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Pollution Crisis in Delhi: वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण बिना आवश्यकता कपड़े खरीदना भी है..!
सार
वैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि वायु प्रदूषण केवल धुंध या दृश्यता की समस्या नहीं है, बल्कि यह एक गंभीर स्वास्थ्य संकट है। सूक्ष्म प्रदूषक कण, विशेष रूप से पीएम 2.5, फेफड़ों, हृदय और मस्तिष्क पर दीर्घकालिक प्रभाव डालते हैं।
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दिल्ली में प्रदूषण।
- फोटो : ANI
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विस्तार
लखनऊ में बुधवार शाम भारत-दक्षिण अफ्रीका के बीच टी-20 मैच धुंध और प्रदूषण के कॉकटेल के कारण रद्द होना केवल एक खेल आयोजन का रुकना नहीं था, बल्कि यह उस गंभीर चेतावनी का संकेत था, जिसे देश लगातार अनदेखा करता रहा है।
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वायु प्रदूषण अब किसी एक शहर या क्षेत्र तक सीमित समस्या नहीं रह गया है। यह एक राष्ट्रीय संकट का रूप ले चुका है, जिसकी जड़ें हमारी उत्पादन और उपभोग की आदतों में गहराई से जुड़ी हुई हैं।
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आज प्रदूषण की चर्चा होते ही ध्यान वाहनों, उद्योगों या पराली जलाने पर चला जाता है, जबकि असल प्रश्न यह है कि इन सबके पीछे ऊर्जा और संसाधनों की बढ़ती मांग क्यों है? यह मांग सीधे तौर पर हमारे उपभोग से पैदा होती है। जितना अधिक उपभोग, उतना अधिक उत्पादन और उतना ही अधिक कार्बन उत्सर्जन।
वैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि वायु प्रदूषण केवल धुंध या दृश्यता की समस्या नहीं है, बल्कि यह एक गंभीर स्वास्थ्य संकट है। सूक्ष्म प्रदूषक कण, विशेष रूप से पीएम 2.5, फेफड़ों, हृदय और मस्तिष्क पर दीर्घकालिक प्रभाव डालते हैं।
भारत में हर वर्ष लाखों समय पूर्व मौतें वायु प्रदूषण से जुड़ी होती हैं। इसका सीधा अर्थ है कि कार्बन आधारित ऊर्जा और संसाधनों पर निर्भर जीवनशैली मानव जीवन की गुणवत्ता और आयु दोनों को प्रभावित कर रही है।
सर्दियों में स्थिति इसलिए और बिगड़ जाती है, क्योंकि तापमान उलटाव के कारण प्रदूषक हवा में ऊपर नहीं उठ पाते, लेकिन यह केवल मौसम की समस्या नहीं है। यदि उत्सर्जन का स्तर कम हो तो मौसम की भूमिका उतनी घातक नहीं बनती। इसलिए मूल समाधान उत्सर्जन घटाने में ही निहित है।
सरकार द्वारा उठाए गए आपात कदम, जैसे ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान, वाहनों पर प्रतिबंध, निर्माण कार्य रोकना, तत्काल राहत तो देते हैं, लेकिन वे बीमारी का इलाज नहीं, केवल लक्षणों को नियंत्रित करते हैं।
स्थायी समाधान तभी संभव है, जब कार्बन उत्सर्जन के स्रोतों पर दीर्घकालिक नियंत्रण हो और इसके लिए उपभोग के पैटर्न को बदलना अनिवार्य है। कम उपभोग का अर्थ अभाव नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण उपयोग है। उदाहरण के लिए कपड़ों का अत्यधिक उपयोग, फैशन उद्योग वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का बड़ा हिस्सा है।
एक कपड़े के उत्पादन से लेकर उसके परिवहन तक भारी मात्रा में ऊर्जा, पानी और रसायनों का उपयोग होता है। यदि लोग आवश्यकता अनुसार कपड़े खरीदें, लंबे समय तक उनका उपयोग करें और बार-बार फैशन बदलने की प्रवृत्ति को सीमित करें तो उत्पादन की मांग घटेगी और कार्बन उत्सर्जन में स्वतः कमी आएगी।
बिजली का उपयोग भी कार्बन उत्सर्जन से सीधे जुड़ा है। भारत में अब भी बिजली उत्पादन का बड़ा हिस्सा कोयले पर आधारित है। हर अनावश्यक लाइट, एसी या इलेक्ट्रॉनिक उपकरण अधिक कोयला जलाने की मांग पैदा करता है।
बिजली की बचत केवल आर्थिक निर्णय नहीं, बल्कि पर्यावरणीय जिम्मेदारी है। ऊर्जा दक्ष उपकरणों का उपयोग और संयमित बिजली खपत कार्बन उत्सर्जन को कम करने का सबसे सरल उपाय है। इसी तरह, परिवहन क्षेत्र में कम उपभोग का सिद्धांत अत्यंत प्रभावी है।
निजी वाहनों का अत्यधिक प्रयोग ईंधन की खपत बढ़ाता है और प्रदूषण को कई गुना कर देता है। सार्वजनिक परिवहन, पैदल चलना, साइकिल का उपयोग और कार-पूलिंग न केवल ईंधन बचाते हैं, बल्कि शहरों को रहने योग्य भी बनाते हैं। हर वह यात्रा जो वाहन के बिना संभव है, सीधे कार्बन उत्सर्जन में कमी लाती है।
घरेलू स्तर पर कचरे का प्रबंधन भी उपभोग से जुड़ा विषय है। जितना अधिक उपभोग, उतना अधिक कचरा। कचरा जलाने से निकलने वाला धुआं वायु प्रदूषण को और गंभीर बनाता है। कम खरीद, पुनः उपयोग और पुनर्चक्रण जैसी आदतें प्रदूषण रोकने में निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं।
पानी की बचत भी कार्बन उत्सर्जन से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी है। पानी की आपूर्ति और शुद्धीकरण में भारी मात्रा में ऊर्जा लगती है। कम पानी उपयोग करने का अर्थ है कम ऊर्जा खपत और कम उत्सर्जन।
स्पष्ट है कि वायु प्रदूषण की लड़ाई केवल नीति, कानून या आपात उपायों से नहीं जीती जा सकती। यह जीवनशैली में परिवर्तन की मांग करती है। जब तक समाज यह स्वीकार नहीं करता कि अनियंत्रित उपभोग ही प्रदूषण की जड़ है, तब तक समाधान अधूरा रहेगा।
कम उपभोग का विचार हमें विकास से पीछे नहीं ले जाता, बल्कि टिकाऊ विकास की ओर ले जाता है। यह विचार बताता है कि बेहतर जीवन का अर्थ अधिक वस्तुएं नहीं, बल्कि स्वस्थ पर्यावरण है।
कार्बन उत्सर्जन को घटाने का रास्ता सरकार की योजनाओं से होकर जरूर जाता है, लेकिन उसका अंतिम पड़ाव आम आदमी के दैनिक निर्णयों में ही तय होता है।
स्वच्छ हवा किसी एक शहर की मांग नहीं, पूरे समाज की साझा जिम्मेदारी है। जब कम उपभोग को सामाजिक मूल्य बनाया जाएगा, तभी कार्बन उत्सर्जन घटेगा और प्रदूषण पर वास्तविक नियंत्रण संभव होगा।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।