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मुद्दा: वंचितों की सत्ता में भागीदारी अनिवार्य हो, अंतिम व्यक्ति तक लाभ पहुंचाना जरूरी
केसी त्यागी, पूर्व सांसद
Published by: दीपक कुमार शर्मा
Updated Wed, 10 Sep 2025 07:43 AM IST
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सार
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विस्तार
आम चुनाव, 2024 के बाद सामाजिक न्याय का मुद्दा तीव्रता से राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आ गया है। इसका प्रमुख कारण केंद्र सरकार द्वारा जातिगत जनगणना कराने का निर्णय लिया जाना है। कुछ राजनीतिक दल एवं सामाजिक संगठन भी इसकी मांग कर रहे थे। सरकार के निर्णय के बाद, बिहार देश का पहला राज्य है, जहां इस वर्ष विधानसभा चुनाव होना है। उत्तर भारत में विशेषकर बिहार और उत्तर प्रदेश-इन दो राज्यों में जातिगत जनगणना की मांग सर्वाधिक मुखर रही है। सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से ये दोनों राज्य भारतीय लोकतंत्र में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में इन राज्यों में सामाजिक न्याय की बहस ने राजनीतिक आख्यानों को एक नई दिशा दी है। बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारी के साथ ही सामाजिक न्याय की चर्चाएं पुनः केंद्रीय मुद्दा बन गई हैं, लेकिन विपक्ष लगातार सत्ता पक्ष पर सामाजिक न्याय नीतियों के अपर्याप्त क्रियान्वयन को लेकर तीखी आलोचना करता आ रहा है। यद्यपि पिछड़ा वर्ग के नाम पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी हुई है, परंतु इनमें अपेक्षाकृत शिक्षित, समृद्ध और प्रभावशाली जातियों का वर्चस्व बना हुआ है, जबकि अतिपिछड़ी जातियां आज भी हाशिये पर हैं। यह संरचनात्मक बहिष्करण उन्हें नीति निर्माण, संसदीय विमर्श और महत्वपूर्ण विधायी समितियों से भी बाहर रखता है। इस कारण, उनकी विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक जरूरतें और समस्याएं राष्ट्रीय विकास के एजेंडे में उपेक्षित ही रह जाती हैं।
जातिगत वर्गीकरण के उद्देश्य से भारत सरकार ने रोहिणी आयोग का गठन किया था। आयोग की रिपोर्ट राष्ट्रपति को भी सौंप दी गई है, पर सरकार ने अब तक रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत नहीं की है, जिसे सार्वजनिक करने की मांग समय-समय पर उठती रही है। पिछड़ी, विशेषकर अतिपिछड़ी जातियां भारतीय राजनीति में हाशिये पर बनी हुई हैं। इसका एक मुख्य कारण यह है कि इस वर्ग के भीतर बहुलता, विविधता व असमानताएं गहरे स्तर पर हैं। हर जाति की विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक व सांस्कृतिक समस्याएं हैं, जिन पर न तो राष्ट्रीय राजनीति में पर्याप्त विमर्श हुआ है, और न ही इस वर्ग के अपने नेतृत्व ने ठोस वैचारिक पहल की है। वर्तमान में राजनीतिक विमर्श का एक बड़ा हिस्सा इस वर्ग के इर्द-गिर्द अवश्य केंद्रित हो गया है, पर यह विमर्श केवल चुनावी लाभ व संख्यात्मक समीकरणों तक सीमित प्रतीत होता है। परिणामस्वरूप, अपने जीवन में वास्तविक परिवर्तनकारी बदलाव लाने की अपेक्षा रखने वाला यह वर्ग, राज्य व राजनीतिक अभिजात वर्ग की प्रतिबद्धता पर आज गंभीर प्रश्नचिह्न है।
अतिपिछड़े समुदाय संख्या की दृष्टि से भारतीय राजनीति का बड़ा हिस्सा हैं, लेकिन इनके पास आज भी सशक्त सिविल सोसाइटी, व्यापक संगठनात्मक ढांचा या कोई ठोस बौद्धिक थिंक टैंक नहीं है। संसद जैसे सर्वोच्च लोकतांत्रिक मंच पर भी, जहां विभिन्न क्षेत्रों, जातियों और धर्मों से प्रतिनिधि पहुंचते हैं, इनकी आवाज लगभग सुनाई नहीं देती। हालांकि, इस वर्ग के उभरने की संभावनाएं हैं। इस वर्ग की पहली प्राथमिकता आरक्षण या राजनीति नहीं है, बल्कि इनकी समस्याएं बिल्कुल ही बुनियादी और छोटी-छोटी हैं; जैसे-चूंकि ये लोग प्रायः छोटे और खुदरा व्यापार से जुड़े हुए हैं, अतः ये रोजगार के लिए भयमुक्त वातावरण चाहते हैं; बैंक से कम ब्याज पर आर्थिक सहायता चाहते हैं; आवास की सुविधा चाहते हैं; शिक्षा हेतु विशेष सहायता, छात्रवृत्ति और छात्रावास की सुविधाएं चाहते हैं; स्वास्थ्य हेतु बुनियादी सुविधाएं चाहते हैं; राजनीति में मुख्यतः पंचायत स्तर तक प्रतिनिधित्व चाहते हैं; साथ ही राज्य स्तर पर पहचान और आत्म-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं।
इन समूहों के लिए विशेष योजनाएं चलें, इन्हें बाजार में टिके रहने के लिए उचित प्रशिक्षण और कौशल विकास उपलब्ध हो, ताकि हाशिये पर पड़े इन सामाजिक समूहों का निरंतर आर्थिक उत्थान संभव हो सके। इसका उद्देश्य उनकी वर्गीय स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए समग्र आर्थिक विकास कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना है। साथ ही राज्य को इन वर्गों की मानो सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए लोकतांत्रिक संस्थाओं को जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए, ताकि इन वंचित तबकों में भी इन संस्थाओं के प्रति विश्वास उत्पन्न हो सके। राजनीतिक दलों को भी केवल लोकलुभावन बयानबाजी से आगे बढ़कर सामाजिक न्याय को शासन के मुख्य एजेंडे के रूप में प्राथमिकता देनी चाहिए, जिससे समाज के अंतिम व्यक्ति तक लाभ पहुंच सके।
भविष्य में संपूर्ण भारतीय राजनीति पिछड़े और अतिपिछड़े वर्गों पर केंद्रित होने की संभावना प्रबल है, क्योंकि यह समूह भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा मतदाता वर्ग बन चुका है, जो न केवल क्षेत्रीय राजनीति बल्कि राष्ट्रीय राजनीति को भी निर्णायक रूप से प्रभावित करने की स्थिति में आ गया है। अतः राष्ट्रीय राजनीति को अब इन समुदायों के कल्याण, सुरक्षा और विकास के इर्द-गिर्द केंद्रित होना पड़ेगा और सत्ता तथा विशेषाधिकारों में उनकी समान भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। अन्यथा, ये वर्ग किसी भी सरकार की स्थिरता को प्रभावित करने की भूमिका निभा सकते हैं। -साथ में पंकज कुमार