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Sirmour News: परंपरा, आस्था और सांस्कृतिक विरासत का जीवंत संगम है महासू देवता का आगमन
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महासू महाराज की यात्रा में आगे चलते देव चिन्ह। स्रोत: जागरूक पाठक
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देवता के निवास स्थान पशमी में जुट रही लोगों की भीड़, लोग ला रहे अपनी फरियाद
चालदा छत्रधारी की यात्रा में नदी-नालों के समीप निभाई गई बलि देने की प्रथा
संवाद न्यूज एजेंसी
शिलाई (सिरमौर)। शिलाई उपमंडल के गांव पशमी में महासू महाराज के पावन आगमन के साथ ही क्षेत्र एक बार फिर आस्था, परंपरा और सांस्कृतिक चेतना से सराबोर हो उठा है। चालदा छत्रधारी महासू के पशमी आगमन के बाद से क्षेत्र के लोग काफी उत्साहित हैं। यहां पर लोगों की भीड़ लगी हुई है। कोई शीश नवाने आ रहा है तो कोई अपनी फरियाद ही उनके सामने रख रहा है।
महासू देवता की पालकी से पूर्व चार वीर कफलावीर, गुड़ारू, केलुवीर और सिकुड़या वीर अग्रसर होते हैं। लोकमान्यता के अनुसार ये चारों वीर देवता की रक्षा के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं। यात्रा के दौरान इन वीरों की पूजा भी महासू महाराज की पूजा के साथ विधिवत की जाती है, जिससे यात्रा की पवित्रता और सुरक्षा सुनिश्चित होती है। जहां भी महासू महाराज जाएंगे उससे पहले छड़ी और तांबे के बर्तन चलते हैं, उसके बाद महासू महाराज की पालकी चलती है। यात्रा और पूजन में बलि परंपरा का भी विशेष स्थान है।
मान्यता है कि बकरों की बलि से पापों का क्षय होता है, देवता प्रसन्न होकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं और जीवन में सुख-समृद्धि आती है। यह परंपरा क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग मानी जाती है। चालदा छत्रधारी की यात्रा के दौरान नदी-नालों के समीप बलि देने की परंपरा भी निभाई जाती है। इसके पीछे प्राकृतिक शक्तियों के सम्मान, जल स्रोतों की शुद्धि और प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखने की भावना निहित है। स्थानीय लोग इसे संस्कृति और प्रकृति के सहअस्तित्व का प्रतीक मानते हैं।
उत्तराखंड से हिमाचल आने वाले धन्डुओं की विशेष देखभाल की जाती है। परंपरा के अनुसार, यदि इनमें से किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसका सेवन महासू के देयाल करते हैं यह भी लोक-आस्था और परंपरागत विश्वासों का हिस्सा है।
पशमी में महासू देवता का आगमन केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक एकता, लोक-संस्कृति और प्रकृति के प्रति सम्मान का संदेश देता है। यह आयोजन बताता है कि किस प्रकार परंपराएं आज भी समाज को जोड़ने और सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने का कार्य कर रही हैं।
-- -- संवाद
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चालदा छत्रधारी की यात्रा में नदी-नालों के समीप निभाई गई बलि देने की प्रथा
संवाद न्यूज एजेंसी
शिलाई (सिरमौर)। शिलाई उपमंडल के गांव पशमी में महासू महाराज के पावन आगमन के साथ ही क्षेत्र एक बार फिर आस्था, परंपरा और सांस्कृतिक चेतना से सराबोर हो उठा है। चालदा छत्रधारी महासू के पशमी आगमन के बाद से क्षेत्र के लोग काफी उत्साहित हैं। यहां पर लोगों की भीड़ लगी हुई है। कोई शीश नवाने आ रहा है तो कोई अपनी फरियाद ही उनके सामने रख रहा है।
महासू देवता की पालकी से पूर्व चार वीर कफलावीर, गुड़ारू, केलुवीर और सिकुड़या वीर अग्रसर होते हैं। लोकमान्यता के अनुसार ये चारों वीर देवता की रक्षा के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं। यात्रा के दौरान इन वीरों की पूजा भी महासू महाराज की पूजा के साथ विधिवत की जाती है, जिससे यात्रा की पवित्रता और सुरक्षा सुनिश्चित होती है। जहां भी महासू महाराज जाएंगे उससे पहले छड़ी और तांबे के बर्तन चलते हैं, उसके बाद महासू महाराज की पालकी चलती है। यात्रा और पूजन में बलि परंपरा का भी विशेष स्थान है।
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मान्यता है कि बकरों की बलि से पापों का क्षय होता है, देवता प्रसन्न होकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं और जीवन में सुख-समृद्धि आती है। यह परंपरा क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग मानी जाती है। चालदा छत्रधारी की यात्रा के दौरान नदी-नालों के समीप बलि देने की परंपरा भी निभाई जाती है। इसके पीछे प्राकृतिक शक्तियों के सम्मान, जल स्रोतों की शुद्धि और प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखने की भावना निहित है। स्थानीय लोग इसे संस्कृति और प्रकृति के सहअस्तित्व का प्रतीक मानते हैं।
उत्तराखंड से हिमाचल आने वाले धन्डुओं की विशेष देखभाल की जाती है। परंपरा के अनुसार, यदि इनमें से किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसका सेवन महासू के देयाल करते हैं यह भी लोक-आस्था और परंपरागत विश्वासों का हिस्सा है।
पशमी में महासू देवता का आगमन केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक एकता, लोक-संस्कृति और प्रकृति के प्रति सम्मान का संदेश देता है। यह आयोजन बताता है कि किस प्रकार परंपराएं आज भी समाज को जोड़ने और सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने का कार्य कर रही हैं।