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Uttarakhand Wildlife: वन्यजीवों के आतंक के साए में उत्तराखंड
यूटिलिटी डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: जयसिंह रावत
Updated Fri, 19 Dec 2025 05:30 PM IST
सार
गढ़वाल के संसद अनिल बलूनी और महेंद्र भट्ट ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री से मुलाकात कर बताया कि भालुओं के हमले पहली बार इतनी बड़ी संख्या में सामने आए हैं, जो बेहद चिंताजनक संकेत है।
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जंगल में वन्यजीव।
- फोटो : पीटीआई
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विस्तार
हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड का समृद्ध वन्यजीव संसार लगता है राज्यवासियों के लिए संकट का कारण बनता जा रहा है। उत्तराखंड के पहाड़ अभी मानसून की विनाशकारी आपदाओं की मार से पूरी तरह उबरे भी नहीं थे कि जंगलों से सटे इलाकों में जंगली जानवरों का आतंक नई मुसीबत बनकर सामने आ गया।
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पौड़ी गढ़वाल, रुद्रप्रयाग, टिहरी, पिथौरागढ़ और चमोली जैसे जिलों में गुलदार, भालू और हाथियों के हमले इतने बढ़ गए हैं कि शाम ढलते ही गांवों में अघोषित कर्फ्यू जैसे हालात बन जाते हैं। कई स्कूल बंद कर दिए गए हैं।
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बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, अभिभावक खुद ड्यूटी देते हैं। यहां तक कि शादी-ब्याह जैसे सामाजिक आयोजन भी स्थगित हो रहे हैं। लेकिन खतरा सिर्फ इन बड़े शिकारियों तक सीमित नहीं है। बंदर, लंगूर और जंगली सूअर भी पहाड़ों में खेती को असंभव बना रहे हैं। अब तो बंदर भी हमलावर हो गए हैं। बंदरों द्वारा कई ग्रामीण गंभीर रूप से घायल हो चुके हैं।
अब रही सही खेती छोड़ने की नौबत आ गई है, क्योंकि कई पहाड़ी गावों में दिन में भी खेतों की रखवाली करना अब जान जोखिम में डालने जैसा हो गया है। स्थिति इतनी गंभीर है कि गढ़वाल के संसद अनिल बलूनी और महेंद्र भट्ट ने यह मुद्दा संसद में भी उठाया है ।
गढ़वाल के संसद अनिल बलूनी और महेंद्र भट्ट ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री से मुलाकात कर बताया कि भालुओं के हमले पहली बार इतनी बड़ी संख्या में सामने आए हैं, जो बेहद चिंताजनक संकेत है।
उत्तराखंड वन विभाग के रिकॉर्ड के अनुसार, राज्य के लगभग 490 गांवों को मानव-वन्यजीव संघर्ष की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील घोषित किया गया है।
ये गांव मुख्य रूप से वनों से घिरे पर्वतीय जिलों जैसे पौड़ी गढ़वाल, रुद्रप्रयाग, टिहरी, चमोली और नैनीताल आदि में स्थित हैं, जहां गुलदार, भालू, हाथी तथा बंदर और जंगली सूअर जैसे छोटे जानवरों से भी बार-बार टकराव की घटनाएं होती रहती हैं।
इस बढ़ते संघर्ष का सबसे बड़ा और गहरा कारण जलवायु परिवर्तन माना जा रहा है, जो प्रकृति और मानव दोनों के लिए दोधारी तलवार बन चुका है। जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम का पैटर्न पूरी तरह बदल गया है।
तापमान बढ़ने, बारिश के समय और मात्रा में अनियमितता तथा सूखे और बाढ़ की बढ़ती घटनाओं ने जंगलों में भोजन चक्र को बुरी तरह प्रभावित किया है। जहां पहले कुछ महीनों में विशेष फल-फूल और शिकार उपलब्ध होते थे, अब उनकी कमी या अनुपलब्धता के कारण गुलदार, भालू और हाथी भोजन की तलाश में गांवों की ओर खिंचे चले आ रहे हैं।
प्रजनन काल भी बदल गया है, जिससे ये जानवर पहले की तुलना में अधिक आक्रामक और लंबे समय तक सक्रिय रहते हैं। जलवायु परिवर्तन ने प्रवास के रास्ते और समय को भी अस्त-व्यस्त कर दिया है, जिससे जानवरों को नए क्षेत्रों में भटकना पड़ रहा है और मानव बस्तियां उनके रास्ते में आ रही हैं।
वैज्ञानिक अध्ययन बता रहे हैं कि आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन की वजह से उत्तराखंड में मानव-वन्यजीव संघर्ष और भी भयावह रूप ले सकता है, क्योंकि जंगल सिकुड़ रहे हैं, भोजन कम हो रहा है और जानवरों का व्यवहार तेजी से आक्रामक होता जा रहा है।
इतना ही नहीं, मानव अतिक्रमण, सड़कों का जाल, हेलीकॉप्टरों की लगातार आवाजाही और कचरे के ढेर भी जानवरों को बस्तियों की ओर धकेल रहे हैं। लेकिन इन सबमें जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ा उत्प्रेरक है, जो न सिर्फ आपदाओं की तीव्रता बढ़ा रहा है, बल्कि सीधे तौर पर वन्यजीवों के व्यवहार को बदलकर मानव जीवन को खतरे में डाल रहा है।
पलायन आयोग की रिपोर्टें पहले ही बता चुकी हैं कि पहाड़ों से पलायन के प्रमुख कारणों में वन्यजीवों का डर अब सबसे ऊपर है। जब खेती नहीं हो पा रही, मवेशी सुरक्षित नहीं और शाम को घर से निकलना भी जोखिम बन जाए, तो गांव खाली होना स्वाभाविक है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले 25 वर्षों में मानव वन्यजीव संघर्ष में 1264 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है, 6519 से अधिक घायल हुए हैं और 7079 से ज्यादा हमले दर्ज हुए हैं। अकेले 2025 में ही 64 से अधिक परिवारों के चिराग बुझ चुके हैं।
गुलदार सबसे खतरनाक साबित हो रहा है, जिसने 546 जानें ली हैं। भालू और हाथी भी पीछे नहीं हैं। पौड़ी गढ़वाल में तो स्थिति यह है कि 55 से अधिक स्कूल बंद या समय बदल चुके हैं, और भालू ने इस साल 53 पशुओं को मार डाला या घायल किया है।
इस भयावह स्थिति से निपटने के लिए प्रशासन की क्विक रिएक्शन टीमें हाई अलर्ट पर हैं, ड्रोन से निगरानी हो रही है, रेडियो कॉलरिंग की जा रही है, सौर बाड़ और खाइयां बनाई जा रही हैं, पटाखे और शोर करने वाले उपकरण बांटे जा रहे हैं। हिंसक जानवरों को ट्रैंक्विलाइज कर रेस्क्यू किया जा रहा है। लेकिन ग्रामीणों का कहना साफ है कि ये अस्थायी उपाय हैं।
जब तक जलवायु परिवर्तन के असर को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा, जंगलों को बचाने और पुनर्जनन की बड़ी योजना नहीं बनेगी, और स्थानीय समुदायों को वन्यजीव प्रबंधन में आर्थिक हिस्सेदार नहीं बनाया जाएगा, तब तक यह संघर्ष कम होने वाला नहीं।
नामीबिया जैसे देशों के कम्युनल कंजर्वेंसी मॉडल से सीख लेकर अगर उत्तराखंड भी स्थानीय लोगों को वन्यजीवों से होने वाले लाभ का हिस्सा दे, तो शायद लोग जंगलों और जानवरों के दुश्मन की बजाय रक्षक बनें।
उत्तराखंड जैव विविधता का खजाना है। यहाँ 102 स्तनधारी, 600 पक्षी, 19 उभयचर, 70 सरीसृप और 124 मछलियों की प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से कई वैश्विक स्तर पर संकटग्रस्त हैं-जैसे बाघ, एशियाई हाथी, भूरा भालू, कस्तूरी मृग और हिम तेंदुआ।
इन प्रजातियों का संरक्षण हिमालयी पर्यावरण के भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। किंतु मानव जीवन भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। यदि मानव और वन्यजीवों के बीच संतुलन नहीं साधा गया, तो न तो वन्यजीव सुरक्षित रहेंगे और न ही पहाड़ों का भविष्य।
आज उत्तराखंड एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां एक तरफ जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ा रहा है, तो दूसरी तरफ वही जलवायु परिवर्तन वन्यजीवों को आक्रामक और भटकाव की ओर धकेल रहा है। गुलदार, भालू, हाथी से लेकर बंदर और सूअर तक, सभी अब मानव जीवन के लिए खतरा बनते जा रहे हैं।
अगर अभी भी ठोस, दूरगामी और जलवायु-संवेदी नीति नहीं बनाई गई, तो देवभूमि के गांव वीरान होते देर नहीं लगेगी। यह सिर्फ वन्यजीव संरक्षण या मानव सुरक्षा का सवाल नहीं, बल्कि पूरे हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र और उस पर निर्भर सभ्यता के अस्तित्व का सवाल बन चुका है।
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