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प्रतीकों की लड़ाई: डॉ. आंबेडकर के नाम पर संसद में हंगामा दुर्भाग्यपूर्ण, पक्ष-विपक्ष जनकल्याण के रास्ते तलाशें
अमर उजाला
Published by: शुभम कुमार
Updated Fri, 20 Dec 2024 05:01 AM IST
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संसद पर प्रदर्शन कर रहे नेताओं की तस्वीर
- फोटो :
PTI
विस्तार
संविधान के लागू होने के 75 वर्ष पूर्ण हुए अभी एक महीना भी नहीं गुजरा था कि गृह मंत्री के राज्यसभा में भाषण के दौरान संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर से जुड़ी उनकी टिप्पणी पर संसद के दोनों सदनों में जिस तरह से भारी विवाद और हंगामा देखने को मिला, वह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है।लगातार हंगामों के चलते शीतकालीन सत्र का काफी समय पहले ही बर्बाद हो चुका है और अब इस मुद्दे को लेकर दोनों सदनों के पूरे दिन के लिए स्थगित होने से यही जाहिर होता है कि संसद, जो नीति निर्माण और जनता की समस्याओं के समाधान का मंच है, अब विवाद और आरोप-प्रत्यारोप का अखाड़ा बनती जा रही है।
भारतीय संविधान के शिल्पकार के योगदान को किसी विचारधारा या दल विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता। उनका जीवन और कर्म तो हर भारतीय के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। लेकिन संसद में जो दृश्य देखने को मिल रहे हैं, वे न केवल संसदीय गरिमा को ठेस पहुंचाने वाले हैं, बल्कि ये आंबेडकर की विरासत के प्रति हमारी सामूहिक जिम्मेदारी पर भी सवाल खड़े करते हैं।
वर्तमान दौर में राजनीतिक फायदा उठाने के लिए विभिन्न दलों में आंबेडकर को अपनाने और उनके नाम के इस्तेमाल की होड़ समझी जा सकती है। लेकिन उनके बुनियादी मूल्य क्या हैं, इसे लेकर चयनात्मक दृष्टि रखते हुए वोट बैंक की राजनीति करना वांछित नहीं और इस लिहाज से फिलहाल चल रही पंचायत मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश ही ज्यादा लगती है।
दलितों और बहुजन की राजनीति जब केंद्र में आई, तब आंबेडकर को पर्याप्त चर्चा में लाया गया। आंबेडकर को देर से मिले भारत रत्न के आलोक में भी इसे समझा जा सकता है। आज प्रतीकों व पहचान की लड़ाई लड़ते हुए दलितों व अल्पसंख्यकों की बात उठाने वाले राजनीतिक दलों को समझना चाहिए कि असुविधाजनक तथ्यों से बचते हुए सुविधाजनक सत्यों को स्वीकारने में किसी का फायदा नहीं है।
आंबेडकर का सम्मान केवल शब्दों में नहीं, आचरण में भी दिखना चाहिए। संसदीय कार्यवाही के बार-बार बाधित होने से महत्वपूर्ण विधेयक लंबित रह जाते हैं, नीतिगत चर्चाएं ठप हो जाती हैं और करदाताओं के धन का भी अपव्यय होता है। संसद को हंगामे का नहीं, बल्कि संवाद व सहमति का मंच होना चाहिए।
लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को निर्बाध ढंग से चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार की है, लेकिन विपक्ष को भी अपनी बात रखने के व्यवस्थित व रचनात्मक तरीके अपनाने चाहिए। बातें व मुद्राएं बनाने से कुछ नहीं होगा। राजनेता सुविधा और परिस्थितियों के अनुसार काम करते हैं। लेकिन इससे जनता का कोई फायदा नहीं होता। अलबत्ता होना तो यह चाहिए कि पक्ष व विपक्ष मिलकर जनता के कल्याण के रास्ते तलाशें।