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लिखते हुए फिर से जी जिंदगी
श्रीराम लागू
Updated Sat, 25 May 2013 08:34 PM IST
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बरसों की इच्छा थी, जो जीया, जो देखा, जो झेला और जो पाया, उसे शब्दों में ढालूं। मैं उसे पूरी तरह से आत्मकथा बनाना नहीं चाहता था, क्योंकि आत्मकथा में किसी भी व्यक्ति के निजी पल बार-बार आते हैं और यह निजता दूसरों से घुलने-मिलने में असुविधा का कारण बनती है।
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अब 'रूपवेध' सबके सामने है। इसके रिलीज होने के मौके पर एक लंबे अरसे के बाद मैं किसी सार्वजनिक सभा में सबके सामने था। अपने प्रशंसकों और करीबियों से मिला तो मन में एक ताजगी का झोंका आया। पुणे को मैं जितना प्यार करता हूं, उससे कहीं ज्यादा पुणे के लोग मुझे चाहते हैं। उस दिन मैं ढेर सारे लोगों से मिला।
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किताब का कुछ हिस्सा मैंने पहले लिखा था। बाद में बहुत कुछ जुड़ता चला गया। इसमें एक अभिनेता के तौर पर मेरा सफर और उसके बीच आने वाले पड़ावों को निबंध, लेख और साक्षात्कारों के जरिये पेश किया गया है। किताब लिखना बड़ी बात नहीं थी, लेकिन लिखते हुए जिन अहसासों से मैं गुजरा, वह काफी बड़ा अनुभव रहा।
बचपन से ही मन में अभिनय के लिए एक अजीब सा आकर्षण था, लेकिन साथ ही दिमाग में एक डर भी था। पुणे के भावे स्कूल में जहां मैं पढ़ता था, वहां ड्रामेटिक्स की पुरानी परंपरा थी। बहुत कम उम्र थी मेरी, जब स्कूल में एक नाटक में अभिनय के लिए मुझसे कहा गया।
मैं बहुत डर गया था और स्टेज पर जाकर सब कुछ गड़बड़ कर दिया। उसके बाद सोच लिया था कि अब कभी स्टेज पर जाने से नहीं डरूंगा। उस वक्त मराठी मंच के कलाकारों नानासाहेब फाटक, केशवराव दाते, मामा पेंडसे और मास्टर दीनानाथ से लेकर हॉलीवुड के पॉल मुनी, स्पेंसर ट्रेसी और लॉरेंस ओलिविअर ने मुझे बहुत प्रभावित किया। स्कूल की पढ़ाई के बाद मैंने मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले लिया। उन पांच सालों में भी कम से कम 15 नाटकों में काम किया। अब अभिनय मेरा पहला प्यार बन चुका था।
ईएनटी में पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद मैंने खुद की मेडिकल प्रैक्टिस शुरू कर दी। वहां का काम भी काफी अच्छा चला। साथ-साथ अभिनय और मंच से भी रिश्ता बना रहे इसके लिए मैंने अपने कुछ लोगों के साथ प्रगतिशील नाट्य कला संगठन बनाया। लेकिन दो नावों में पैर रखकर चलना मुश्किल नहीं नामुमकिन भी होता है। मुझे किसी एक को चुनना था और मैं फैसला नहीं कर पा रहा था।
इसी बीच तीन साल के लिए मुझे अफ्रीका जाना पड़ा। वहां तीन साल तक मेरा नाटक और अभिनय से बिलकुल संपर्क नहीं हो पाया। तभी मुझे मालूम हुआ कि मेरे लिए क्या सही होगा। भारत आने के बाद मैंने मेडिकल करियर को अलविदा कह दिया।
शुरुआत के मेरे आठ नाटक बुरी तरह फ्लॉप हए, लेकिन मेरे काम को सराहा गया। मुझे बस एक अच्छे ब्रेक का इंतजार था, जो नटसम्राट से मिला। फिर नाटकों के साथ-साथ मराठी, हिंदी और अंग्रेजी की फिल्मों में भी काम करने का मौका मिला। काम को प्रशंसा मिली तो डॉक्टरी छोड़ने का कभी अफसोस भी नहीं हुआ।