भारत-पाकिस्तान: क्योंकि खून और पसीना एक साथ नहीं बहता...
India vs Pakistan Asia Cup: 14 सितंबर को भारत और पाकिस्तान की टीमें दुबई इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम में एशिया कप 2025 में आमने-सामने होंगी। आतंकवाद के घावों की बड़ी शृंखला हमें यह सवाल पूछने पर मजबूर करती है कि क्या ऐसे मुकाबले क्षणिक मनोरंजन और व्यावसायिक लाभ से आगे कुछ काम आते हैं?

विस्तार
14 सितंबर को भारत और पाकिस्तान की टीमें दुबई इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम में एशिया कप 2025 में आमने-सामने होंगी। आतंकवाद के घावों की बड़ी शृंखला हमें यह सवाल पूछने पर मजबूर करती है कि क्या ऐसे मुकाबले क्षणिक मनोरंजन और व्यावसायिक लाभ से आगे कुछ काम आते हैं? 2025 का पहलगाम हमला, जहां पाकिस्तान-प्रशिक्षित आतंकवादियों ने 26 निर्दोष भारतीयों को मार डाला। क्या यह क्रिकेट मैच पीड़ितों के परिवारों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाएगी? क्या राष्ट्र की गरिमा और नागरिकों की सुरक्षा, मनोरंजन से पहले नहीं आती है? सोशल मीडिया हैश टैग अभियान जैसे "बयकाट एशिया कप" जनता के आक्रोश को प्रतिबिंबित करते हैं।

क्रिकेट को कई बार “पीपुल-टू-पीपुल” कूटनीति बताकर रिश्ते सामान्य करने की कोशिश हुई, परन्तु पाकिस्तान के साथ ‘क्रिकेट कूटनीति’ का परिणाम शून्य या नकारात्मक ही रहा है। 1952 की पहली टेस्ट श्रृंखला से लेकर आईसीसी टूर्नामेंटों में उच्च दांव वाले मुकाबलों तक, ये खेल दोनों राष्ट्रों के बीच अस्थिर संबंधों का प्रतिबिंब ही रहे हैं। 1980 के दशक में क्रिकेट ने संक्षिप्त रूप से "कूटनीति" के रूप में काम किया, जब 1987 विश्व कप जैसी श्रृंखलाएं दोनों राष्ट्रों द्वारा सह-मेजबानी की गईं। फिर भी, ये प्रयास क्षणभंगुर साबित हुए। 1990 के दशक में कश्मीर में बढ़ती उग्रवादिता देखी गई, जो पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) द्वारा प्रायोजित थी, जिसने लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) जैसे समूहों को हमेशा समर्थन दिया। 1999 के कारगिल युद्ध ने जहां पाकिस्तानी घुसपैठियों ने भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया इस "क्रिकेट कूटनीति" और सॉफ्ट पॉवर को तार तार किया।
मुंबई 2008 के हमलों ने न केवल द्विपक्षीय क्रिकेट को रोका बल्कि यह उजागर किया कि लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकवादी समूह पाकिस्तानी संरक्षण के तहत ही काम करते हैं। 2019 के पुलवामा के बाद तो बीसीसीआई ने आईसीसी समुदाय से सार्वजनिक रूप से अपील की थी कि आतंकवाद को समर्थन देने वाले देशों से खेल सम्बन्ध तोड़े जाएं। 2006 में भारत की पाकिस्तान यात्रा या 2012-13 में पाकिस्तान की भारत यात्रा के बाद इन दोनों देशों का कोई पूर्ण द्विपक्षीय दौरा नहीं हुआ है। हाल ही में अप्रैल 2025 का कश्मीर पर्यटक हमला और मई 2025 के हमले ने तनाव बढ़ाया है, जिसमें भारत ने सिंधु जल संधि के तहत जल-साझाकरण निलंबित कर दिया और राजनयिक संबंधों को डाउनग्रेड किया है।

दुनिया भर में खेल-बहिष्कार की वैधता का लंबा इतिहास रहा है। अपारथाइड-युग के दौरान, दक्षिण अफ्रीका पर एक व्यापक खेल बहिष्कार लागू किया गया था, ऐसे ही फरवरी 2022 में रूस के यूक्रेन पर आक्रमण के बाद, अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) ने रूस और बेलारूस पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिसके कारण वे अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजनों में अपनी राष्ट्रीय पहचान के साथ भाग नहीं ले सकते थे।
इन मिसालों का सार यही है कि मानवाधिकार/अंतरराष्ट्रीय कानून/आतंकवाद से जुड़ी गम्भीर स्थितियों में खेल-बहिष्कार नैतिक रूप से वैध और रणनीतिक रूप से कारगर उपकरण होता है। अंतरराष्ट्रीय खेल शासन की यह स्वम् स्वीकारोक्ति है कि जब मूल्यों और सुरक्षा पर आक्रमण हो तो खेल को सामान्य नहीं रखा जा सकता।
क्रिकेट बड़ा व्यवसाय है, इसके मीडिया-राइट्स/ब्रॉडकास्ट वैल्यू अरबों डॉलर का इकोसिस्टम है। भारत-पाक मुकाबलों का व्यूअरशिप और विज्ञापन मूल्य बेहद ऊंचा होता है जो भारी दर्शक संख्या और विज्ञापन डॉलर आकर्षित करते हैं, जिसमें भारत बीसीसीआई के प्रसारण सौदों और प्रायोजन से वैश्विक राजस्व का 80-90% उत्पन्न करता है परन्तु यह अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड (पीसीबी) को सब्सिडी और राजस्व भी देता है वास्तव में इस भागीदारी से, भारत अप्रत्यक्ष परन्तु प्रभावी रूप से एक शत्रु को धन देता है। पाकिस्तान की असली कमजोरी उसकी अर्थव्यवस्था है। उसके ऐसे सभी स्रोतों पर भारत को प्रहार करना चाहिए, जहां से उसे तनिक भी विदेशी मुद्रा मिलती है। राष्ट्रहित का अर्थशास्त्र यही बताता है कि यदि किसी आर्थिक गतिविधि की कमाई यदि आपकी सुरक्षा/कूटनीतिक स्थिति को कमजोर बनाये तो वह गतिविधि नेट-लॉस होती है। भारत-पाक क्रिकेट इस कसौटी पर सटीक बैठता है।

आतंक को रियायत के साथ क्रिकेट वास्तव में एक खेल नहीं बन सकता है। नैतिक रूप से, ऐसा बहिष्कार गरिमा बनाए रखता है, संदेश देता है कि ‘मानवीय जीवन’ मनोरंजन से ऊपर है। जब कोई देश संगठित हिंसा/आतंक नेटवर्क को खत्म करने के बजाय दोहरे-मानदंड दिखाए, तब उसके साथ खेल का सामान्यीकरण उसे वैधता देता है। खेल केवल “मनोरंजन” नहीं; वह नीति-संदेश है, यह बताता है कि कौन किसके साथ खड़ा है। क्रिकेट का बहिष्कार पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय रूप से अलग करने का अहिंसक तरीका है, याद रहे "ऑपरेशन सिंदूर" के समय पाकिस्तानी क्रिकेटरों ने भारतीय अभियानों का जमकर मजाक उड़ाया था, वास्तव में जब तक पाकिस्तान विश्वसनीय रूप से सुधारकर, आतंकवाद-समर्थन से निर्णायक दूरी नहीं बनाता, तब तक भारत का क्रिकेट बहिष्कार केवल विकल्प ही नहीं, कर्तव्य है।
1990 के दशक में कश्मीर में बढ़ती उग्रवादिता, 1999 का कारगिल युद्ध, 2008 के मुंबई हमले, 2019 पुलवामा और 2025 पहलगाम जैसी घटनाओं ने यह भ्रम तोड़ दिया कि “मैदान की दोस्ती” सीमा-पार की हिंसा को पिघला देगी। भारत की सुरक्षा प्राथमिक है, क्रिकेट उसके बाद है। इन मैचों को जारी रखना भारत के राष्ट्रीय हितों को कमजोर करता है और उसके नागरिकों के बलिदानों का अपमान करता है और देश की उस भावना को कमजोर करता है जो हमेशा देश के किसी भी संकट में एक होता है।
प्रधानमंत्री ने कहा था कि सिर्फ सीजफायर हुआ है और "ऑपरेशन सिंदूर" अभी भी जारी है, क्योंकि "खून और पानी साथ नहीं बह सकते" तो क्या अब "ऑपरेशन सिंदूर" ख़त्म कर दिया गया है क्योंकि क्या "खून और पसीना" एक साथ बह सकते हैं? एक नागरिक के रूप में, हमें बीसीसीआई और सरकार से जवाबदेही की मांग तो करनी ही चाहिए।
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