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34 साल बाद न्याय: होटल कर्मचारी को बकाया वेतन के भुगतान का आदेश, फैसला सुनने के लिए जीवित नहीं व्यक्ति
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली।
Published by: निर्मल कांत
Updated Tue, 30 Dec 2025 05:48 PM IST
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सार
सुप्रीम कोर्ट ने एक होटल कर्मचारी को नौकरी से निकाले जाने के तीन दशक बाद 50 फीसदी बकाया वेतन देने का आदेश दिया। लेकिन कर्मचारी यह फैसला देखने तक जीवित नहीं रहा। कोर्ट ने कहा कि सजा के कारण कलंक जीवनभर रह सकता है और अस्थायी काम करना बकाया वेतन रोकने का आधार नहीं बनता।
सुप्रीम कोर्ट
- फोटो : एएनआई (फाइल)
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विस्तार
सुप्रीम कोर्ट ने एक होटल कर्मचारी को नौकरी से निकाले जाने के तीन दशक से अधिक समय बाद 50 फीसदी बकाया वेतन देने का आदेश दिया। दुर्भाग्यवश होटल कर्मचारी यह फैसला देखने तक जीवित नहीं रहा। कर्मचारी को कथित अनुचित आचरण के लिए नौकरी से निकाल दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
कर्मचारी के वकीलों के जरिये दायर याचिका पर न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने सुनवाई की। इस याचिका में राजस्थान उच्च न्यायालय की खंडपीठ के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें कर्मचारी को दिए गए 50 फीसदी बकाया वेतन को रद्द कर दिया था।
ये भी पढ़ें: सुप्रीम कोर्ट ने पेश होने वाले वकीलों के लिए जारी की एसओपी, तेज होगी न्याय की प्रक्रिया
खंडपीठ के आदेश को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, एक व्यक्ति के लिए सजा अपने आप में कलंक लेकर आती है, जो फिर से रोजगार पाने में बाधा डालती है। ऐसी परिस्थितियों में अगर हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश ने बकाया वेतन को 50 फीसदी तक घटाया, तो उसके आदेश में दखल करने की जरूरत नहीं थी।
मामला क्या था?
यह मामला 1978 का है, जब दिनेश चंद्र शर्मा ने एक होटल में रूम अटेंडेंट के रूप में काम शुरू किया था। जुलाई 1991 में उन पर अनुचित आचरण के आरोप लगाकर उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया था। इसके बाद यह मामला लेबर कोर्ट में पहुंचा। कोर्ट ने पाया कि होटल प्रबंधन की जांच अनुचित थी। कोर्ट में आरोप साबित करने का मौका मिलने के बावजूद प्रबंधन कोई सबूत पेश करने में असफल रहा। इसके परिणामस्वरूप, दिसंबर 2015 में लेबर कोर्ट ने शर्मा को पूरा बकाया वेतन के साथ फिर से नौकरी पर रखने का आदेश दिया।
ये भी पढ़ें: Battle Of Galwan: सलमान खान की फिल्म के टीजर ने चीन में मचाई खलबली, तथ्यों से छेड़छाड़ का लगाया आरोप
जब राजस्थान उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने बकाया वेतन को 50 फीसदी तक घटाकर आदेश में बदलाव किया, तो इसके बाद खंडपीठ ने इस राहत को पूरी तरह रद्द कर दिया। खंडपीठ का तर्क था कि कर्मचारी यह साबित नहीं कर पाया कि इस बीच वह लाभकारी रोजगार में नहीं था।
शीर्ष कोर्ट ने कहा कि किसी कर्मचारी के लिए यह साबित करना कि वह लाभकारी रोजगार में नहीं था, कोई 'अटूट नियम' नहीं है और प्रत्येक मामले को उसके अपने तथ्यों के आधार पर देखा जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि कर्मचारी की ओर से दिया गया हलफनामा जिसमें कहा गया कि इस बीच वह लाभकारी रोजगार में नहीं थे, उसका कोई विरोध या खंडन सबूतों के माध्यम से नहीं किया गया।
कोर्ट ने कहा कि उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने मामले के तथ्यों के अनुसार सही और न्यायपूर्ण फैसला दिया। इसका कारण यह है कि कर्मचारी लंबे समय तक सेवा दे चुका था और किसी सरकारी विभाग या सार्वजनिक क्षेत्र की संस्था में लाभकारी रोजगार पाना उम्र की सीमा पार करने के बाद संभव नहीं था। कोर्ट ने यह भी कहा कि जीविकोपार्जन के लिए अस्थायी या छोटे-मोटे काम करना बकाया वेतन रोकने का कारण नहीं बन सकता, खासकर जब सेवा की समाप्ति सजा के रूप में हुई हो।
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सुप्रीम कोर्ट का फैसला
कर्मचारी के वकीलों के जरिये दायर याचिका पर न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने सुनवाई की। इस याचिका में राजस्थान उच्च न्यायालय की खंडपीठ के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें कर्मचारी को दिए गए 50 फीसदी बकाया वेतन को रद्द कर दिया था।
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खंडपीठ के आदेश को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, एक व्यक्ति के लिए सजा अपने आप में कलंक लेकर आती है, जो फिर से रोजगार पाने में बाधा डालती है। ऐसी परिस्थितियों में अगर हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश ने बकाया वेतन को 50 फीसदी तक घटाया, तो उसके आदेश में दखल करने की जरूरत नहीं थी।
मामला क्या था?
यह मामला 1978 का है, जब दिनेश चंद्र शर्मा ने एक होटल में रूम अटेंडेंट के रूप में काम शुरू किया था। जुलाई 1991 में उन पर अनुचित आचरण के आरोप लगाकर उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया था। इसके बाद यह मामला लेबर कोर्ट में पहुंचा। कोर्ट ने पाया कि होटल प्रबंधन की जांच अनुचित थी। कोर्ट में आरोप साबित करने का मौका मिलने के बावजूद प्रबंधन कोई सबूत पेश करने में असफल रहा। इसके परिणामस्वरूप, दिसंबर 2015 में लेबर कोर्ट ने शर्मा को पूरा बकाया वेतन के साथ फिर से नौकरी पर रखने का आदेश दिया।
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जब राजस्थान उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने बकाया वेतन को 50 फीसदी तक घटाकर आदेश में बदलाव किया, तो इसके बाद खंडपीठ ने इस राहत को पूरी तरह रद्द कर दिया। खंडपीठ का तर्क था कि कर्मचारी यह साबित नहीं कर पाया कि इस बीच वह लाभकारी रोजगार में नहीं था।
शीर्ष कोर्ट ने कहा कि किसी कर्मचारी के लिए यह साबित करना कि वह लाभकारी रोजगार में नहीं था, कोई 'अटूट नियम' नहीं है और प्रत्येक मामले को उसके अपने तथ्यों के आधार पर देखा जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि कर्मचारी की ओर से दिया गया हलफनामा जिसमें कहा गया कि इस बीच वह लाभकारी रोजगार में नहीं थे, उसका कोई विरोध या खंडन सबूतों के माध्यम से नहीं किया गया।
कोर्ट ने कहा कि उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने मामले के तथ्यों के अनुसार सही और न्यायपूर्ण फैसला दिया। इसका कारण यह है कि कर्मचारी लंबे समय तक सेवा दे चुका था और किसी सरकारी विभाग या सार्वजनिक क्षेत्र की संस्था में लाभकारी रोजगार पाना उम्र की सीमा पार करने के बाद संभव नहीं था। कोर्ट ने यह भी कहा कि जीविकोपार्जन के लिए अस्थायी या छोटे-मोटे काम करना बकाया वेतन रोकने का कारण नहीं बन सकता, खासकर जब सेवा की समाप्ति सजा के रूप में हुई हो।