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फिल्म सिटी : एक्शन में थोड़ा इमोशन भी चाहिए

विनोद पुरोहित Published by: विनोद पुरोहित Updated Sun, 27 Sep 2020 05:14 AM IST
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Film City in UP: Action requires a little emotion
रामोजी फिल्म सिटी हैदराबाद - फोटो : अमर उजाला

मौजूदा दौर में कोरोना महामारी से सन्नाटे में आया फिल्म उद्योग सुशांत सिंह राजपूत की मौत के कारणों के कोलाहल से घिरा हुआ है। चैनलिया पड़तालों में छिलके दर छिलके सितारों के नशे के किस्से चरम पर हैं। तेरी-मेरी थालियों में छेदों के आरोप-प्रत्यारोपों और समय-समय पर यूपी-महाराष्ट्र के बीच संघर्ष की ठाकरे की घुड़कियों के परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नोएडा में नई फिल्म सिटी की स्थापना की पेशकश की है।


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उनका यह प्रस्ताव उम्मीदों का एक नया फलक खोलता है। फिल्म सिटी के आकार लेने से हजारों-लाखों लोगों के सपने साकार होंगे। कितने ही लोगों के रोजगार का रास्ता पक्का होगा और यूपी से प्रतिभाओं और कामगारों का पलायन बंद होगा। जिस तत्परता से घोषणा की गई है, उसी तत्परता से काम हुआ और फिल्म सिटी बन पाई, तो 'सरकार आपके द्वार' नारे की तर्ज पर यूपी में रोजगार आपके द्वार साकार हो सकता है।

नई फिल्म सिटी की रूपरेखा जिस सियासी कोख से जन्मी है, वह सशक्त है, इसलिए बेशक यह तेजी से बनकर तैयार भी हो जाएगी। ईंट, सीमेंट, गारा, लोहा जैसी अन्य इंफ्रास्ट्रक्चरल जरूरतें फटाफट जुट जाएंगी और लंबे-चौड़े रकबे में फिल्म सिटी के लिए ढांचा बनकर खड़ा हो जाएगा। हालांकि सब जानते हैं कि मकान बनाना आसान है, लेकिन उसे घर में तब्दील करना कठिन है। राजनीतिक इच्छाशक्ति, धन और संसाधनों से बेशक सिटी तो बन जाएगी, लेकिन फिल्म निर्माण इससे थोड़ा अलग है, यह महज धन और संसाधनों से नहीं बनती, इसके लिए कलात्मक इच्छाशक्ति और कल्पनाशीलता अहम तत्व है। गुरुदत्त और गुलजार यों ही कोई नहीं बनता। समुद्र का किनारा भी कृत्रिम रूप से तैयार किया जा सकता है या गंगा-यमुना के चौड़े पाटों को दिखा देंगे, लेकिन वह तूफानी जज्बा कहां से लाएंगे, जिससे फिल्मों में आत्मा उपजती है। असल चुनौती वह संस्कृति बनाने की है, जो मुंबई के जर्रे-जर्रे में रची-बसी है। यह संस्कृति सिर्फ फिल्म नहीं, हर क्षेत्र के लिए जरूरी है। मेरठ में खेल की संस्कृति बनी, तो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी निकले।

नोएडा को मुंबई बनाना आसमान से तारे तोड़कर लाना भले ही न हो, लेकिन बाएं हाथ के काम जैसा आसान भी नहीं है। मुंबई में ऐसा क्या है? यूपी और देश के अलग-अलग हिस्सों के कितने ही लोग खासकर युवा काम की तलाश में मुंबई जाते हैं। एक लिहाज से पूरा देश वहां समाया हुआ है। बड़ी बात यह है कि सबकी अपनी रवायतें अपने मौलिक रूप में वहां देखी जा सकती हैं।

जाहिर है, फिल्म नीति ज्यादा जरूरी है। दादा साहब फाल्के और उनके साथियों ने यहां-वहां से पैसा जोड़कर फिल्में बनाईं और जुनून की हद तक जुटे रहे। उन्होंने ही पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र हिंदी और मराठी में बनाई। उस दौर के अन्य फिल्मकारों की भी यही कहानी है। स्टार, स्टारडम और कमाई शायद ही उस दौर में किसी का लक्ष्य रहा होगा, वरना सीमित संसाधनों में इतनी लंबी दौड़ संभव ही नहीं थी। तब से अब तक यही जज्बा और लोगों का उसके प्रति जुनून ही फिल्म उद्योग का बड़ा आधार है। नागेश कुकनूर सामान्य कैमरों से कम बजट की हैदराबाद ब्लूज बनाते हैं और लागत से कई गुना कमाई कर लेते हैं। ऐसे कई फिल्मकार रहे हैं, जिन्होंने चमक-दमक से इतर काम किया और कर रहे हैं।

क्षेत्रीयता और अपनी प्रतिभाओं के लिए भाषा के हिसाब से अलग-अलग फिल्म उद्योग बने और विकसित हुए। ये ठीकठाक फल-फूल भी रहे हैं, लेकिन कोई सर्वमान्य बॉलीवुड नहीं बन पाया। मसलन, चेन्नई में तमिल फिल्म उद्योग, मलयालम फिल्म उद्योग, कोलकाता में बांग्ला फिल्म उद्योग, असम में असमी फिल्म उद्योग और भोजपुरी फिल्म उद्योग। अब तो छत्तीसगढ़िया फिल्में भी खासा बाजार बना रही हैं। हैदराबाद में रामोजी राव स्टूडियो भी सर्वसुविधायुक्त है। मुंबई में पंजाब के निर्माता-निर्देशकों की बड़ी लॉबी है। चोपड़ा, जौहर, कपूर आदि का अपना वर्चस्व है। इसके बावजूद पंजाब में बॉलीवुड के समानांतर फिल्म उद्योग नहीं पनप सका।

मुंबई में बढ़ते परिवारवाद और क्षेत्रवाद के संघर्ष के बाद कई बार फिल्म सिटी कहीं बाहर ले जाने की बातें और मांगें उठीं, लेकिन परवान नहीं चढ़ सकीं। यहां तक कि पड़ोस में पुणे में ही फिल्म निर्माण नहीं पनप पाया, जबकि वहां अधिकांश फिल्मवाले रहते हैं। यहां तक कि वहां स्थित प्रसिद्ध फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट भी अब अपनी चमक खोता जा रहा है। राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश तक कई बार इस दिशा में सरकारी स्तर पर प्रयास भी हुए। जयपुर में कई बार इस बारे में बैठकें भी हुई। जयपुर के पास जमीनें देख ली गई, फिर भी फिल्म सिटी का मसला डिब्बे में बंद फिल्म की तरह पड़ा है। जबकि राजश्री प्रोडक्शन के ताराचंद बड़जात्या जैसे फिल्मकार और बड़े फाइनेंसर खुद राजस्थान के रहने वाले हैं। यही हाल मध्य प्रदेश का है। इंदौर के कई फाइनेंसर मुंबई में फिल्मों में पैसा लगाते हैं, इसके बावजूद वर्षों से वहां फिल्म सिटी फाइलों से निकल नहीं पाई है। नोएडा में 20 साल पहले भी फिल्म सिटी बनाने की कोशिशें हुई थी, लेकिन परवान न चढ़ सकी।

योगी जी की ताबड़तोड़ घोषणा से उम्मीद है कि वह फिल्म सिटी बनाने के जरूरी संसाधन जुटाने में मदद तो करेंगे ही, वह माहौल भी बनाने में सहायक होंगे, जो कला-साहित्य के उभरने और स्थापित करने के लिए जरूरी है। बहरहाल, उम्मीद है यह हेराफेरी नहीं, महान लक्ष्य के लिए इंकलाबी पहल साबित होगी।
 

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