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मुद्दा : नेपाली आंदोलन के पीछे कौन, क्या है बांग्लादेशी घटनाक्रम से समानता
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सार
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नेपाल में हिंसक विरोध प्रदर्शन
- फोटो :
पीटीआई
विस्तार
नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली जिस तरह से इस्तीफा देने के बाद नेपाली सेना के हेलिकॉप्टर में बैठकर भागे, उससे हमें पिछले साल पांच अगस्त को सत्ता से बेदखल होने के बाद बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के अपने देश से भागने की याद आ गई। हसीना के मामले में, यह जल्द ही स्पष्ट हो गया था कि वह भारत जा रही हैं। लेकिन ओली को कौन आश्रय देता है, यह जानने के लिए इंतजार करना होगा, लेकिन दोनों घटनाओं के बीच की भयावह समानताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
पिछले साल बांग्लादेश में और अब नेपाल में, हसीना और ओली को सत्ता से हटाने वाले आंदोलन का नेतृत्व ज्ञात राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों द्वारा नहीं किया गया था। बांग्लादेश में बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी ने छात्र आंदोलन को समर्थन दिया था, जो एक बड़े आंदोलन में बदल गया, लेकिन उसका प्रत्यक्ष नेतृत्व ऐसे युवा नेताओं द्वारा किया गया था, जिनका किसी भी राजनीतिक दल से सीधा संबंध नहीं था। नेपाल में सोशल मीडिया प्रतिबंधों के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किसी राजनीतिक दल ने नहीं, बल्कि एक गुमनाम गैर-सरकारी संगठन ‘हामी नेपाल’ ने किया था। पेशेवर इवेंट मैनेजर सुदन गुरुंग द्वारा 2015 में स्थापित, ‘हामी नेपाल’ आपदा राहत पर केंद्रित है। नेपाल के कई लोगों का कहना है कि उनके कार्यक्रमों को पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से दान में अच्छी-खासी धनराशि मिलती थी। जागरूकता शिविरों में उन युवा कार्यकर्ताओं की अच्छी-खासी भीड़ उमड़ी, जो नेपाल की राजनीतिक पार्टियों से निराश थे और सोशल मीडिया को एक माध्यम के रूप में इस्तेमाल करके भ्रष्टाचार से लड़ने की गुरुंग की प्रतिबद्धता में विश्वास रखते थे। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लगाए गए प्रतिबंध के खिलाफ विरोध प्रदर्शन की तैयारी के दौरान, गुरुंग के सहयोगी, बांग्लादेश भेदभाव विरोधी छात्र मंच के 'समन्वयकों' की तरह, बड़ी संख्या में स्कूली छात्रों को जुटाने के लिए संदेश भेज रहे थे, और जोर दे रहे थे कि वे स्कूल बैग के साथ स्कूल यूनिफॉर्म में आएं। संभवतः उनका विचार रहा होगा कि यदि आंदोलन नियंत्रण से बाहर हो जाता है, तो वर्दी में स्कूली बच्चे पुलिस को गोली चलाने जैसी कठोर कार्रवाई करने से रोक सकते हैं, लेकिन यदि पुलिस की गोलीबारी में कुछ स्कूली बच्चे मारे जाते, तो भावनात्मक प्रतिक्रिया आंदोलन को उस बिंदु तक पहुंचा देती, जहां से वापस लौटना असंभव होता।
बांग्लादेश और अब नेपाल, दोनों जगहों पर पुलिस ने शासन को बचाने के लिए सख्ती बरती और बड़ी संख्या में युवाओं की मौत ने आंदोलन को इतना उग्र बना दिया कि कोई रास्ता नहीं बचा। दोनों ही देशों में, आंदोलन और भी उग्र हो गया, जबकि सरकार ने आंदोलनकारियों की मुख्य मांगें मान ली थीं। बांग्लादेश और नेपाल, दोनों में आंदोलन अपेक्षाकृत अज्ञात संगठनों द्वारा चलाए गए, जिनकी गतिविधियां अक्सर खुफिया रडार से दूर रहती हैं। दोनों देशों में, आंदोलनकारियों ने लामबंदी के लिए नई पीढ़ी की तकनीकों का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया। भ्रष्टाचार और दमन के कारण राजनीतिक परिवेश में व्याप्त जनाक्रोश को कम करके नहीं आंका जा सकता और निश्चित रूप से 'हामी नेपाल' या बांग्लादेश छात्र मंच जैसे संगठन इसका लाभ उठा सकते हैं। लेकिन यह उम्मीद करना बहुत ज्यादा होगा कि वे अकेले नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं। यहीं पर सत्ता परिवर्तन में रुचि रखने वाली महत्वपूर्ण शक्तियों के लिए काम करने वाली बाहरी एजेंसियों की भूमिका होती है। बांग्लादेश के सत्ता परिवर्तन में अमेरिका की डीप स्टेट की भूमिका जगजाहिर है। क्या नेपाल में भी कुछ ऐसा ही हुआ, यह जानने के लिए कि थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा। शीतयुद्ध के दौरान, अमेरिका ने नेपाल के मस्तंग क्षेत्र का इस्तेमाल तिब्बती गुरिल्लाओं को चीन से लड़ने के लिए हथियार और प्रशिक्षण देने के लिए किया था। अमेरिकी लेखक जॉन प्रैडोस ने अपनी पुस्तक प्रेसिडेंट्स सीक्रेट आर्मी में इस गुप्त अभियान का विस्तार से वर्णन किया है।
यह तब रुका, जब अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने 1971 में चीन जाकर माओ से दोस्ती की। बाइडन प्रशासन द्वारा तिब्बती स्वतंत्रता की पुरजोर वकालत करते हुए तिब्बत अधिनियम पारित करने के बाद, अमेरिकी एजेंसियां तिब्बत में सशस्त्र छापामार गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए उपयुक्त ठिकानों की तलाश में हैं। चूंकि भारत चीन से अपने संबंधों को सामान्य कर रहा है और ऐसी योजनाओं को मानने को तैयार नहीं है, इसलिए नेपाल में एक पश्चिम-समर्थक सरकार वाशिंगटन के लिए सबसे अच्छा विकल्प हो सकती है।