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Privatisation: बैंकों के निजीकरण पर वित्त मंत्री ने की तरफदारी, एक जवाब जो 'बैंक यूनियंस' को कर गया असहज
डिजिटल ब्यूरो, अमर उजाला
Published by: कीर्तिवर्धन मिश्र
Updated Thu, 06 Nov 2025 02:18 PM IST
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निर्मला सीतारमण, केंद्रीय वित्त मंत्री
- फोटो : ANI
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यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस (यूएफबीयू), जो विभिन्न बैंकों के अधिकारियों और कर्मचारियों की नौ ट्रेड यूनियनों का प्रतिनिधित्व करता है, ने केंद्रीय वित्त मंत्री द्वारा 4 नवंबर को 'दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स', डीयू में आयोजित हीरक जयंती समापन व्याख्यान के दौरान की गई टिप्पणियों पर अपनी गहरी चिंता और कड़ा विरोध दर्ज कराया है। बैंकों के निजीकरण पर वित्त मंत्री की तरफदारी, यह एक जवाब जो 'नाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस' को असहज कर गया। यूएफबीयू ने वित्त मंत्री के इस कथन को स्पष्ट रूप से खारिज किया है। यूनियन का कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, भारत के वित्तीय समावेशन, सामाजिक न्याय ऋण, ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंच और राष्ट्रीय आर्थिक स्थिरता की रीढ़ रहे हैं।
यूएफबीयू के महासचिव रूपम रॉय द्वारा जारी पत्र के मुताबिक, एक छात्र की इस आशंका का जवाब देते हुए कि निजीकरण बैंकिंग सेवाओं को ग्राहकों के एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग तक सीमित कर सकता है, वित्त मंत्री ने इस आशंका को खारिज करते हुए निजीकरण को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। यूएफबीयू ने वित्त मंत्री के इस कथन को स्पष्ट रूप से खारिज किया है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने भारत का कायाकल्प किया है। 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण प्रतीकात्मक नहीं था, बल्कि इसने देश की सामाजिक-आर्थिक नींव को मौलिक रूप से नया रूप दिया। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक समावेशी और समतामूलक राष्ट्रीय विकास का माध्यम बन गए। उपलब्धियां, केवल इसलिए संभव हुईं, क्योंकि बैंक सार्वजनिक संस्थान थे। यूएफबीयू के मुताबिक, राष्ट्रीयकरण से पहले, बैंकिंग सेक्टर, केवल औद्योगिक घरानों और कुलीन व्यावसायिक समूहों को ही सेवाएं प्रदान करता था।
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यूएफबीयू के महासचिव रूपम रॉय द्वारा जारी पत्र के मुताबिक, एक छात्र की इस आशंका का जवाब देते हुए कि निजीकरण बैंकिंग सेवाओं को ग्राहकों के एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग तक सीमित कर सकता है, वित्त मंत्री ने इस आशंका को खारिज करते हुए निजीकरण को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। यूएफबीयू ने वित्त मंत्री के इस कथन को स्पष्ट रूप से खारिज किया है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने भारत का कायाकल्प किया है। 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण प्रतीकात्मक नहीं था, बल्कि इसने देश की सामाजिक-आर्थिक नींव को मौलिक रूप से नया रूप दिया। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक समावेशी और समतामूलक राष्ट्रीय विकास का माध्यम बन गए। उपलब्धियां, केवल इसलिए संभव हुईं, क्योंकि बैंक सार्वजनिक संस्थान थे। यूएफबीयू के मुताबिक, राष्ट्रीयकरण से पहले, बैंकिंग सेक्टर, केवल औद्योगिक घरानों और कुलीन व्यावसायिक समूहों को ही सेवाएं प्रदान करता था।
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ग्रामीण नागरिकों के लिए खोले ऋण के द्वार
सार्वजनिक स्वामित्व ने किसानों, श्रमिकों, छोटे व्यवसायों, महिलाओं, कमज़ोर वर्गों और ग्रामीण नागरिकों के लिए ऋण के द्वार खोल दिए। कुछ हजार शहरी शाखाओं से, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विस्तार लाखों गांवों तक हुआ। निजी बैंकों ने न तो इन क्षेत्रों में सेवा देने का प्रयास किया और न ही ऐसा करने का इरादा रखते हैं, क्योंकि ग्रामीण बैंकिंग "कम लाभ" वाली है। प्राथमिकता क्षेत्र ऋण, कृषि ऋण, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति ऋण योजनाएं, स्वयं सहायता समूह, ग्रामीण स्व-रोजगार, छात्र ऋण, एमएसएमई सहायता और कल्याण से जुड़ी बैंकिंग केवल सार्वजनिक नियंत्रण में ही व्यवहार्य हो पाई। मंदी, आर्थिक झटकों और कोविड-19 महामारी के दौरान, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक पतन या ग्राहक शोषण के डर के बिना, राष्ट्र के साथ मजबूती से खड़े रहे।
निजीकरण के दुष्प्रभाव और जोखिम
यूएफबीयू के अनुसार, निजीकरण का महिमामंडन करने के प्रयास जमीनी हकीकत और इतिहास के सबक को नजरअंदाज करते हैं। निजी बैंक केवल उन्हीं जगहों पर ऋण देते हैं, जहां मुनाफा ज्यादा होता है। वे घाटे में चल रही शाखाओं को बंद कर देते हैं, शुल्क बढ़ा देते हैं, काम आउटसोर्स कर देते हैं और कमजोर वर्गों की उपेक्षा करते हैं। ग्रामीण और अर्ध-शहरी भारत को वित्तीय बहिष्कार का सामना करना पड़ेगा। जन-धन, प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) हस्तांतरण, पेंशन और मनरेगा भुगतान जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दायित्व ज़्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा पूरे किए जाते हैं, निजी बैंकों द्वारा नहीं। निजीकरण से कर्मचारियों की संख्या में कमी, संविदात्मक नौकरियां, रोजगार सुरक्षा का ह्रास, आरक्षण लाभों में कमी और ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमले होते हैं।
सार्वजनिक स्वामित्व ने किसानों, श्रमिकों, छोटे व्यवसायों, महिलाओं, कमज़ोर वर्गों और ग्रामीण नागरिकों के लिए ऋण के द्वार खोल दिए। कुछ हजार शहरी शाखाओं से, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विस्तार लाखों गांवों तक हुआ। निजी बैंकों ने न तो इन क्षेत्रों में सेवा देने का प्रयास किया और न ही ऐसा करने का इरादा रखते हैं, क्योंकि ग्रामीण बैंकिंग "कम लाभ" वाली है। प्राथमिकता क्षेत्र ऋण, कृषि ऋण, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति ऋण योजनाएं, स्वयं सहायता समूह, ग्रामीण स्व-रोजगार, छात्र ऋण, एमएसएमई सहायता और कल्याण से जुड़ी बैंकिंग केवल सार्वजनिक नियंत्रण में ही व्यवहार्य हो पाई। मंदी, आर्थिक झटकों और कोविड-19 महामारी के दौरान, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक पतन या ग्राहक शोषण के डर के बिना, राष्ट्र के साथ मजबूती से खड़े रहे।
निजीकरण के दुष्प्रभाव और जोखिम
यूएफबीयू के अनुसार, निजीकरण का महिमामंडन करने के प्रयास जमीनी हकीकत और इतिहास के सबक को नजरअंदाज करते हैं। निजी बैंक केवल उन्हीं जगहों पर ऋण देते हैं, जहां मुनाफा ज्यादा होता है। वे घाटे में चल रही शाखाओं को बंद कर देते हैं, शुल्क बढ़ा देते हैं, काम आउटसोर्स कर देते हैं और कमजोर वर्गों की उपेक्षा करते हैं। ग्रामीण और अर्ध-शहरी भारत को वित्तीय बहिष्कार का सामना करना पड़ेगा। जन-धन, प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) हस्तांतरण, पेंशन और मनरेगा भुगतान जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दायित्व ज़्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा पूरे किए जाते हैं, निजी बैंकों द्वारा नहीं। निजीकरण से कर्मचारियों की संख्या में कमी, संविदात्मक नौकरियां, रोजगार सुरक्षा का ह्रास, आरक्षण लाभों में कमी और ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमले होते हैं।
निजीकृत व्यवस्था में कौन करेगा लोगों की रक्षा
यूएफबीयू के महासचिव रूपम रॉय ने कहा, भारत ने बार-बार निजी बैंकों के पतन को देखा है। यस बैंक, ग्लोबल ट्रस्ट बैंक, लक्ष्मी विलास बैंक, और अन्य निजी संस्थाओं में बड़ी प्रशासनिक विफलताएं देखने को मिली हैं। हर मामले में, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और सरकार, जमाकर्ताओं का समर्थन करते हैं। पूरी तरह से निजीकृत व्यवस्था में, लोगों की रक्षा कौन करेगा। सार्वजनिक धन से निर्मित राष्ट्रीय संपत्तियां अंततः निजी कॉर्पोरेट हितों को सौंप दी जाएंगी, जिससे सार्वजनिक धन निजी लाभ में स्थानांतरित हो जाएगा। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक संसद, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) और भारत की जनता के प्रति जवाबदेह हैं। निजी बैंक केवल शेयरधारकों के प्रति जवाबदेह हैं। वित्तीय समावेशन सार्वजनिक स्वामित्व के कारण विफल नहीं हुआ, बल्कि कॉर्पोरेट चूक के कारण विफल हुआ, जिससे एनपीए संकट पैदा हुआ। भारी एनपीए, कॉर्पोरेट चूककर्ताओं के कारण उत्पन्न हुआ, न कि किसानों, छोटे कर्जदारों या व्यक्तियों के कारण।
कैसे उत्पन्न हुई दोहरी बैलेंस शीट समस्या
"दोहरी बैलेंस शीट समस्या" उदारीकृत कॉर्पोरेट ऋण संस्कृति से उत्पन्न हुई है, न कि सार्वजनिक बैंकिंग विचारधारा से। राष्ट्रीयकरण को दोष देना ऐतिहासिक और आर्थिक रूप से गलत है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी, 2008 के वित्तीय संकट के बाद, कई देशों ने बैंकिंग पर मजबूत सार्वजनिक नियंत्रण बहाल किया। भारत को वैश्विक अनुभव से सीखना चाहिए, न कि उनकी गलतियों को दोहराना चाहिए। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, केवल वाणिज्यिक बैंक नहीं हैं। वे जनोपयोगी संस्थाएं हैं, जो आम नागरिकों के कल्याणकारी भुगतान, पेंशन, सब्सिडी, बचत और वित्तीय सुरक्षा का प्रबंधन करती हैं।
यूएफबीयू के महासचिव रूपम रॉय ने कहा, भारत ने बार-बार निजी बैंकों के पतन को देखा है। यस बैंक, ग्लोबल ट्रस्ट बैंक, लक्ष्मी विलास बैंक, और अन्य निजी संस्थाओं में बड़ी प्रशासनिक विफलताएं देखने को मिली हैं। हर मामले में, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और सरकार, जमाकर्ताओं का समर्थन करते हैं। पूरी तरह से निजीकृत व्यवस्था में, लोगों की रक्षा कौन करेगा। सार्वजनिक धन से निर्मित राष्ट्रीय संपत्तियां अंततः निजी कॉर्पोरेट हितों को सौंप दी जाएंगी, जिससे सार्वजनिक धन निजी लाभ में स्थानांतरित हो जाएगा। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक संसद, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) और भारत की जनता के प्रति जवाबदेह हैं। निजी बैंक केवल शेयरधारकों के प्रति जवाबदेह हैं। वित्तीय समावेशन सार्वजनिक स्वामित्व के कारण विफल नहीं हुआ, बल्कि कॉर्पोरेट चूक के कारण विफल हुआ, जिससे एनपीए संकट पैदा हुआ। भारी एनपीए, कॉर्पोरेट चूककर्ताओं के कारण उत्पन्न हुआ, न कि किसानों, छोटे कर्जदारों या व्यक्तियों के कारण।
कैसे उत्पन्न हुई दोहरी बैलेंस शीट समस्या
"दोहरी बैलेंस शीट समस्या" उदारीकृत कॉर्पोरेट ऋण संस्कृति से उत्पन्न हुई है, न कि सार्वजनिक बैंकिंग विचारधारा से। राष्ट्रीयकरण को दोष देना ऐतिहासिक और आर्थिक रूप से गलत है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी, 2008 के वित्तीय संकट के बाद, कई देशों ने बैंकिंग पर मजबूत सार्वजनिक नियंत्रण बहाल किया। भारत को वैश्विक अनुभव से सीखना चाहिए, न कि उनकी गलतियों को दोहराना चाहिए। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, केवल वाणिज्यिक बैंक नहीं हैं। वे जनोपयोगी संस्थाएं हैं, जो आम नागरिकों के कल्याणकारी भुगतान, पेंशन, सब्सिडी, बचत और वित्तीय सुरक्षा का प्रबंधन करती हैं।
आज की बैंकिंग सफलता की वास्तविकता
यदि आज भारतीय बैंकिंग मजबूत है, तो इसका कारण सार्वजनिक स्वामित्व में निर्मित लचीलापन है। जन धन योजना की सफलता, 90% से अधिक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा कार्यान्वित की गई है। कोविड-19 के दौरान प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) हस्तांतरण, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का बुनियादी ढाँंचा, इसका अहम योगदान रहा है। प्राथमिकता वाले ऋण और सामाजिक बैंकिंग व्यवस्था, लगभग पूरी तरह से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा संचालित है। ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंच और वित्तीय साक्षरता, ये भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा संचालित है। दुनिया के किसी भी देश ने निजीकृत बैंकों के माध्यम से सार्वभौमिक बैंकिंग हासिल नहीं की है। यह कहना कि निजीकरण अभी भी समावेशन सुनिश्चित करेगा, किसी भी प्रमाण द्वारा समर्थित नहीं है।
निजीकरण "व्यावसायीकरण" नहीं है
व्यावसायीकरण को प्राप्त करने के लिए इन माध्यमों की आवश्यकता पड़ती है। पूंजी निवेश, बेहतर शासन, प्रौद्योगिकी, जवाबदेही, मानव संसाधन विकास, लेकिन लेकिन इनमें से किसी के लिए भी निजीकरण की आवश्यकता नहीं है। निजीकरण केवल सार्वजनिक धन का नियंत्रण, निजी हाथों में स्थानांतरित करता है। यूएफबीयू ने दृढ़ता से यह बात कही है कि निजीकरण राष्ट्रीय और सामाजिक हित को कमजोर करता है। इससे वित्तीय समावेशन खतरे में पड़ता है। निजीकरण, नौकरी की सुरक्षा और सार्वजनिक धन के लिए ख़तरा है। निजीकरण से कॉर्पोरेट को फ़ायदा होता है, नागरिकों को नहीं। बैंकिंग एक सामाजिक और संवैधानिक ज़िम्मेदारी है, न कि मुनाफा कमाने का व्यवसाय।
यदि आज भारतीय बैंकिंग मजबूत है, तो इसका कारण सार्वजनिक स्वामित्व में निर्मित लचीलापन है। जन धन योजना की सफलता, 90% से अधिक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा कार्यान्वित की गई है। कोविड-19 के दौरान प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) हस्तांतरण, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का बुनियादी ढाँंचा, इसका अहम योगदान रहा है। प्राथमिकता वाले ऋण और सामाजिक बैंकिंग व्यवस्था, लगभग पूरी तरह से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा संचालित है। ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंच और वित्तीय साक्षरता, ये भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा संचालित है। दुनिया के किसी भी देश ने निजीकृत बैंकों के माध्यम से सार्वभौमिक बैंकिंग हासिल नहीं की है। यह कहना कि निजीकरण अभी भी समावेशन सुनिश्चित करेगा, किसी भी प्रमाण द्वारा समर्थित नहीं है।
निजीकरण "व्यावसायीकरण" नहीं है
व्यावसायीकरण को प्राप्त करने के लिए इन माध्यमों की आवश्यकता पड़ती है। पूंजी निवेश, बेहतर शासन, प्रौद्योगिकी, जवाबदेही, मानव संसाधन विकास, लेकिन लेकिन इनमें से किसी के लिए भी निजीकरण की आवश्यकता नहीं है। निजीकरण केवल सार्वजनिक धन का नियंत्रण, निजी हाथों में स्थानांतरित करता है। यूएफबीयू ने दृढ़ता से यह बात कही है कि निजीकरण राष्ट्रीय और सामाजिक हित को कमजोर करता है। इससे वित्तीय समावेशन खतरे में पड़ता है। निजीकरण, नौकरी की सुरक्षा और सार्वजनिक धन के लिए ख़तरा है। निजीकरण से कॉर्पोरेट को फ़ायदा होता है, नागरिकों को नहीं। बैंकिंग एक सामाजिक और संवैधानिक ज़िम्मेदारी है, न कि मुनाफा कमाने का व्यवसाय।
ये हैं 'यूएफबीयू' की प्रमुख मांगें
भारत सरकार की ओर से स्पष्ट आश्वासन कि किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक का निजीकरण नहीं किया जाएगा। निजीकरण के बिना, पूंजी सहायता, तकनीकी आधुनिकीकरण और पारदर्शी शासन के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को मजबूत बनाना। जमाकर्ताओं, कर्मचारियों और आम नागरिकों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले किसी भी निर्णय से पहले सार्वजनिक परामर्श और संसदीय बहस। यूएफबीयू की प्रतिबद्धता है कि हम नागरिकों, कर्मचारियों, किसानों, श्रमिकों, पेंशनभोगियों और सभी हितधारकों के साथ खड़े हैं, जो ये मानते हैं कि बैंक भारत के लोगों के हैं, न कि निजी मुनाफ़ाखोरों के। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक राष्ट्रीय संपत्ति हैं। उन्हें बिकने नहीं दिया जाएगा।
भारत सरकार की ओर से स्पष्ट आश्वासन कि किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक का निजीकरण नहीं किया जाएगा। निजीकरण के बिना, पूंजी सहायता, तकनीकी आधुनिकीकरण और पारदर्शी शासन के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को मजबूत बनाना। जमाकर्ताओं, कर्मचारियों और आम नागरिकों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले किसी भी निर्णय से पहले सार्वजनिक परामर्श और संसदीय बहस। यूएफबीयू की प्रतिबद्धता है कि हम नागरिकों, कर्मचारियों, किसानों, श्रमिकों, पेंशनभोगियों और सभी हितधारकों के साथ खड़े हैं, जो ये मानते हैं कि बैंक भारत के लोगों के हैं, न कि निजी मुनाफ़ाखोरों के। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक राष्ट्रीय संपत्ति हैं। उन्हें बिकने नहीं दिया जाएगा।