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डर आजादी का सबसे बड़ा दुश्मन... बदले हुए मीडिया की कहानियां

Palaniappan Chidambram पी. चिदंबरम
Updated Sun, 23 Nov 2025 07:16 AM IST
सार
आजादी की लड़ाई के दौर में देश के प्रमुख अखबार भी संघर्ष में तपे थे। लेकिन अब मीडिया की कहानियां बदल गई हैं।
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In current circumstances media journalism stories now changed in country
journalisht media - फोटो : Adobe Stock

विस्तार
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आज के कॉलम में जिस भाषण का जिक्र है, वह किसी कथावाचक का नहीं है। अगर आप इस भाषण को बाल गंगाधर तिलक, जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण या नेल्सन मंडेला जैसे महान नेता का समझ रहे हैं तो आप गलती कर रहे हैं। यह भाषण दिया है देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने।


रामनाथ गोयनका के छठे व्याख्यान में प्रधानमंत्री के भाषण के शब्द उन पत्रकारों को संगीत की तरह लग रहे होंगे, जो 11 साल से सवाल पूछने के लिए प्रेस कांफ्रेंस के इंतजार में हैं। अब उन्हें उम्मीद जगी होगी कि प्रधानमंत्री पत्रकारों के सवालों का जवाब लाइव न देने का अपना प्रण तोड़ेंगे। यह शब्द संपादकीय पेज के उन लेखकों को भी आश्वस्त करेंगे, जो हर समय सतर्क रहकर लिखते हैं और लेखों में संतुलन साधने के लिए ‘इधर’ और ‘उधर’ की बातों का बखान करते हैं। अब शायद उन्हें ऐसा न करना पड़े! राहत की बात शरारती काटूर्निस्टों के लिए भी है। प्रधानमंत्री के शब्दों से वे प्रेरित होंगे और अपनी पेंसिल निकालकर बेझिझक कार्टून बनाएंगे। उनकी पेंसिल से अब कोई नहीं बचेगा, यहां तक कि प्रधानमंत्री भी नहीं। भाषण उन संपादकों के लिए भी नया हौसला होगा, जिन्होंने बहुत-सी खबरों को दबाया है और प्रार्थना की है- ‘पाठको मुझे माफ करना, मैं जानता हूं कि क्या कर रहा हूं।’


साहस को सलाम
प्रधानमंत्री के शब्द वाकई प्रेरणादायक थे। रामनाथ गोयनका का आदर्श वाक्य था- ‘साहसी पत्रकारिता’। यही अखबार का ध्येय वाक्य भी बना, जिसे उन्होंने स्थापित किया और जो रोजाना समाचार पत्र के मास्टहेड पर गर्व से छपकर आता है। रामनाथ गोयनका की तारीफ करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, “उन्होंने ब्रिटिश सरकार के अत्याचार के खिलाफ दृढ़ रुख अपनाया। अपने एक संपादकीय में उन्होंने लिखा था कि वे ब्रिटिश आदेशों को मानने के बजाय अपना अखबार बंद करना पसंद करेंगे। इसी तरह जब आपातकाल के रूप में देश को फिर से गुलाम बनाने की कोशिश की गई, तब भी रामनाथ गोयनका अपने मूल्यों पर डटे रहे। इस साल इमरजेंसी लगाने के 50 साल पूरे हो रहे हैं।” भाषण में बहुत अच्छी बातें कही गईं, लेकिन आज मीडिया का हाल क्या है?

देश के प्रमुख अखबार आजादी की लड़ाई के संघर्ष में तपे थे। बहुत कम लोगों ने यह सोचा होगा कि आजादी के 78 साल बाद ‘गोदी मीडिया’ जैसा शब्द गढ़ा जाएगा। हजारों की संख्या में पाठक अखबार पढ़ना और दर्शक न्यूज चैनल देखना छोड़ रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने आगे कहा, “इंडियन एक्सप्रेस ने 50 साल पहले दिखाया था कि खाली छोड़ा  गया संपादकीय पेज भी गुलाम बनाने वाली मानसिकता को चुनौती दे सकता है। ये कहानियां बताती हैं कि रामनाथ हमेशा सच के साथ खड़े रहे और उन्होंने कर्तव्य को हर चीज से ऊपर रखा, चाहे उनके खिलाफ कितनी भी शक्तिशाली ताकतें क्यों न खड़ी हों।”

कटु सत्य
चौथे स्तंभ की प्रेरक कहानियों की जगह अब एक अलग तरह की कहानियों ने ले ली है। उदाहरण के लिए, एक संपादक की कहानी है, जिसे एक दिन नौकरी से निकाल दिया गया और शाम को उसे डेस्क खाली करने को कहा गया। बदले में उसे बची नौकरी की अवधि का चेक दिया गया। एक और कहानी प्रसिद्ध टीवी एंकर की है, जिसको टीवी पर सबसे ज्यादा देखा जाता था और ‘मिडनाइट कूप’ कहा जाता था। चैनल का मालिक बदलते ही उसे नौकरी से निकाल दिया गया। पिछले 10 साल में कई बड़े पत्रकारों की नौकरी चली जाने और आज तक दूसरी नौकरी न मिलने की भी कहानियां हैं।

कुछ दिन पहले यशवंत सिन्हा ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की एक घटना सुनाई थी। वह व्याख्यान देने गए थे। भाषण के बाद पत्रकारों से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि वे कभी-कभार की गई उनकी टिप्पणियों को प्रकाशित क्यों नहीं करते? सब चुप थे, लेकिन एक युवा पत्रकार बोला, “सर, मैं आपकी बात लिख दूंगा, लेकिन मेरी नौकरी चली गई तो क्या आप मुझे दूसरी दिलवा देंगे?” उन्हें झटका लगा और उन्होंने उस युवा पत्रकार से कहा, “आप अपनी नौकरी बचाकर रखो।”

मेरे पास एक और कहानी है। सर्दी की एक शाम मैं एक पत्रकार मित्र के साथ एक छोटे से रेस्त्रां में खाना खा रहा था। रात के करीब 10 बजे दफ्तर से उसे फोन आया। उसे फौरन घर लौटने के लिए कहा गया। घर के बाहर एक ओबी वैन उसका इंतजार कर रही थी। उसे पहले से तैयार रिपोर्ट को कैमरे के सामने पढ़ना था। वह उठकर जाने लगा। मैंने पूछा कि वह मना क्यों नहीं करता और अपने बॉस से कह देता कि किसी और रिपोर्टर को भेज दें। उसने गंभीरता से कहा, “मेरे माता-पिता दोनों बुजुर्ग हैं और मुझ पर निर्भर हैं तथा मेरे घर की ईएमआई भी है।” वह माफी मांगकर चला गया।

कुछ पत्रकार लालची होते हैं। दूसरे डर से मजबूर होते हैं और किसी तरह टिके रहते हैं। लालची ऊंची आवाज में चिल्लाते हैं और अजीबोगरीब कहानियां गढ़ते हैं, जैसे ऑपरेशन सिंदूर के दौरान कुछ पत्रकारों ने गढ़ी और सनसनी फैला दी कि भारतीय नौसैनिक जहाजों ने कराची बंदरगाह को घेर लिया है और सेना कराची में घुसने वाली है।

डर या आजादी
मेरी और यशवंत सिन्हा की कहानियों के अलावा अनेक कहानियां और भी हैं, जिन्हें आपने भी सुना होगा। ये कहानियां चौथे स्तंभ में व्याप्त डर को उजागर करती हैं। मैं अपने अनुभव और जानकार लोगों से मिली सूचना के आधार पर बता रहा हूं कि एक अदृश्य सेंसर मौजूद है। वह प्रमख समाचार पत्र और टीवी चैनल की 24 घंटे निगरानी करता है। डर आजादी का सबसे बड़ा दुश्मन है। भारत में भयभीत प्रेस हो सकती है या फिर स्वतंत्र प्रेस। दोनों एक साथ तो नहीं।
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