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जानना जरूरी है: संस्कृति के पन्ने बताएंगे ब्रह्माजी ने कैसे की सृष्टि की रचना
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सार
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ब्रह्मा जी ने कैसे की सृष्टि की रचना
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अमर उजाला प्रिंट
विस्तार
एक बार भीष्म ने पुलस्त्य ऋषि से पूछा, ‘भगवन! कृपा करके बताइए कि जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ, तब भगवान ब्रह्मा ने किस स्थान पर रहकर देवताओं व अन्य प्राणियों की रचना की थी?’ भीष्म का प्रश्न सुनकर पुलस्त्य ऋषि मुस्कराए और बोले, ‘भीष्म! भगवान ब्रह्मा कोई साधारण देव नहीं, अपितु स्वयं परमात्मा हैं, जो निराकार, सर्वव्यापक और सृष्टि के आदि कारण भी हैं। यद्यपि उनका कोई रूप या वर्ण नहीं है, फिर भी जब वह सृष्टि की रचना करते हैं, तो उन्हें ‘ब्रह्मा’ कहा जाता है।’पुलस्त्य ऋषि ने आगे कहा कि सृष्टि के आरंभ में, जब ब्रह्मा जी विष्णु जी की नाभि से उत्पन्न हुए कमल से प्रकट हुए, तब उन्होंने सबसे पहले महत्तत्व की रचना की। इसी से तीन प्रकार का अहंकार सात्विक, राजस और तामस उत्पन्न हुआ, जिससे फिर क्रमशः ज्ञानेंद्रियों, कर्मेंद्रियों और पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई।
पांच भूत हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। पहले तामस अहंकार से विकृत होकर शब्द तन्मात्रा उत्पन्न हुई, जिससे आकाश बना। आकाश ने स्पर्श तन्मात्रा को जन्म दिया, जिससे वायु बनी। वायु ने रूप तन्मात्रा को उत्पन्न किया, जिससे तेज (अग्नि) प्रकट हुआ। अग्नि से रस तन्मात्रा बनी, जिससे जल की उत्पत्ति हुई, और जल से गंध तन्मात्रा उत्पन्न होकर पृथ्वी बनी। इस प्रकार आकाश का गुण शब्द, वायु का स्पर्श, अग्नि का रूप, जल का रस व पृथ्वी का गंध है। एक बार भीष्म ने पुलस्त्य ऋषि से पूछा, ‘भगवन! कृपा करके बताइए कि जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ, तब भगवान ब्रह्मा ने किस स्थान पर रहकर देवताओं व अन्य प्राणियों की रचना की थी?’ भीष्म का प्रश्न सुनकर पुलस्त्य ऋषि मुस्कराए और बोले, ‘भीष्म! भगवान ब्रह्मा कोई साधारण देव नहीं, अपितु स्वयं परमात्मा हैं, जो निराकार, सर्वव्यापक और सृष्टि के आदि कारण भी हैं। यद्यपि उनका कोई रूप या वर्ण नहीं है, फिर भी जब वह सृष्टि की रचना करते हैं, तो उन्हें ‘ब्रह्मा’ कहा जाता है।’
पुलस्त्य ऋषि ने आगे कहा कि सृष्टि के आरंभ में, जब ब्रह्मा जी विष्णु जी की नाभि से उत्पन्न हुए कमल से प्रकट हुए, तब उन्होंने सबसे पहले महत्तत्व की रचना की। इसी से तीन प्रकार का अहंकार सात्विक, राजस और तामस उत्पन्न हुआ, जिससे फिर क्रमशः ज्ञानेंद्रियों, कर्मेंद्रियों और पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई।
पांच भूत हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। पहले तामस अहंकार से विकृत होकर शब्द तन्मात्रा उत्पन्न हुई, जिससे आकाश बना। आकाश ने स्पर्श तन्मात्रा को जन्म दिया, जिससे वायु बनी। वायु ने रूप तन्मात्रा को उत्पन्न किया, जिससे तेज (अग्नि) प्रकट हुआ। अग्नि से रस तन्मात्रा बनी, जिससे जल की उत्पत्ति हुई, और जल से गंध तन्मात्रा उत्पन्न होकर पृथ्वी बनी। इस प्रकार आकाश का गुण शब्द, वायु का स्पर्श, अग्नि का रूप, जल का रस व पृथ्वी का गंध है।
- फिर राजस अहंकार से दस इंद्रियां बनीं-पांच ज्ञानेंद्रियां व पांच कर्मेंद्रियां। कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका ज्ञानेंद्रियां कहलाती हैं। ये हमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध का अनुभव कराती हैं।
इनके अधिष्ठाता देवता सात्विक अहंकार से उत्पन्न हुए। इन पंचमहाभूतों में प्रत्येक भूत में पूर्ववर्ती तत्व का गुण विद्यमान रहता है-जैसे वायु में शब्द और स्पर्श, अग्नि में शब्द, स्पर्श व रूप, जल में शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस, एवं पृथ्वी में सबके साथ गंध भी होती है। यही इन पंचमहाभूतों की विशेषता है। शुरुआत में ये सभी भूत अलग-अलग थे और प्रजाओं की उत्पत्ति करने में असमर्थ थे। तब परम पुरुष ने उनमें प्रवेश किया। जैसे दीपक में तेल और बाती एक होकर ज्योति उत्पन्न करते हैं, वैसे ही परमात्मा ने इन तत्वों में एकता स्थापित की। इन तत्वों के संयोग से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई, जो एक विशाल अंड था। यह अंड दस गुने अधिक तामस अहंकार से आवृत्त था। भूतादि महत्तत्व से घिरा था तथा महत्तत्व भी अव्यक्त (प्रधान या मूल प्रकृति) के द्वारा आवृत था। यही संपूर्ण जगत का आधार बनी। फिर उस अंड से ब्रह्मा जी प्रकट हुए, जिन्होंने सृष्टि का कार्य प्रारंभ किया। वही सत्त्वगुण धारण करके विष्णु कहलाते हैं और सृष्टि की रक्षा करते हैं। जब रजोगुण में प्रवृत्त होते हैं, तो ब्रह्मा बनकर सृष्टि की रचना करते हैं। और तमोगुण प्रधान होकर रौद्र रूप धारण करके संहारक शिव कहलाते हैं। कल्प के अंत में जब सभी प्राणियों का विनाश होता है, तब वही विष्णु रौद्र रूप धारण करके ब्रह्मांड को जलमग्न कर देते हैं। फिर शेषनाग की शय्या पर योगनिद्रा में शयन करते हैं। समय आने पर वह पुनः जागते हैं, ब्रह्मा के रूप में कमल से प्रकट होते हैं और नई सृष्टि का आरंभ करते हैं।
इस प्रकार एक ही परमेश्वर तीन रूपों में प्रकट होकर सृष्टि की रचना, उसका पालन और संहार करते हैं। वही पृथ्वी हैं, वही जल, वही अग्नि, वायु और आकाश। वही सब भूतों में, देवताओं में, मनुष्यों में और समस्त प्राणियों में विराजमान हैं। अतः सृष्टि का मूल, पालनकर्ता और उसे समेटने वाला एक ही है, वही विष्णु, वही ब्रह्मा, वही महेश्वर हैं, जो अनादि, अनंत और विश्वरूप हैं।