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स्मृतियों के बीच अनुपम मिश्र : पानी जिनके लिए विरासत नहीं, जिम्मेदारी था..!

सार

अनुपम मिश्र का जीवन ही सादगी, समर्पण और पर्यावरण के प्रति प्रेम का दर्शन है। 19 दिसंबर 2016 को अनुपम मिश्र 68 साल की उम्र में हमें छोड़ गए, लेकिन उनकी बातें और किताबें आज भी जल संरक्षण की प्रेरणा देती हैं।

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death anniversary of environmentalist and journalist anupam mishra
पानी जिनके लिए विरासत नहीं, जिम्मेदारी था....जानें उन्हीं अनुपम मिश्र की कहानी - फोटो : instagram
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विस्तार
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एक थे अनुपम मिश्र।

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अनुपम मिश्र को गये 9 साल बीत चुके। 19 दिसंबर 2016 को कैंसर से उनका निधन हो गया था।  ऐसे व्यक्ति को कैंसर ने हमसे छीन लिया था, जो शराब और सिगरेट-बीड़ी तो क्या, पान - तंबाकू और गुटके तक से ताज़िन्दगी दूर रहा। अनुपम मिश्र ने पर्यावरण जैसे संजीदा विषय को लेकर तब काम शुरू किया था, जब भारत सरकार में  पर्यावरण मंत्रालय भी नहीं बना था। उन्होंने पर्यावरण के अर्थ को समझाया। पर्यावरण का प्रभाव क्या होता है यह उन्होंने अपने काम और लेखन से साबित किया। उन्होंने पर्यावरण के योद्धाओं के बारे में लिखा। पानी का संरक्षण करने वालों के बारे में लिखा, हिमालय में पेड़ बचाने वालों के बारे में लिखा। वे गांधी पीस फफाउंडेशन  की पत्रिका गांधी मार्ग  के संपादक भी रहे। भारत में पर्यावरण पर लिखी गई पहली किताब हमारा पर्यावरण के लेखक भी वही थे।
 

अनुपम मिश्र कहते थे कि जल संरक्षण को लेकर हमारी पारंपरिक तकनीक के इतनी जबरदस्त हैं कि उनके आगे बड़े-बड़े बांध भी उतने कारगर नहीं है। उन्होंने गांधी पीस फाउंडेशन में पर्यावरण कक्ष की स्थापना की रखी थी। इसमें पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर-- सब कुछ वही थे। वे पर्यावरण के सिपाही, जल संरक्षण के योद्धा, पेड़ों के रक्षक और भी न जाने क्या-क्या थे।

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अनुपम मिश्र गांधीवादी लेखक और पत्रकार थे, पर्यावरणवादी, जल संरक्षणवादी थे और टेड स्पीकर थे। उन्होंने जल संरक्षण, जल प्रबंधन, पारम्परिक वर्षा जल संचयन तकनीकों को बढ़ावा देने का काम किया। वे जाने माने फोटोग्राफर भी थे और उनकी खींची गई तस्वीरें रविवार, धर्मयुग, संडे, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पत्रिकाओं में छपती रहती थी। चिपको आंदोलन पर उनकी दर्जनों रिपोर्ट्स दिनमान में छपी थी।


अनुपम मिश्र ने करीब 20 किताबें लिखी/ संपादित की। 'आज भी खरे हैं तालाब' उनकी  पिछले तीन दशकों में सबसे ज्यादा बिकने वाली किताब हैं। उन्होंने इस किताब को कॉपीराइट फ्री कर दिया था जिस कारण जो चाहे उसे प्रकाशन कर सकता था। इस किताब की एक करोड़ से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी है। अगर यह किताब कॉपीराइट फ्री नहीं होती तो करोड़ों रुपये की रॉयल्टी अनुपम मिश्र को मिलती। उनकी दूसरी बहुचर्चित किताबों में 'बिन पानी सब सून' और 'विचार का कपड़ा' प्रमुख है। 'पर्यावरण का पथ' भी उनकी एक ऐसी किताब है जो बहुत पसंद की गई।
 

एक बार की बात है। दिल्ली की चिलचिलाती गर्मी में मैं उनके घर गया।
"पानी पियोगे?" उन्होंने पूछा।  
मैंने कहा -"हां"।
"कितना?"
मुझे बड़ा अजीब सवाल लगा। 
मैंने कहा - "क्या मतलब?"

मेरे चेहरे को उन्होंने पढ़ लिया और कहा कि अक्सर लोग पानी से  पूरा भरा ग्लास  उठाते हैं और एक दो घूँट पीकर रख देते हैं। बचा हुआ सारा पीने का पानी बेकार चला जाता है। लोग यह बात भूल जाते हैं कि पीने का पानी बहुमूल्य है। उसकी उपलब्धता सीमित है। पृथ्वी का जल आपकी विरासत है, बपौती नहीं!

यह उनके अभियान का ही असर है कि आज देश के कई होटलों और रेस्टोरेंट में ग्राहकों को मुफ्त में दिया जाने वाला पीने का पानी पूरा गिलास भरकर नहीं दिया जाता। जितना चाहिए उतना ही पानी दिया जाता है। ऐसे थे अनुपम मिश्र जी, जिन्हें पानी की एक-एक बूंद की कीमत मालूम थी और वे एक बूंद पानी भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। 

अनुपम मिश्र मूल रूप से पत्रकार थे। उन्होंने कारपोरेट जगत के बड़े-बड़े अखबारों में  काम करने के बजाय गांधी मार्ग जैसी पत्रिका में काम करना ज्यादा उपयोगी समझा। वे जय प्रकाश नारायण की काफी करीब थे।

14 अप्रैल 1972 को चंबल के खूंखार डाकुओं का ऐतिहासिक आत्मसमर्पण लोकनायक जयप्रकाश नारायण (JP) के सामने हुआ था। यह घटना भारतीय इतिहास में 'हृदय परिवर्तन' के एक महान उदाहरण के रूप में जानी जाती है। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले की जौरा तहसील के महात्मा गांधी सेवा आश्रम में डाकुओं ने गांधी जी की तस्वीर के सामने अपने हथियार डाले और जयप्रकाश नारायण  के पैर छूकर आत्मसमर्पण किया। 672 डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया था, जिनमें उस समय के सबसे बड़े इनामी डकैत शामिल थे जिनमें मोहर सिंह, माधो सिंह, पंचम सिंह आदि गिरोह शामिल थे।

अनुपम मिश्र गांधी शांति प्रतिष्ठान के मित्रों के साथ चंबल घाटी गए, जहां डाकुओं से बातचीत कर उनके समर्पण की प्रक्रिया में शामिल हुए। मात्र सात दिनों में उन्होंने और उनके साथियों ने एक किताब लिखी – 'चंबल की बंदूकें गांधी के चरणों में'। इसे 'भारत का सबसे तेज़ जर्नलिज्म' कहा गया। सात दिन में किताब लिखी और छपकर भी आ गई।
 

एक बार एक विदेशी पत्रकार उनसे मिलने गया। नाम और काम सुनकर उसने सोचा कि ऑफिस में लोग दौड़ते होंगे, कंप्यूटर और मोबाइल की घंटियां बज रही होंगी। लेकिन अनुपम मिश्र के कक्ष में सिर्फ पोस्टकार्ड्स, गांधी जी की तस्वीरें और लोगों के हाथ से लिखे पत्र थे। वे बिना मोबाइल या कंप्यूटर के दशकों तक काम करते रहे। मेहमान को जीरा पानी पिलाकर वे मुस्कुराते हुए कहते, "फिर कभी आना, पिकनिक करेंगे।" उनकी यह सादगी और गर्मजोशी हर मिलने वाले को छू जाती थी।


गांधी शांति प्रतिष्ठान में कार्यक्रमों के दौरान अनुपम  हमेशा कोने में हाथ बांधे खड़े रहते। अगर कुर्सी पर बैठे भी हों, तो कोई मेहमान आते ही कुर्सी खाली कर देते।  लंबी बातें भी खड़े-खड़े कर लेते।  उनकी विनम्रता का प्रतीक था – बड़े से बड़े व्यक्ति से निर्भीक होकर बात, छोटे से छोटे से आत्मीयता के साथ।

एक बार मैं दिल्ली में टाइम्स आफ इंडिया की ट्रेनी जर्नलिस्ट स्कीम में परीक्षा देने के लिए गया। दिल्ली पहली बार जा रहा था तो डर लग रहा था। मैं नई दुनिया के संपादक राजेन्द्र माथुर जी के पास गया। उन्होंने मेरी बात ध्यान से सुनी और फिर अनुपम मिश्र के नाम एक चिट्ठी लिख दी। जिसमें लिखा कि 'प्रिय अनुपम, प्रकाश हिन्दुस्तानी इंदौर के एक ऊर्जावान और युवा पत्रकार हैं। पहली बार दिल्ली आ रहे हैं। उनकी यथोचित मदद कीजिए।'

मैं चिट्ठी लेकर  राजघाट के सामने गांधी स्मारक निधि के कैंपस में पहुंचा। इस कैंपस के एक क्वार्टर में अनुपम मिश्र अपने पिता, कवि भवानी प्रसाद मिश्र के साथ रहते थे। मैं सुबह-सुबह उनके निवास पर पहुंच गया था। अनुपम मिश्र ने गांधी स्मारक निधि की डॉरमेट्री में मेरे रुकने की व्यवस्था की और कहा कि तुम सोने के लिए भले ही वहां चले जाना, लेकिन सुबह-शाम का खाना हमारे साथ घर पर ही खाना।

अनुपम गांधी शांति प्रतिष्ठान में कई भूमिकाएं निभाते – संपादक, पर्यावरण कक्ष संचालक, लेखक – लेकिन वेतन सिर्फ एक ही लेते। दोस्त कहते थे कि अनुपम जैसे सच्चे गांधीवादी स्वतंत्रता के बाद शायद ही कोई हुआ। वे हमेशा शांत, सौम्य और हंसमुख रहते, काम का बोझ कभी नहीं दिखाते।

राजस्थान की रजत बूंदों का जादू!

राजस्थान के रेगिस्तान में जल संरक्षण की पारंपरिक विधियों पर घूमते हुए एक बार उन्होंने देखा कि सालाना सिर्फ 3 इंच बारिश में भी गेहूं उगाया जाता है – सामूहिक खेती और जोहड़ों की बदौलत। अपनी किताब 'राजस्थान की रजत बूंदें' की रिलीज के लिए वे खुद बस से गांव-गांव गए, किताब भेंट की और लोगों को आमंत्रित किया। वे कहते थे कि पानी की हर बूंद को संजोने की परंपरा रेगिस्तान को भी हरा-भरा बना सकती है। उनकी किताबें कॉपीराइट-फ्री रखीं, ताकि ज्ञान सब तक पहुंचे।

अनुपम मिश्र का जीवन ही सादगी, समर्पण और पर्यावरण के प्रति प्रेम का दर्शन है। 19 दिसंबर 2016 को 68 साल की उम्र में हमें छोड़ गए, लेकिन उनकी बातें और किताबें आज भी जल संरक्षण की प्रेरणा देती हैं।


डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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