सब्सक्राइब करें
Hindi News ›   Columns ›   Opinion ›   nectar of freedom n heroes of marginalized: Negligence of large section in midst of long series of sacrifices

स्वतंत्रता का अमृतोत्सव और हाशिये के नायक : बलिदानों की लंबी शृंखला के बीच एक विशाल वर्ग की उपेक्षा के मायने

Shyoraj Singh Bechain श्यौराज सिंह बेचैन
Updated Sun, 09 Oct 2022 07:06 AM IST
सार
भारतीय समाज में हाशिये के नायकों की उपलब्धियां बहुत हैं। लेकिन लंबे समय तक समाज के निचले तबके के इन लोगों की उपलब्धियों पर सुनियोजित खामोशी छाई रही।  
विज्ञापन
loader
nectar of freedom n heroes of marginalized: Negligence of large section in midst of long series of sacrifices
प्रतीकात्मक तस्वीर। - फोटो : अमर उजाला

विस्तार
Follow Us

साहित्य अकादेमी, दिल्ली और गोविंदबल्लभ पंत संस्थान, प्रयाग के संयुक्त तत्वावधान में स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर पिछले दिनों संपन्न हुई एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का एक उपविषय 'हाशिये के नायक' भी था। जिस तरह हाशिये का समाज बहिष्कृत हुआ, उसी तरह हाशिये की संस्कृति भी बहिष्कृत हुई। हाशिये के लोगों के नायक भी हाशिये पर धकेले गए। राजनीति में डॉ. आंबेडकर, बाबू जगजीवन राम और बाद में मा. कांशीराम को भी हाशिये पर धकेल दिया गया।



स्वतंत्रता आंदोलन का राजनीतिक स्वरूप हो या सामाजिक-सांस्कृतिक समानता का प्रश्न, जब हम 'हाशिये के नायक' के बारे में सोचना आरंभ करते हैं, तो सर्वप्रथम नायकों की ऐतिहासिक भूमिकाओं का स्मरण होता है और देश-काल की परिस्थितियां साफ दिखाई देने लगती हैं। हाशिये के नायक यानी जो मुख्यधारा में शामिल नहीं थे। यानी किनारे पर पड़ा एक विशाल 'बहिष्कृत भारत'।


भारत बहु समाजों, बहु समुदायों और विविध संस्कृतियों का देश है। ऐसा बहुत कम हुआ कि एक समुदाय की समस्याएं उनके हित और उनके अधिकारों का महत्व दूसरे समुदाय का नायक समझ पाए। नाव में बैठा हर यात्री न्यूनाधिक तैराकी में दक्ष होता है, परंतु नायक तो एक नाविक ही होता है, जो नाव को मारक लहरों से बचाता है। तूफान के थपेड़ों का अंदाजा लगाना और नाव को किनारे ले जाने का जो कौशल नाविक को प्राप्त होता है, वह अन्य किसी को नहीं होता।

भारतीय स्वतंत्रता का आंदोलन हो, समाज सुधार आंदोलन हो अथवा सांस्कृतिक चेतना का आंदोलन-हर मोर्चे पर हाशिये के नायक अपनी भूमिका अदा करते रहे हैं। बाबा साहब डॉ. आंबेडकर बहुआयामी नायक थे। उन्होंने बौद्धिक प्रबोधन भी किया और सामाजिक संगठन का कार्य भी किया। हाशिये के समाजों में अधिकार चेतना और अधिकार पाने की योग्यता पैदा करने के उद्देश्य से 'शिक्षित बनो' का नारा देकर बौद्धिक सशक्तीकरण का उन्होंने प्रयास किया। 

डॉ. आंबेडकर ने समाज में, साहित्य में, कला और संस्कृति में राष्ट्र के चौथाई भाग की दशा और दिशा देखकर उसे एक नाम दिया 'बहिष्कृत-भारत।' पूना पैक्ट से पहले इस भारत का कुछ भी मुख्यधारा ने साझा नहीं किया था। इसकी कला, संस्कृति, साहित्य-सब कुछ बहिष्कृत और हाशिये पर था। बहिष्कृत बोध की अवधारणा को स्थापित हुए सौ साल हो चुके हैं। इसे मार्च, 1927 में प्रकाशित डॉ. आंबेडकर के अखबार बहिष्कृत भारत ने प्रमाणित किया था।

मुख्यधारा के नायकों, खासकर बालगंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर आदि ने हाशिये को प्रतिनिधित्व देने की दिशा में कदम उठाया। परंतु हाशिये का समाज अपेक्षित रूप से संगठित नहीं हुआ। इस कारण उसकी कला संस्कृति को साझा संस्कृति के रूप में नहीं जोड़ा गया, जिस तरह मुस्लिम, सिख और ईसाइयों की शिक्षा, संस्कृति फली-फूली।

हाशिये के नायक के रूप में जयानंद भारती की खास तौर पर चर्चा की जानी चाहिए। इतिहासकार शेखर पाठक ने जयानंद भारती के बारे में बताया है कि वह जब ब्रिटिश सेना में भर्ती हुए थे, तो उनकी जाति के बारे में कुछ नहीं बताया गया था। सेना नौकरी छोड़कर वह सामाजिक आंदोलन में सक्रिय हो गए थे। वह आर्य समाज से प्रभावित हुए और 'डोला पालकी आंदोलन' के संस्थापक थे।

पर जब ब्रिटिश सरकार में जाति सूचक रेटिमेंट थे, तो फिर हाशिये के इन नायकों की जाति का पता कैसे नहीं चला? हां, ब्रिटिश सेना में महारों और दलितों की भर्ती रोक दी गई थी, क्योंकि मूल विद्रोही अस्पृश्य जातियों के सैनिक थे। मेरठ सेना में जब मंगल पांडे को अछूत मातादीन ने कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी का इस्तेमाल होने की सूचना दी, तो वह भड़क उठे। स्पृश्य जातियों ने दबाव बनाया था कि अछूतों को सेना में भर्ती न किया जाए। परंतु वह समय बाबा साहब डॉ. आंबेडकर से पूर्व का समय था।

इस संदर्भ में गोपाल बुवा बुलंकर ने (मराठी दलितों का पहला पत्रकार) महारों की भर्ती बहाल करने के लिए सरकार को प्रतिवेदन दिया था। उन्होंने अपनी बात विटाल विध्वंसिनी (अस्पृश्यता नाशिनी) कविता में कही थी। अछूतानंद की परंपरा में प्रमुख हिंदी कवि बिहारी लाल 'हरित' ने लिखा, दादा का कर्जा पोते से नहीं उतरने पाया, सवा रुपये में जमींदार के सत्तर साल कमाया।

विगत 75 साल में हाशिये की नायकी किन रूपों, किन क्षेत्रों में परवान चढ़ी? कला, साहित्य संस्कृति में क्या कहीं साझा स्वरूप दिखाई पड़ा? प्रगतिशील धारा ने हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की एक अच्छी राह बनाई। पर दोनों भाइयों ने अपने तीसरे छोटे भाई की न तो साझा संस्कृति की बात की, न साझा साहित्य की। डी.सी. डीनकर ने वर्ष 1985  में लिखी अपनी महत्वपूर्ण किताब स्वतंत्रता आंदोलन में अछूतों का योगदान में यह साबित किया था कि स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अछूतों ने बढ़-चढ़ कर अपनी प्राणाहुति दी। 

उस किताब में लेखक ने शहीद मतादीन और उधम सिंह जैसे तीन सौ से अधिक अस्पृश्य बलिदानियों के नाम दर्ज किए थे। स्वतंत्रता पूर्व के महान कवियों ने जो नायक कथाएं रचीं वे राजाओं की कथाएं थीं। उनमें राजतंत्र की महिमा का बखान था। आम इंसान और लोकतंत्र का गान उन्हें नहीं रुचता था। जबकि हम लोकतंत्र के नायकों के त्याग-बलिदानों को याद करना चाहते हैं। जाहिर है, अस्पृश्य नायकों के बलिदानों की लंबी शृंखला है।

विज्ञापन
विज्ञापन
Trending Videos
विज्ञापन
विज्ञापन

Next Article

Election

Followed