद्घाटन
शोध में यह तथ्य भी सामने आया कि यजुर्वेद के इन सूक्तों से ऐसी संख्यात्मक श्रेणियां निकलती हैं जो बाद में यूरोप में फिबोनाची सीक्वेंस के नाम से जानी गई। इन श्रेणियों से बने अनुपात गोल्डन रेश्यो (सुवर्ण अनुपात) तक का संकेत वैदिक ऋषियों के पास मौजूद था। प्रो.पंत का यह शोध न केवल भारत की प्राचीन गणितीय परंपरा को प्रमाणित करता है बल्कि यह भी दर्शाता है कि विश्व गणित के इतिहास में भारत की भूमिका कहीं अधिक प्राचीन और मौलिक रही है। यजुर्वेद के दो सूक्त आधुनिक गणित के महत्वपूर्ण सूत्रों और श्रेणियों का बीजारोपण करते हैं। इस शोध ने संदेह से परे इस तथ्य को प्रमाणित कर दिया है कि वैदिक ज्ञान केवल आध्यात्मिक ही नहीं बल्कि गहन वैज्ञानिक और गणितीय भी था।