Himachal Pradesh High Court: ज्वालामुखी नप में सलेतड़ वार्ड का कुछ क्षेत्र शामिल करने की अधिसूचना रद्द
जिला कांगड़ा की ज्वालामुखी नगर परिषद में सलेतड़ वार्ड के कुछ हिस्सों को शामिल करने संबंधी सरकारी अधिसूचना को हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया है। अदालत ने सुनवाई के दौरान पाया कि शहरी विकास विभाग के सचिव ने आपत्तियों पर कोई तर्कसंगत या कारण सहित आदेश (स्पीकिंग ऑर्डर) पारित नहीं किया। पढ़ें पूरी खबर...
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हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने जिला कांगड़ा की ज्वालामुखी नगर परिषद में सलेतड़ वार्ड के कुछ हिस्सों को शामिल करने संबंधी सरकारी अधिसूचना को रद्द कर दिया है। न्यायाधीश विवेक सिंह ठाकुर और न्यायाधीश रोमेश वर्मा की खंडपीठ ने पाया कि सरकार ने जनता की आपत्तियों पर बिना ठोस कारण और बिना सोच-विचार के निर्णय लिया था।
अदालत ने सुनवाई के दौरान पाया कि शहरी विकास विभाग के सचिव ने आपत्तियों पर कोई तर्कसंगत या कारण सहित आदेश (स्पीकिंग ऑर्डर) पारित नहीं किया। रिकॉर्ड से यह भी स्पष्ट हुआ कि प्रदेश सरकार के मंत्रिमंडल के समक्ष फाइल प्रस्तुत करते समय यह दर्शाया गया कि आपत्तियों का निपटारा कर दिया गया है, जबकि वास्तविकता में ऐसा नहीं हुआ था। हाईकोर्ट ने कहा कि जब तक प्रक्रिया पारदर्शी और कानूनी नहीं होगी, तब तक उसे वैध नहीं माना जा सकता।
राज्य सरकार की ओर से दलील दी गई थी कि चुनाव प्रक्रिया शुरू होने और परिसीमन से जुड़े मामलों में अदालत हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इस पर हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसलों का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि यदि सरकार का कदम मनमाना या असंवैधानिक हो, तो न्यायिक समीक्षा के माध्यम से उस पर रोक लगाई जा सकती है। हाईकोर्ट ने 23 दिसंबर 2024 की अधिसूचना को तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया है। साथ ही शहरी विकास सचिव को निर्देश दिए गए हैं कि वे याचिकाकर्ताओं की आपत्तियों पर दोबारा विचार करे, प्रभावित पक्षकारों को व्यक्तिगत सुनवाई का अवसर दें और 10 जनवरी 2026 से पहले एक विस्तृत आदेश पारित करें।
इस मामले में याचिकाकर्ता सुमन लता ने प्रदेश सरकार की 23 दिसंबर 2024 की अधिसूचना को चुनौती दी थी। उन्होंने याचिका में कहा था कि उनके क्षेत्र को नगर परिषद ज्वालामुखी में शामिल करने के खिलाफ स्थानीय निवासियों ने आपत्तियां दर्ज कराई थीं, लेकिन प्रदेश सरकार ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया।
हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने शिक्षकों की ओर से दायर उस याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें उन्होंने अपने जूनियरों के समान वेतन और पदोन्नति के नियमों में बदलाव की मांग की थी। न्यायाधीश ज्योत्सना रिवॉल दुआ की अदालत ने फैसले में स्पष्ट किया कि एक बार पदोन्नति के लिए विकल्प चुनने के बाद कर्मचारी बाद में वरिष्ठता के आधार पर वेतन विसंगति का दावा नहीं कर सकते।
हाईकोर्ट ने कहा कि यदि जूनियरों ने एक विशिष्ट श्रेणी (मुख्याध्यापक) चुनकर पदोन्नति हासिल की है, तो याचिकाकर्ता पूरे कार्यकाल तक वरिष्ठ होने का दावा नहीं कर सकते। इसके साथ अदालत ने याचिका को योग्यताहीन मानते हुए खारिज कर दिया। याचिकाकर्ता विनोद कुमार सूद और अन्य जो 2010 से पहले प्रशिक्षित स्नातक शिक्षक (टीजीटी) के रूप में नियुक्त हुए थे ने अदालत से मांग की थी कि उन्हें उनके उन जूनियरों के बराबर वेतन दिया जाए जो उनसे अधिक वेतन ले रहे हैं।
प्रधानाचार्य के पद पर पदोन्नति के लिए प्रवक्ताओं (प्रवक्ता और पीजीटी) का कोटा निर्धारित किया जाए। संशोधित नियमों को उन पर लागू न किया जाए क्योंकि उनकी नियुक्ति पुराने नियमों 2010 के समय की है। अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ताओं ने स्वयं प्रवक्ता बनने का विकल्प चुना था। उनके कुछ जूनियरों ने मुख्याध्यापक (हेडमास्टर) का विकल्प चुना।
नियमों के अनुसार, मुख्याध्यापक से प्रधानाचार्य बनने के लिए 3 साल की सेवा अनिवार्य है, जबकि प्रवक्ता के लिए यह अवधि 8 साल है। चूंकि जूनियरों ने मुख्याध्यापक का रास्ता चुना वे वरिष्ठता में आगे निकल गए। कोर्ट ने नीलम कौशल बनाम हिमाचल राज्य मामले का हवाला दिया। कहा कि 26 अप्रैल 2010 के बाद की सभी पदोन्नतियां विकल्पों के आधार पर तय की गई थीं। एक बार विकल्प देने के बाद उसे बदला नहीं जा सकता। अदालत ने यह भी नोट किया कि याचिकाकर्ताओं ने भर्ती एवं पदोन्नति नियमों को चुनौती नहीं दी थी और उनकी याचिका में विलंब और देरी के सिद्धांत भी लागू होते हैं।
हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की समीक्षा याचिका को खारिज करते हुए कहा कि यदि सुनवाई के समय जवाब रिकॉर्ड पर नहीं था तो इसकी जिम्मेदारी अदालत की नहीं है। न्यायाधीश अजय मोहन गोयल की अदालत ने कहा कि यदि राज्य सरकार रजिस्ट्री में जवाब दाखिल करती है और उसकी सूचना कोर्ट को नहीं देती तो इस चूक का बोझ अदालत पर नहीं डाला जा सकता। अदालत ने साफ किया कि फैसले के समय जो तथ्य सामने थे, उनके आधार पर टिप्पणी की गई थी और इसमें सुधार की कोई आवश्यकता नहीं है। यह मामला राम लाल बनाम राज्य से जुड़ा है। इस मामले में 15 अक्तूबर 2025 को अदालत ने एक निर्णय सुनाया था।
फैसले के पैरा-दो में कोर्ट ने दर्ज किया था कि दो अवसर दिए जाने के बावजूद राज्य सरकार की ओर से कोई जवाब दाखिल नहीं किया गया। इसी टिप्पणी को हटवाने या फैसले में संशोधन के लिए राज्य सरकार ने समीक्षा याचिका दायर की थी। सरकार ने अदालत में तर्क दिया कि हालांकि वे मेरिट के आधार पर फैसले को चुनौती नहीं दे रहे हैं, लेकिन रिकॉर्ड के अनुसार जिस दिन फैसला सुनाया गया, उसी दिन राज्य का जवाब हाईकोर्ट की रजिस्ट्री में दाखिल कर दिया गया था। इसलिए यह कहना गलत है कि जवाब दाखिल नहीं किया गया। अदालत ने सरकार की दलीलों को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि अदालत ने फैसला उस रिकॉर्ड के आधार पर सुनाया है, जो सुनवाई के समय उसके समक्ष उपलब्ध था। सरकार ने सुनवाई के दौरान न तो कोर्ट को यह बताया कि जवाब दाखिल हो चुका है और न ही उसकी कोई प्रति कोर्ट को उपलब्ध कराई।
हाईकोर्ट ने कांगड़ा केंद्रीय सहकारी बैंक के उप महाप्रबंधक केसी भारद्वाज को वर्ष 2022 से लंबित सभी पदोन्नति लाभ और बकाया वेतन ब्याज सहित देने के आदेश दिए हैं। हालांकि अदालत ने उनके खिलाफ जारी अनुशासनात्मक जांच और चार्जशीट को रद्द करने से इनकार कर दिया है। यह आदेश न्यायाधीश संदीप शर्मा की अदालत ने दिया।
मामला वर्ष 2022 का है, जब केसी भारद्वाज की पदोन्नति को उनके खिलाफ लंबित अनुशासनात्मक जांच के कारण सीलबंद लिफाफे में रख दिया था। बाद में उन्हें पदावनत भी कर दिया गया। हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद बैंक के निदेशक मंडल ने उनका दंड माफ किया और फरवरी 2025 में उन्हें उप महाप्रबंधक पद पर पदोन्नत किया। इसके बावजूद 20 जुलाई 2024 को उनके खिलाफ एक और चार्जशीट जारी कर दी गई।
याचिकाकर्ता का तर्क था कि 28 अप्रैल 2025 को बैंक के निदेशक मंडल ने प्रस्ताव पारित कर उनके खिलाफ चल रही जांच रोकने और आरोप हटाने का निर्णय लिया था, लेकिन बैंक प्रबंधन ने इस निर्णय को लागू नहीं किया। बैंक की ओर से दलील दी गई कि 25 जून को हुई अगली बैठक में उस प्रस्ताव की पुष्टि नहीं हुई, इसलिए वह निर्णय कानूनी रूप से प्रभावी नहीं माना जा सकता। हाईकोर्ट ने कहा कि जब तक बोर्ड की पिछली बैठक के मिनट्स की अगली बैठक में पुष्टि नहीं होती, तब तक वह अंतिम निर्णय नहीं माने जाते। संवाद
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि बोर्ड को अपनी पूर्व की त्रुटियों को सुधारने का अधिकार है। याचिकाकर्ता 31 दिसंबर 2025 को सेवानिवृत्त होने वाले हैं।
हाईकोर्ट ने पोक्सो मामले में महत्वपूर्ण फैसला देते हुए कहा है कि न्याय सुनिश्चित करने के लिए अदालत अपील के चरण में भी अतिरिक्त साक्ष्य दर्ज करने की अनुमति दे सकती है। अदालत ने पीड़िता और स्कूल के रिकॉर्ड कीपर को दोबारा तलब करने की अनुमति दे दी है। न्यायाधीश विवेक सिंह ठाकुर और न्यायाधीश बिपिन चंद्र नेगी की खंडपीठ ने राज्य सरकार की ओर से दायर आवेदन को स्वीकार करते हुए यह आदेश दिया।
अदालत ने मामले में जांच की कमियों को गंभीरता से लेते हुए पुलिस महानिदेशक को निर्देश दिए कि सभी जांच अधिकारियों को जुवेनाइल जस्टिस एक्ट-2015 की धारा 94 के प्रावधानों से अवगत कराया जाए। अदालत ने स्पष्ट किया कि नाबालिग पीड़िता या आरोपियों की उम्र साबित करने के लिए केवल पंचायत रिकॉर्ड पर निर्भर न रहा जाए, बल्कि स्कूल रिकॉर्ड, मैट्रिक प्रमाण पत्र, जन्म प्रमाण पत्र जैसे सभी उपलब्ध साक्ष्य जुटाए जाएं।
आवश्यकता पड़ने पर ऑसिफिकेशन टेस्ट का भी सहारा लिया जाए। इन निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित करने के लिए अदालत ने 15 जनवरी तक गाइडलाइंस जारी करने के आदेश दिए। इस मामले की सुनवाई 29 दिसंबर को रजिस्ट्रार के समक्ष होगी। यह मामला हमीरपुर जिले से संबंधित है। यहां आरोपी को पोक्सो अधिनियम की धारा 6 और आईपीसी की धारा 506 के तहत 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी।
आरोपी ने इस सजा के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील दायर की थी। सुनवाई के दौरान अभियोजन पक्ष ने अदालत को बताया कि ट्रायल के समय पीड़िता का मैट्रिक (10वीं) प्रमाण पत्र उपलब्ध नहीं था, क्योंकि वह उस समय परीक्षा दे रही थी। अब प्रमाण पत्र जारी हो चुका है और अभियोजन पक्ष उसे रिकॉर्ड पर लाना चाहता है, ताकि पीड़िता की उम्र 10 मई 2005 को कानूनन पुख्ता रूप से साबित की जा सके।