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पड़ताल : इतिहास दोहराते राहुल गांधी, आखिर किस मानसिकता से ग्रस्त हैं कांग्रेस के 'कुमार'

Balbir Punj बलबीर पुंज
Updated Mon, 13 Mar 2023 06:28 AM IST
सार
राहुल गांधी उस मानसिकता से ग्रस्त हैं, जिसके मानस बंधुओं को भ्रम है कि वर्तमान और भविष्य तय करने का 'दैवीय विशेषाधिकार' केवल उन्हीं के पास है। जिन बाहरी शक्तियों ने भारत को सदियों तक दासता की बेड़ियों में जकड़े रखा, उन्हीं से वह भारत को कथित रूप से बचाने का आह्वान कर रहे हैं।
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The gist of Congress leader Rahul Gandhi statements in Britain, Democracy is over in India
कांग्रेस नेता राहुल गांधी। - फोटो : ANI

विस्तार
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कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी के ब्रिटेन में दिए बयानों का निचोड़ यह है, 'भारत में लोकतंत्र समाप्त है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग भारतीय सत्ता-अधिष्ठान पर काबिज हैं। चुनाव आयोग से लेकर मीडिया और न्यायालय दबाव में हैं। देश में लोकतंत्र को बचाने हेतु अमेरिका और यूरोप को हस्तक्षेप करना होगा।'



इन वक्तव्यों में निहित चिंतन ही भारत की त्रासदी और उसके शताब्दियों तक आक्रांताओं के अधीन परतंत्र रहने का बड़ा कारण है। वर्ष 1707 में मुगलिया आक्रांता औरंगजेब के देहांत के बाद भारत में इस्लामी हुकूमत क्षीण होने लगी थी। तब कालांतर में शाह वलीउल्लाह ने अफगान शासक अब्दाली (दुर्रानी) को भारत पर आक्रमण हेतु बुलावा भेजा, क्योंकि वह छत्रपति शिवाजी द्वारा प्रतिपादित 'हिंदवी स्वराज्य' को समाप्त करके भारत में पुन: इस्लामी राज स्थापित करना चाहता था। जब 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई, तब वलीउल्लाह के निमंत्रण पर आए अब्दाली को भारत में पश्तून रोहिल्लाओं, बलूचियों, शुजाउद्दौला आदि नवाबों के साथ स्थानीय मुस्लिमों का समर्थन मिला, तो मराठा पराजित हो गए। अपने लोगों के विश्वासघात से मिली उस हार ने मराठा साम्राज्य को दुर्बल कर दिया। काफी हद तक संभलने के बाद 1803 के भीषण युद्ध में मराठा ब्रितानियों के हाथों हार गए।


अंग्रेजों से मिली शिकस्त की जड़ चार दशक पहले उसी लड़ाई में मिलती है, जिसमें अब्दाली के नेतृत्व में गद्दारों के प्रहार से मराठाओं को भारी क्षति हुई थी। मराठाओं पर आश्रित पराजित मुगल एकाएक अंग्रेजों के पेंशनभोगी हो गए। यदि 18वीं शताब्दी में 'अपनों' ने अब्दाली को बुलाया नहीं होता, तो संभवत: भारत का इतिहास कुछ और होता।

दुर्भाग्य से राहुल गांधी उसी इतिहास को दोहराने हेतु प्रयासरत हैं। वह विदेशी धरती पर भारतीय लोकतंत्र को कलंकित कर यूरोपीय देशों और अमेरिका से सहायता मांग रहे हैं। यह हास्यास्पद भी है कि जिन बाहरी शक्तियों ने भारत को सदियों तक दासता की बेड़ियों में जकड़े रखा, उन्हीं से राहुल भारत को कथित रूप से बचाने का आह्वान कर रहे हैं। ब्रिटेन में राहुल के हालिया वक्तव्यों ने विंस्टन चर्चिल के उस विचार को सही सिद्ध कर दिया है, जिसमें उसने कहा था, '…भारतीय नेता बहुत ही कमजोर, भूसे के पुतलों जैसे होंगे।'

सामान्य भारतीय जानता है कि यदि विदेशियों, खासकर ब्रिटिशों-अमेरिकियों को देश में लोकतंत्र की कथित बहाली हेतु हस्तक्षेप करने का अवसर दिया गया, तो यहां गुलामी का नया अध्याय प्रारंभ हो जाएगा। संसदीय निर्वाचन प्रक्रिया आज भी ठीक वैसी है, जैसी 1952 के कालखंड के पश्चात थी। न्यायालय जितना निष्पक्ष पहले था, आज भी उतना है। मीडिया जितना पहले सत्ता समर्थित और विरोधी था, अब भी उतना है। कार्यपालिका भी सात दशकों से अपरिवर्तित है। फिर राहुल को देश का प्रजातांत्रिक-सांविधानिक ढांचा कमजोर होता क्यों दिखता है?

वास्तव में, राहुल गांधी उस मानसिकता से ग्रस्त हैं, जिसके मानस बंधुओं को भ्रम है कि वर्तमान और भविष्य तय करने का 'दैवीय विशेषाधिकार' केवल उन्हीं के पास है। इस चिंतन से ग्रस्त लोगों का मानना है कि सच्चा लोकतंत्र वही है, जिसमें 'लोक' और 'तंत्र' उनकी इच्छा के अनुसार काम करें।

पाठकों को स्मरण होगा कि कैसे राहुल गांधी ने सितंबर, 2013 में पार्टी की प्रेसवार्ता में अपनी ही सरकार का अध्यादेश फाड़ दिया था। इस मानसिकता का एक पुराना इतिहास है। कांग्रेस की हार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने केरल की पहली निर्वाचित सरकार (1957-59) बर्खास्त कर दी थी। जब 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनावी कदाचार मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता निरस्त की, तब बदले की भावना से 13 दिन पश्चात इंदिरा ने आपातकाल घोषित करते हुए संविधान को स्थगित कर दिया।

इसी तरह 1985-86 के शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बहुमत के बल पर संसद के भीतर पलट दिया था। जब 2004 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी सांविधानिक कारणों से प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं, तो सत्ता पर अपना 'विशेषाधिकार' अक्षुण्ण रखने हेतु उन्होंने असांविधानिक 'राष्ट्रीय परामर्श समिति' (2004-14) के रूप में समानार्थी सरकार और समानांतर संविधानेतर केंद्र स्थापित कर दिया। मई 2014 के बाद से राहुल-सोनिया सांविधानिक ढंग से चुनी केंद्र सरकार के निर्णयों को रद्द या संशोधित कर पाने में असहाय और विवश हैं, इसलिए उन्हें भारत में लोकतंत्र खतरे में नजर आता है।

राहुल गांधी द्वारा संघ की तुलना इस्लामी कट्टरपंथी 'मुस्लिम-ब्रदरहुड' से करना उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता और वैचारिक द्वेष की पराकाष्ठा है। वर्तमान केंद्र व राज्य सरकारों के साथ कई सार्वजनिक संस्थानों में संघ से प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से जुड़े व्यक्ति या तो निर्वाचित हैं या फिर निर्धारित प्रक्रिया के अंतर्गत नियुक्त। क्या राहुल यह कहना चाहते हैं कि भारतीय जनादेश मुस्लिम-ब्रदरहुड के कथित प्रतिरूप को मिला है?

वास्तव में, कांग्रेस का वामपंथ प्रेरित धड़ा दशकों से जिहादी अवधारणा को नगण्य करने हेतु मिथक 'हिंदू/भगवा आतंकवाद' का हव्वा खड़ा करने पर तुला है। जब  1993 में मुंबई शृंखलाबद्ध बम धमाके से दहली, जिसमें 257 निरपराध मारे गए थे, तब महाराष्ट्र के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री शरद पवार ने उन हमलों के पीछे की मानसिकता और हमलावरों की मजहबी पहचान से ध्यान भटकाने हेतु यह झूठ गढ़ दिया था कि एक धमाका मुस्लिम बहुल मस्जिद बंदर के पास भी हुआ था, जिसमें श्रीलंकाई चरमपंथी संगठन लिट्टे का हाथ है। उस परिपाटी को संप्रग काल में पी चिंदबरम और सुशील कुमार शिंदे ने केंद्रीय गृहमंत्री रहते हुए आगे बढ़ाया। दिग्विजय सिंह ने तो 2008 में मुंबई में हुए आतंकवादी हमले का आरोप संघ पर लगाकर पाकिस्तान को क्लीन-चिट दे दी थी।

ऐसी आधारहीन बातें कर राहुल गांधी जहां सुधीजनों को स्वयं से दूर कर रहे हैं, वही वामपंथी शब्दावलियों का प्रयोग कर अपनी वैचारिक शून्यता का भी परिचय दे रहे हैं।

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