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अरावली की पहाड़ियां क्यों चर्चा में: एक 'सुप्रीम' आदेश से मची हलचल, कैसे अभियान बना इसके संरक्षण का मुद्दा?

स्पेशल डेस्क, अमर उजाला Published by: कीर्तिवर्धन मिश्र Updated Sun, 21 Dec 2025 03:15 PM IST
सार

यह अरावली पर्वत शृंखला क्या है और यह इतनी महत्वपूर्ण क्यों है? अरावली चर्चा में क्यों आ गया है? विशेषज्ञों का इस मामले में क्या कहना है? सियासी दलों की इस मामले में क्या कहना है? आइये जानते हैं...

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Aravalli Range Mountains Hill Supreme Court Save Aravalli Campaign Northwest India Mining Congress BJP Politic
अरावली रेंज। - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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अरावली के पर्वत दुनिया में सबसे प्राचीन पर्वत शृंखलाओं में से एक हैं। हालांकि, इनसे जुड़ा एक ताजा मामला सोशल मीडिया पर अभियान का रूप ले रहा है। दरअसल, हुआ कुछ यूं कि हाल ही में इन पर्वतों के पास खनन की घटनाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली गई। इस पर केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जवाब दाखिल किया। इसी जवाब के बाद से देशभर में कुछ ऐसे घटनाक्रम हुए हैं, जिन्हें लेकर अरावली शृंखला चर्चा के केंद्र में आ गई। इतना ही नहीं अरावली के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर 'सेव अरावली कैंपेन' यानी अरावली बचाओ अभियान तक चल पड़ा है। इस मामले में सियासत भी होने लगी है। 
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ऐसे में यह जानना अहम है कि आखिर यह अरावली पर्वत शृंखला क्या है और यह इतनी महत्वपूर्ण क्यों है? अरावली चर्चा में क्यों आ गया है? विशेषज्ञों का इस मामले में क्या कहना है? सियासी दलों की इस मामले में क्या कहना है? आइये जानते हैं...
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क्या है अरावली पर्वत शृंखला, इतनी महत्वपूर्ण क्यों?
कहा जाता है कि पृथ्वी पर अरावली पर्वत शृंखला दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत शृंखला है। यह करीब दो अरब साल पुरानी है और भारत में सबसे पुरानी है। यह हिंद-गंगीय मैदानी इलाकों को रेगिस्तानी रेत से बचाने के लिए एक अहम पारिस्थितिकी बैरियर की तरह काम करता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि अगर यह पर्वत शृंखला न होती तो भारत का उत्तरी क्षेत्र रेगिस्तान में तब्दील होना शुरू हो गया होता। हालांकि, इस शृंखला के चलते ही थार रेगिस्तान अपने उत्तर की तरफ (हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) तक नहीं फैल पाया। 

इतना ही नहीं अरावली थार रेगिस्तान और बाकी क्षेत्र के बीच जलवायु को संतुलित करने में भी अहम भूमिका निभाता है। इसके अलावा पूरे क्षेत्र में जैव विविधता और भूजल के प्रबंधन में भी यह शृंखला बेहद अहम हैं। इसके चलते ही दिल्ली से गुजरात का करीब 650 किलोमीटर का क्षेत्र प्राकृतिक तौर पर विभिन्नता बरकरार रखने के लिए महत्वपूर्ण है। यह रेंज चंबल, साबरमती और लूनी जैसी नदियों का स्रोत भी है। इसमें बालू के पत्थर, चूना पत्थर, संगरमरमर और ग्रेनाइट का भी भंडार है। इसके अलावा लेड, जिंक, कॉपर, सोना और टंगस्टन जैसे खनिज भी इस पर्वत शृंखला में पाए जाते हैं। 

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अरावली के दोहन की कहानी भी इन भंडारों की वजह से ही शुरू होती है। ऐतिहासिक तौर पर अरावली से बड़ी मात्रा में खनन होता रहा है। हालांकि, बीते चार दशक में यहां से पत्थर और रेत का खनन बढ़ा है। अब आलम यह है कि अरावली के खनन की वजह से वायु गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित होती है और यह आसपास के राज्यों में एक्यूआई खराब करती है। इतना ही नहीं खनन की वजह से आसपास के भूजल पर फर्क पड़ रहा है। इन स्थितियों के चलते अलग-अलग समय पर अरावली के अलग-अलग क्षेत्रों में खनन अवैध किया गया है।  

2025
मार्च: में समिति ने साफ किया कि पर्यावरणीय तौर पर संवेदनशील इलाकों में खनन पूरी तरह रोका जाना चाहिए। इसके अलावा पत्थर तोड़ने की इकाइयों पर भी सख्त नियम लागू करने का प्रस्ताव दिया गया। समिति ने कहा कि जब तक सभी राज्यों में अरावली रेंज की पूरी मैपिंग नहीं कर ली जाए और इसके प्रभाव की रिपोर्ट न पूरी हो जाए, तब तक खनन के नए पट्टे न दिए जाएं और पुराने पट्टे नवीनीकृत न हों।  

जून: केंद्र सरकार ने हरित दीवार परियोजना शुरू की। इसके तहत अरावली रेंज में आने वाले चार राज्यों के 29 जिलों में इन पर्वतों के आसपास पांच किलोमीटर का जंगल वाला इलाका बनाया जाएगा, जो बफर की तरह काम करेगा। सरकार का कहना था कि यह पहल 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर खराब भूमि को फिर से उपजाऊ बनाया जा सकेगा। 

अब ऐसा क्या हुआ कि चर्चा में आ गई अरावली शृंखला?
सुप्रीम कोर्ट ने पाया है कि अरावली पर्वत शृंखला की पहचान के लिए अलग-अलग राज्य अलग मानक रख रहे हैं। यहां तक कि विशेषज्ञ समूह भी अलग मानकों से अरावली पर्वत को परिभाषित कर रहे हैं। इनमें फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) शामिल है। दरअसल, 2010 में एफएसआई ने कहा था कि अरावली शृंखला में उन्हें ही पर्वत माना जाएगा, जिनकी ढलान तीन डिग्री से ज्यादा हो। ऊंचाई 100 मीटर के ऊपर हो और दो पहाड़ियों के बीच की दूरी 500 मीटर हो। हालांकि, कई ऊंची पहाड़ियां भी इन मानकों पर नहीं थीं। 

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सुप्रीम कोर्ट ने इसके बाद पर्यावरण मंत्रालय, एफएसआई, राज्यों के वन विभाग, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) और अपनी समिति के प्रतिनिधियों को लेते हुए एक और समिति बनाई। इस समिति को अरावली की परिभाषा तय करने की जिम्मेदारी दी गई। आखिरकार 2025 को इस समिति ने सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट भेजी। सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर को फैसला दिया कि अब सिर्फ 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली पर्वत शृंखला का हिस्सा माना जाएगा। इस मामले में कोर्ट की तरफ से नियुक्त एमिकस क्यूरी के. परमेश्वर ने आपत्ति जताई थी और कहा था कि यह परिभाषा काफी संकीर्ण है और सभी पहाड़ियां, जिनकी ऊंचाई 100 मीटर से कम है, वह खनन के लिए योग्य हो जाएंगी। इससे पूरी शृंखला पर असर पड़ेगा। हालांकि, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्य भाटी ने तर्क दिया कि एफएसआई के पुराने मानक अरावली के और बड़े क्षेत्र को पर्वत की परिभाषा से बाहर करते हैं। ऐसे में समिति की 100 मीटर की पहाड़ियों को पर्वत शृंखला मानने का तर्क काफी बेहतर है।  


इन सभी तर्कों को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर्वत शृंखला पर बेहतर प्रबंधन योजना तैयार करने के निर्देश जारी किए। इस योजना के तहत उन क्षेत्रों को पहले से तय किया जाएगा, जहां खनन को पूरी तरह प्रतिबंधित किया जाएगा। इसके अलावा उन क्षेत्रों को भी पहचाना जाएगा, जहां सिर्फ सीमित या नियमित ढंग से ही खनन को मंजूरी मिल पाए। 

अगर लागू होते हैं मानक तो अरावली के कितने हिस्से पर पड़ेगा असर?
अरावली के कुल 670 किलोमीटर के दायरे में से 550 किलोमीटर का क्षेत्र राजस्थान में आता है। विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली सिर्फ ऊंचाई का विषय नहीं, बल्कि एक संपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र है। सरकारी और तकनीकी अध्ययनों के अनुसार राजस्थान में मौजूद अरावली की करीब 90 प्रतिशत पहाड़ियां 100 मीटर की ऊंचाई की शर्त पूरी नहीं करतीं। इसका मतलब यह हुआ कि राज्य की केवल 8 से 10 प्रतिशत पहाड़ियां ही कानूनी रूप से ‘अरावली’ मानी जाएंगी, जबकि शेष लगभग 90 प्रतिशत पहाड़ियां संरक्षण कानूनों से बाहर हो सकती हैं।

पर्यावरणविदों का मानना है कि यह लड़ाई केवल अदालत या सरकार तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज की साझा जिम्मेदारी है। अरावली का नुकसान स्थायी हो सकता है, क्योंकि एक बार पहाड़ कटे और जलधाराएं टूटीं तो उन्हें वापस लाने में सदियां लग जाती हैं। इसी कारण जनजागरण और सवाल उठाना आज भविष्य को सुरक्षित करने की जरूरत बन गया है।

क्या कहते हैं सरकारी विभाग के अफसर?
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) के पूर्व महानिदेशक दिनेश गुप्ता ने बताया कि साल 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की एक कमेटी अरावली में खनन एक्टिविटी की सीमा निर्धारण को लेकर बनाई थी। मैं जीएसआई डीजी के तौर इस कमेटी का सदस्य था। 2008 में कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट दी थी कि अरावली में 100 मीटर कंटूर लेवल नॉन अरावली कंसीडर किया जाए, बाकी को अरावली का हिस्सा माना जाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट को स्वीकार भी किया था। इसके बाद पर्यावरण से जुड़े कार्यकर्ताओं के विरोध के चलते यह मामला आगे नहीं बढ़ा। इस मामले में जैसे बयान आ रहे हैं वे बहकाने वाले हैं। ऐसा नहीं है कि अरावली पर खनन होने से रेगिस्तान को बढ़ावा मिलेगा। रेगिस्तान के बढ़ने के कई दूसरे कारण होते हैं। 

कैसे राजनीतिक गलियारों में पहुंचा पूरा मामला?
अब इस मुद्दे को लेकर पर्यावरणविदों से लेकर विपक्ष एक बड़ी मुहिम की ओर चल पड़ा है। ‘सेव अरावली’ कैंपेन देश भर में शुरू हो चुका है। राजस्थान में इस कैंपेन की अगुवाई पूर्व सीएम अशोक गहलोत कर रहे हैं। गहलोत ने चिंता जताई कि जब अरावली के रहते हुए स्थिति इतनी गंभीर है, तो अरावली के बिना स्थिति कितनी वीभत्स होगी, इसकी कल्पना भी डरावनी है। अरावली को जल संरक्षण का मुख्य आधार बताते हुए उन्होंने कहा कि इसकी चट्टानें बारिश के पानी को जमीन के भीतर भेजकर भूजल रिचार्ज करती हैं। अगर पहाड़ खत्म हुए, तो भविष्य में पीने के पानी की गंभीर किल्लत होगी, वन्यजीव लुप्त हो जाएंगे और पूरी इकोलॉजी खतरे में पड़ जाएगी।

गहलोत ने कहा कि वैज्ञानिक दृष्टि से अरावली एक निरंतर शृंखला है। इसकी छोटी पहाड़ियां भी उतनी ही अहम हैं जितनी कि बड़ी चोटियां। अगर दीवार में एक भी ईंट कम हुई, तो सुरक्षा टूट जाएगी। अरावली कोई मामूली पहाड़ नहीं, बल्कि प्रकृति की बनाई हुई 'ग्रीन वॉल' है। यह थार रेगिस्तान की रेत और गर्म हवाओं (लू) को दिल्ली, हरियाणा और यूपी के उपजाऊ मैदानों की ओर बढ़ने से रोकती है। यदि 'गैपिंग एरिया' या छोटी पहाड़ियों को खनन के लिए खोल दिया गया, तो रेगिस्तान हमारे दरवाज़े तक आ जाएगा और तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि होगी। ये पहाड़ियां और यहां के जंगल एनसीआर और आसपास के शहरों के लिए फेफड़ों का काम करते हैं। ये धूल भरी आंधियों को रोकते हैं और प्रदूषण कम करने में अहम भूमिका निभाते हैं।

दूसरी तरफ भाजपा इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस पर सियासत करने के आरोप लगा रही है। अलवर से भाजपा सांसद और केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने एक कार्यक्रम में कहा कि अशोक गहलोत के कार्यकाल में वर्ष 2002 में 1968 की लैंड रिफॉर्म रिपोर्ट पेश की गई थी और अब वे इस मामले में ज्ञापन दे रहे हैं। 

इस बीच कुछ भाजपा के नेताओं ने भी अब सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। राजस्थान में भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री राजेंद्र राठौड़ ने बयान दिया है कि सरकार को अरावली के मामले में सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटिशन दायर करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अरावली की परिभाषा को केवल ऊंचाई के तकनीकी पैमाने तक सीमित न किया जाए। निचली पहाड़ियां, रिज संरचनाएं और जुड़े हुए भू-भाग भी पारिस्थितिक रूप से उतने ही महत्वपूर्ण हैं। यदि कानूनी मान्यता का दायरा बहुत संकीर्ण हो गया तो संरक्षण के प्रयास कमजोर पड़ सकते हैं और पिछले तीन दशकों में बनी पर्यावरणीय सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित हो सकती है। सरकार को पुनर्विचार याचिका डालनी चाहिए।

(राजस्थान से सौरभ भट्ट के इनपुट्स के साथ)
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