'उनके कैसेट्स सुनकर सीखा..आज मुझे सुनकर लोगों को उनकी याद आती है', बेटे ने सुनाए अज़ीज़ नाज़ा से जुड़े किस्से
Mujtaba Aziz Naza Exclusive Interview: कव्वाली को जीने वाले, कव्वाली को हर घर तक पहुंचाने वाले दिवंगत संगीतकार, कंपोजर अज़ीज़ नाज़ा साहब की विरासत को उनके बेटे मुज्तबा अज़ीज़ नाज़ा आगे बढ़ा रहे हैं। उनके भाई मुनीर इसमें उनका साथ देते हैं। दोनों मुज्तबा भाई हाल ही में अमर उजाला के दफ्तर पहुंचे, जहां कई दिलचस्प बातें साझा कीं।
विस्तार
आप बहुत छोटे थे जब अज़ीज़ नाज़ा साहब का इंतकाल हुआ। उनकी हल्की स्मृतियां क्या हैं आपके जहन में?
स्मृतियां ये हैं कि कव्वाली को उन्होंने जो आयाम दिया, जिस तरह से प्रस्तुत किया और जिस शान के साथ वो स्टेज पर परफॉर्म करते थे। मैं बहुत लाड़ला था उनका तो एक-दो लाइव शोज में वो मुझे लेकर गए थे। स्टेज पर मुझे अपने साथ ही बैठाते थे। धुंधली यादें हैं उनकी कि जब वो गाते थे तो आवाम उनको ही देखती थी। उनका शेर पढ़ने का तरीका और उनके अल्फाज और म्यूजिक। इन सभी चीजों ने मेरा संगीत के प्रति रुझान बनाया।
उनके ना रहने के बाद तो मैं इसके प्रति और मेहनत करने लगा। उनकी विरासत संभालना आसान नहीं है। ये बड़ी चुनौती होती है जब महफिल में लोग मुझसे कहते हैं कि उन्होंने मेरे पिता को सुना है और आज मुझे सुनना चाहते हैं। इसके बाद जब वो कहते हैं कि आपने हमें आपके पिता की याद दिला दी तो यह मेरे लिए बहुत बड़ी तारीफ होती है।
पिता की तालीम को आपने किस तरह आगे बढ़ाया?
बचपन से ही मेहरबानी है मालिक की। मैं कई तरह के वाद्ययंत्र बजा सकता हूं। पांच साल की उम्र में भी जब मैं हारमोनियम और तबला बजाता था तो घर वाले भी सोच में पड़ जाते थे कि ये इसने कहां से सीखा? मेरे पिताजी के लिमिटेड कैसेट सुनकर मैं काफी कुछ सीखता था। मम्मी ने मुझे सिखाया कि कंपोजीशन कैसे करना और खुद को किस तरह पेश करना है। मां ने मुझे शेर-ओ-शायरी भी सिखाई। मैंने महज आठ साल की उम्र में पहली कंपोजीशन एक गजल की बनाई थी। इसके बाद पढ़ाई-लिखाई में मन ही नहीं लगा। मुझे बस अपने पिता जैसे बनना था। जीवन में एक ऐसा मुकाम भी आया जब मेरी मां का एक्सीडेंट हो गया और वो पूरी तरह बेडरेस्ट पर चली गईं। इसके बाद मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी और मैंने म्यूजिक में नाम बनाने के लिए मुंबई का रुख किया।
मुंबई में संघर्ष का दौर कैसा रहा?
मैं मात्र 12 साल की उम्र में मुंबई पहुंचा। वहां हमारा पुश्तैनी घर बचा नहीं था। किराये के घर में नानी के साथ रहता था। मन में तय किया था कि कव्वली से शुरुआत करनी है तो डोंगरी की एक दरगाह पर हाजरी पेश की। वहां दुनिया भर के मशहूर कव्वाल आते और परफॉर्म करते हैं। वहां हाजरी पेश करने लगा तो लोगों को धीरे-धीरे पता चलने लगा कि मैं अज़ीज़ नाज़ा साहब का बेटा हूं। तब मैं पिता की तरह ही कुर्ते पहनता था, उनके जैसा ही दिखता था और उनके ही गाए गाने पेश करता था। धीरे-धीरे नाम हुआ और काम मिलता गया। इतना काम मिला कि कभी-कभी दो महीने तक घर जाने का भी वक्त नहीं मिलता था। आगे जाकर संजय लीला भंसाली जी के साथ जुड़ा। ‘बाजीराव मस्तानी’ और ‘पद्मावत’ पर उनके साथ काम किया। मधुर भंडारकर की फिल्म ‘इंदू सरकार’ में पिताजी की कव्वाली ‘चढ़ता सूरज..’ पेश की थी। उसमें तो मैं परदे पर नजर भी आया। इसके अलावा भी बॉलीवुड में कई काम किए।
आज इंडस्ट्री पूरी तरह रीमेक में उलझी हुई है। असल गानों की इतनी कमी क्यों है ?
रीमेक गाने सुनकर मुझे ऐसा लगता है कि काश असल और नए गाने पर इतनी मेहनत की गई होती तो लोगों को काफी कुछ अच्छा सुनने को मिल जाता। बाकी मुझे लगता है कि पका पकाया मिलता है तो कई लोग मेहनत नहीं करते।
नएपन की इतनी कमी क्यों है? लोग उसी पुराने को निचोड़ते रहते हैं बस। आप तो इंडस्ट्री को इतना अंदर से देख चुके हैं। क्या कारण है?
मुझे लगता है कि जब पका-पकाया मिल रहा है तो लोग मेहनत क्यों करना चाहेंगे? धुन बनाना अपने आप में एक लंबी प्रक्रिया है। इंडस्ट्री में बहुत सारे कंपोजर अच्छा काम कर रहे हैं। मगर यह बहुत मुश्किल काम है। आसान नहीं है। धुनें बनाना। कुछ नया क्रिएट करना। शायद लोग इससे कतराते हैं। इससे अच्छा है पुराना उठाओ, बनाओ, चार लाइन जोड़ो और ऐश करो। मेरा मानना है कि इसकी बजाय अपना कुछ क्रिएट करें तो कुछ नया आएगा सामने।
फिल्मों से कव्वालियों के गायब होने की बड़ी वजह क्या मानते हैं?
एक दौर था जब फिल्मों में कव्वाली का होना सफलता की गारंटी माना जाता था। अब मुझे ऐसा लगता है कि वक्त के साथ लोगों की कव्वाली के प्रति समझ कम हो गई। आज भी बॉलीवुड की कुछ फिल्मों में कव्वालियां आती हैं। जैसे बजरंगी भाईजान में ‘भर दो झोली’ थी। बादशाहो में ‘मेरे रश्के कमर’ थी। कई गाने कव्वाली की कंपोजीशन पर भी बनते हैं पर हां फिल्मों में उतना नजर नहीं आतीं।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में घरानों की परंपरा रही है, इसकी वजह से संगीत आगे बढ़ता चला गया। आपको लगता है कि कव्वाली में भी घराने एक वक्त में रहे। मगर, उस तरीके से शागिर्द तैयार नहीं हुए या लोग सिखाकर आगे नहीं बढ़ा पाए? यह भी एक कारण है?
बहुत सारे ऐसे आर्टिस्ट हुए हैं, जिन्होंने बहुत अच्छा काम किया और फनकार रहे हैं। पहले जमाने में बच्चा कव्वाल वालों का घराना हुआ करता था। बंटवारे की वजह से बहुत लोग पाकिस्तान चले गए, कुछ लोग यहां भी हैं। मगर, गुरु-शिष्य का ऐसा है कि जो उसको इबादत की तरह करेगा, वही कर पाएगा। बहुत कम ऐसे लोग होते हैं जो इबादत की तरह अपनाते हैं। वह कमिटमेंट और डेडिकेशन नहीं होता। मैं भी इसलिए किसी को बहुत जल्दी शागिर्द नहीं बनाता हूं। जब वह समर्पण महूसस नहीं होता तो शागिर्द बनाने का कोई मतलब नहीं है'।
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