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Bihar News: देशरत्न की जयंती पर सवालों में छपरा का जिला स्कूल, स्वर्णिम विरासत उपेक्षा की मार में
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, छपरा
Published by: शबाहत हुसैन
Updated Wed, 03 Dec 2025 09:16 AM IST
सार
Bihar: डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जयंती पर छपरा का ऐतिहासिक जिला स्कूल अपनी बदहाली और विभागीय अतिक्रमण की वजह से चर्चा में है। कभी जहां शिक्षा का उजाला था, आज जर्जर भवन, संसाधनों की कमी और सरकारी उपेक्षा हावी है।
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जिला स्कूल
- फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति देशरत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद की जयंती के अवसर पर प्रमंडलीय मुख्यालय सारण के छपरा शहर स्थित का यह अतिप्रतिष्ठित जिला स्कूल हमें न केवल इतिहास की याद दिलाता है, बल्कि यह भी बताता है कि यदि आज पहल नहीं हुई तो आने वाली पीढ़ियां उस विरासत को खो देंगी, जिस पर सारण ही नहीं, बल्कि पूरा बिहार और देश गर्व करता है। लेकिन आज जरूरत है कि सिर्फ भाषणबाजी से नहीं बल्कि उन धरोहरों को संवारने की जरूरत है, जिनसे राष्ट्रनिर्माण की प्रेरणा मिलती है। देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जयंती (03 दिसंबर) पर जहां पूरे देश में उन्हें श्रद्धा और सम्मान के साथ याद किया जाता है, वहीं बिहार के छपरा का ऐतिहासिक जिला स्कूल जिसे देश के प्रथम राष्ट्रपति के छात्र जीवन की गौरवशाली धरोहर माना जाता है। आज बदहाली, उपेक्षा और विभागीय अतिक्रमण के कारण अपनी पहचान खोने के कगार पर है। कभी जहां शिक्षा की उत्कृष्टता का उजाला था, वहीं आज टूटी इमारतें, अव्यवस्थित संसाधन और विभागीय कब्जे का अंधियारा हावी है।
ऐतिहासिक विरासत, लेकिन वर्तमान में बदहाली
वर्ष 1893 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इसी जिला स्कूल में आठवीं वर्ग में प्रवेश लिया था। यही से उनकी प्रतिभा ने वह उड़ान भरी थी, जिसने बाद उन्हें पूरे देश का गौरव बना दिया। 1902 में इसी विद्यालय से प्रवेश परीक्षा (इंट्रेंस) देकर उन्होंने तत्कालीन बिहार- उड़ीसा, बंगाल, असम, बर्मा और नेपाल तक में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। अंग्रेज परीक्षक की ऐतिहासिक टिप्पणी “EXAMINE IS BETTER THAN EXAMINER” आज भी इस स्कूल के स्वर्णिम अतीत की धरोहर मानी जाती है। लेकिन विडंबना यह है कि उनकी वही उत्तर पुस्तिका आज तक कोलकाता से बिहार नहीं लाई जा सकी है। लगभग 122 वर्षों में ना जाने कितनी सरकारें आई और चली गई, लेकिन उस अमूल्य दस्तावेज़ को वापस लाने की पहल तक नहीं हुई है।
देशरत्न की जयंती के अवसर पर जब हर वर्ष इस विद्यालय का इतिहास याद किया जाता है, तब विद्यालय की वर्तमान स्थिति स्वयं सवाल खड़े कर देती है। विद्यालय के प्रांगण में कई इमारतें जीर्ण- शीर्ण अवस्था में हैं। कई कमरों की छतें जर्जर हो चुकी हैं। विद्यार्थियों के बैठने, प्रयोगशाला, पुस्तकालय और खेल सुविधाओं का उचित प्रबंधन नहीं है।
हालांकि परिसर में ‘राजेंद्र वाटिका’ और एक पार्क मौजूद है, लेकिन उस स्तर की देखरेख नहीं है, जिसकी अपेक्षा इस ऐतिहासिक धरोहर से की जाती है। जिला स्कूल की बदहाली की सबसे बड़ी वजह खुद शिक्षा विभाग का अतिक्रमण बताई जाती है। विद्यालय के विशाल परिसर के कई कमरे और परिसर को शिक्षा विभाग ने अपने कार्यालयों के लिए कब्जा कर रखा है, जिनमें स्थापना शाखा, सर्व शिक्षा अभियान, मध्याह्न भोजन (MDM) कार्यालय आदि शामिल हैं।
पढ़ें: पिकअप की चपेट में आने से बाइक सवार युवक की मौत, सदर अस्पताल में हंगामा
यहां के शिक्षक बताते है कि जिला स्कूल को मॉडल स्कूल का दर्जा मिला है, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही कहानी बयां करती है। यहां हर कोने में राजेंद्र बाबू की यादें बसती हैं, मगर आज यहां वह वातावरण नहीं है जो इस धरोहर को मिलना चाहिए। विद्यालय में इंटर के समकक्ष कृषि विषय के लिए दो वर्षीय कोर्स संचालित होता है, परंतु शिक्षक पदस्थापना नहीं होने के कारण लैब टेक्नीशियन के सहारे पढ़ाई चल रही है। NCC यूनिट और कंप्यूटर सोसाइटी की स्थापना से थोड़ी आधुनिकता आई है, लेकिन शिक्षकों की कमी और संसाधनों के अभाव में इन योजनाओं का लाभ सीमित है। हालांकि यह विद्यालय सिर्फ एक स्कूल नहीं बल्कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद की शिक्षा यात्रा का प्रतीक है।
हर वर्ष जयंती पर जब विद्यालय की गौरवगाथा को याद किया जाता है, तो छात्र- छात्राएं प्रेरित होते हैं। लेकिन यह भी देख रहे हैं कि जिस धरोहर पर शहर और पूरा देश गर्व करता है, वही सरकारी उपेक्षा से आंसू बहा रहा है।
सरकार की उदासीनता पर उठते सवाल
यह अत्यंत दुखद है कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे महान व्यक्तित्व के नाम पर वोट तो खूब मांगे जाते हैं, लेकिन उनकी अमूल्य शिक्षीय धरोहर को बचाने और विकसित करने की पहल कोई नहीं करता है। क्योंकि न तो भवन के संरक्षण पर ध्यान दिया गया हैं, और ना ही परिसर को स्मारक के रूप में विकसित करने की योजना बनी है। इतना ही नहीं बल्कि उनकी ऐतिहासिक उत्तरपुस्तिका लाने की दिशा में कोई ठोस प्रयास भी नहीं किया गया है, अगर किया गया रहता तो शायद धरोहर बिहार में रहता। क्या यह राष्ट्रनिर्माता की विरासत के प्रति उपेक्षा नहीं है तो फिर क्या है। क्या सरकार की नजर में यह विद्यालय सिर्फ एक इमारत है, इतिहास नहीं है।
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ऐतिहासिक विरासत, लेकिन वर्तमान में बदहाली
वर्ष 1893 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इसी जिला स्कूल में आठवीं वर्ग में प्रवेश लिया था। यही से उनकी प्रतिभा ने वह उड़ान भरी थी, जिसने बाद उन्हें पूरे देश का गौरव बना दिया। 1902 में इसी विद्यालय से प्रवेश परीक्षा (इंट्रेंस) देकर उन्होंने तत्कालीन बिहार- उड़ीसा, बंगाल, असम, बर्मा और नेपाल तक में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। अंग्रेज परीक्षक की ऐतिहासिक टिप्पणी “EXAMINE IS BETTER THAN EXAMINER” आज भी इस स्कूल के स्वर्णिम अतीत की धरोहर मानी जाती है। लेकिन विडंबना यह है कि उनकी वही उत्तर पुस्तिका आज तक कोलकाता से बिहार नहीं लाई जा सकी है। लगभग 122 वर्षों में ना जाने कितनी सरकारें आई और चली गई, लेकिन उस अमूल्य दस्तावेज़ को वापस लाने की पहल तक नहीं हुई है।
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देशरत्न की जयंती के अवसर पर जब हर वर्ष इस विद्यालय का इतिहास याद किया जाता है, तब विद्यालय की वर्तमान स्थिति स्वयं सवाल खड़े कर देती है। विद्यालय के प्रांगण में कई इमारतें जीर्ण- शीर्ण अवस्था में हैं। कई कमरों की छतें जर्जर हो चुकी हैं। विद्यार्थियों के बैठने, प्रयोगशाला, पुस्तकालय और खेल सुविधाओं का उचित प्रबंधन नहीं है।
हालांकि परिसर में ‘राजेंद्र वाटिका’ और एक पार्क मौजूद है, लेकिन उस स्तर की देखरेख नहीं है, जिसकी अपेक्षा इस ऐतिहासिक धरोहर से की जाती है। जिला स्कूल की बदहाली की सबसे बड़ी वजह खुद शिक्षा विभाग का अतिक्रमण बताई जाती है। विद्यालय के विशाल परिसर के कई कमरे और परिसर को शिक्षा विभाग ने अपने कार्यालयों के लिए कब्जा कर रखा है, जिनमें स्थापना शाखा, सर्व शिक्षा अभियान, मध्याह्न भोजन (MDM) कार्यालय आदि शामिल हैं।
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यहां के शिक्षक बताते है कि जिला स्कूल को मॉडल स्कूल का दर्जा मिला है, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही कहानी बयां करती है। यहां हर कोने में राजेंद्र बाबू की यादें बसती हैं, मगर आज यहां वह वातावरण नहीं है जो इस धरोहर को मिलना चाहिए। विद्यालय में इंटर के समकक्ष कृषि विषय के लिए दो वर्षीय कोर्स संचालित होता है, परंतु शिक्षक पदस्थापना नहीं होने के कारण लैब टेक्नीशियन के सहारे पढ़ाई चल रही है। NCC यूनिट और कंप्यूटर सोसाइटी की स्थापना से थोड़ी आधुनिकता आई है, लेकिन शिक्षकों की कमी और संसाधनों के अभाव में इन योजनाओं का लाभ सीमित है। हालांकि यह विद्यालय सिर्फ एक स्कूल नहीं बल्कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद की शिक्षा यात्रा का प्रतीक है।
हर वर्ष जयंती पर जब विद्यालय की गौरवगाथा को याद किया जाता है, तो छात्र- छात्राएं प्रेरित होते हैं। लेकिन यह भी देख रहे हैं कि जिस धरोहर पर शहर और पूरा देश गर्व करता है, वही सरकारी उपेक्षा से आंसू बहा रहा है।
सरकार की उदासीनता पर उठते सवाल
यह अत्यंत दुखद है कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे महान व्यक्तित्व के नाम पर वोट तो खूब मांगे जाते हैं, लेकिन उनकी अमूल्य शिक्षीय धरोहर को बचाने और विकसित करने की पहल कोई नहीं करता है। क्योंकि न तो भवन के संरक्षण पर ध्यान दिया गया हैं, और ना ही परिसर को स्मारक के रूप में विकसित करने की योजना बनी है। इतना ही नहीं बल्कि उनकी ऐतिहासिक उत्तरपुस्तिका लाने की दिशा में कोई ठोस प्रयास भी नहीं किया गया है, अगर किया गया रहता तो शायद धरोहर बिहार में रहता। क्या यह राष्ट्रनिर्माता की विरासत के प्रति उपेक्षा नहीं है तो फिर क्या है। क्या सरकार की नजर में यह विद्यालय सिर्फ एक इमारत है, इतिहास नहीं है।
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