आपके अंदर सूक्ष्म शक्ति: जीवन के सुख-दुख बाहरी घटनाओं की गूंज मात्र हैं, आंतरिक आवाज सुनने का सूत्र अपनाएं
हर युग में इन्सान ने महसूस किया है कि उसके अंदर ऐसी सूक्ष्म शक्ति है, जो भौतिक सीमाओं को पार कर सकती है। यह शक्ति है अंतःनियंता, जो हमेशा स्वतंत्र और आनंद से भरी हुई है।

विस्तार
हम इन्सान होने के नाते, ज्यादातर परिस्थितियों के गुलाम हैं, और बाहरी दुनिया की संवेदनाओं तक सीमित हैं। हमारी मानसिक गतिविधियां इन बाहरी संवेदनाओं पर निर्भर करती हैं, यहां तक कि हमारी बुद्धि भी भौतिक दुनिया की सीमाओं से आगे नहीं जा पाती। जीवन के सुख-दुख बाहरी घटनाओं की गूंज मात्र हैं। यह गुलामी हमारे शरीर के वर्चस्व के कारण है। उपनिषद में कहा गया है, ‘स्वयंभू ने शरीर के द्वार बाहर की ओर खोल दिए हैं, इसलिए इन्सान की आत्मा बाहर की ओर देखती है, न कि अपने भीतर। कोई-कोई बुद्धिमान व्यक्ति, जो अमरता की इच्छा रखता है, अपनी नजरें भीतर की ओर मोड़ता है और अपने भीतर की आत्मा को देखता है।’ सामान्य रूप से, जिस बाह्य, भौतिक दृष्टि से हम मनुष्य जीवन का अवलोकन करते हैं, उसमें शरीर हमारा मुख्य सहारा है।

हम यूरोपीय लोगों को कितना ही भौतिकवादी कहें, सच तो यह है कि सभी इन्सान भौतिकवादी हैं। शरीर धार्मिक जीवन को पूरा करने का एक साधन है। एक रथ है, जिसे कई घोड़े खींचते हैं, और हम इसी शरीर-रथ पर सवार होकर दुनिया के रास्तों पर चलते हैं। लेकिन शरीर को गलत महत्व देने के कारण हम अपनी शारीरिक बुद्धि को इतना बढ़ावा देते हैं कि पूरी तरह से बाहरी गतिविधियों और सतही चीजों में उलझ जाते हैं। इस अज्ञानता का परिणाम है कि हम जीवन भर गुलामी और अधीनता में रहते हैं। सुख-दुख, अच्छा-बुरा, समृद्धि और खतरा, हमें अपनी मानसिक स्थिति को उनके हिसाब से ढालने के लिए मजबूर करते हैं, और हम अपनी इच्छाओं की लहरों पर बहते रहते हैं। हम आनंद के लालच और दुख से डर के कारण दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं। दूसरों से अपने सुख-दुख लेने के कारण हमें अंतहीन दुख और अपमान सहना पड़ता है।
इन्सान का शरीर और उसकी सीमाएं उसे नियंत्रित करती हैं, जैसे वह जेल में हो। चाहे बाहरी ताकतें, जैसे दुश्मन हों या दोस्तों के बीच रहना हो, शरीर एक जेल की तरह है, और हमारी शरीर-केंद्रित सोच (अज्ञानता) वह दुश्मन है, जो हमें कैद रखता है। यह कारावास की स्थिति मनुष्य की चिरस्थायी है। लेकिन इतिहास और साहित्य में हर जगह इन्सानों की आजादी पाने की तीव्र इच्छा दिखती है। हर युग में इन्सान ने महसूस किया है कि उसके अंदर ऐसी सूक्ष्म शक्ति है, जो भौतिक सीमाओं को पार कर सकती है। यह शक्ति है अंतःनियंता, जो हमेशा स्वतंत्र और आनंद से भरी हुई है। धर्म का उद्देश्य इस स्वतंत्रता और शुद्ध आनंद की स्थिति को प्राप्त करना है। यह वही उद्देश्य है, जिसे विज्ञान ‘विकास’ कहता है।
मनुष्य और पशु के बीच असली अंतर तर्क-शक्ति में नहीं है। पशुओं में भी निर्णय लेने की क्षमता होती है, लेकिन वह विकसित नहीं होती। असली अंतर यह है कि पशु पूरी तरह शरीर के अधीन होता है, जबकि इन्सान शरीर पर विजय पाने और आंतरिक स्वतंत्रता की कोशिश में अपनी मानवता को दर्शाता है। यह स्वतंत्रता ही धर्म का मुख्य लक्ष्य है, जिसे ‘मुक्ति’ कहते हैं।
आंतरिक आवाज सुनें
जीवन में सफलता पाने के लिए निरंतर बाहरी परिस्थितियों से लड़ना होता है। कठिन प्रयास करने के बाद मनचाहा लक्ष्य पा लेना ही सफलता नहीं है। यह कोई अंतिम मंजिल नहीं है। अगर आप सुविधा भोगी हो जाते हैं, तो एक समय बाद अंतहीन दुख आपको घेर सकते हैं। अपनी आंतरिक आवाज सुनें और कर्म करते रहें।