Devavrat Rekhe: क्या है दंडक्रम पारायण, जिसका 200 साल बाद पाठ हुआ, इसे क्यों कहा जाता है वैदिक पाठक का मुकुट?
काशी की पवित्र धरती और 19 साल का 'वेदमूर्ति' युवक। कर्म कुछ ऐसा अनोखा और विशेष, जिसने पूरी दुनिया का ध्यान खींच लिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी प्रशंसा करने से खुद को रोक नहीं पाए। वाराणसी स्थित वल्लभराम शालिग्राम सांगवेद विद्यालय में जिस दंडक्रम परायण को पूरा कर एक युवक ने इतिहास रच दिया, उससे जुड़ी वैदिक परंपरा भी बेहद दिलचस्प है।
विस्तार
देवव्रत महेश रेखे। आयु सिर्फ 19 वर्ष... लेकिन जो किया, वो सदियों तक याद रखा जाएगा। यहां बात एक ऐसे दुर्लभ कीर्तिमान की बात हो रही है, जिसे कर पाना तो दूर, जिसे हासिल करना भी असंभव-सा लगता है। यह उपलब्धि है- दंडक्रम पारायण की। वेदों की पवित्र परंपरा से निकला एक ऐसा कठिन तप, जो गहरी तपस्या और स्मरण शक्ति से ही संभव हो पाता है। देवव्रत महेश रेखे जैसे अद्भुत साधक ने यह कर दिखाया। भारत के सनातन इतिहास में 200 साल बाद ऐसा हुआ। अंतिम बार इस कठिन वैदिक पाठ को 200 वर्ष पहले महाराष्ट्र के नासिक में वेदमूर्ति नारायण शास्त्री ने पूरा किया था। यह दंडक्रम पारायण शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा से निकला है। जानिए इसके बारे में...
यजुर्वेद क्या है?
हिंदू धर्म में चार वेद हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ये केवल धर्मग्रंथ नहीं, बल्कि मानव जीवन के हर पहलू यानी आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक का ज्ञान हैं। इन्हें श्रुति कहा जाता है, यानी वो ज्ञान जो ऋषियों ने तपस्या और ध्यान के माध्यम से अनुभव किया और मानवता तक पहुंचाया। ऋग्वेद चारों वेदों में सबसे प्राचीन है। इसके 10 मंडलों में 1028 सूक्त हैं, जो देवताओं की स्तुति में रचे गए हैं। सामवेद मंत्रों का संगीत वेद है। इसमें ऋग्वेद के मंत्रों को स्वरबद्ध किया गया है, ताकि यज्ञ में उनका गायन संभव हो सके। अथर्व वेद लोकजीवन का वेद है। ...और यजुर्वेद यज्ञ और पूजा कर्मों का वेद है। इसमें मंत्रों, विधि और अनुशासन का वर्णन है, ताकि कर्म शुद्ध और व्यवस्थित हों। यजुर्वेद के दो मुख्य शाखाएं हैं- शुक्ल (श्वेत) और कृष्ण।
माध्यन्दिन क्या है?
माध्यन्दिन और काण्व, ये शुक्ल यजुर्वेद की दो प्रमुख शाखाएं हैं। माध्यन्दिन शाखा में लगभग 40 अध्याय, 1975 मंत्र और और 303 अनुवाक हैं। ये यज्ञ और अनुष्ठानों के लिए विशेष रूप से प्रयोग होते हैं। माध्यन्दिन शाखा में ऋग्वेद के मंत्र पद्य मंत्र हैं। माध्यन्दिन संहिता उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रतिष्ठित हुई। महर्षि वैशम्पायन से यजुर्वेद का अध्ययन महर्षि याज्ञवल्क्य आदि ने किया। महर्षि याज्ञवल्क्य से महर्षि मध्यन्दिन ने इसे प्राप्त किया। इसी कारण यजुर्वेद का परनाम 'माध्यन्दिन संहिता' पड़ा। सम्पूर्ण माध्यन्दिन संहिता में 40 अध्याय, 1975 मंत्र हैं।
दंडक्रम पारायण क्या है?
इसे जानने के लिए दंडक्रम पारायण का शाब्दिक अर्थ समझिए। 'दंड' यानी अनुशासन और 'क्रम' या कर्म यानी क्रियाएं। इसका शाब्दिक अर्थ है- वैदिक कर्मों का अनुशासनबद्ध पाठ। कहीं-कहीं इसका नाम दंडक्रम न होकर दंड कर्म भी उल्लेखित है। इसके पारायण की शुरुआत इन्द्र, अग्नि, सोम, वायु, पृथ्वी आदि देवताओं के आह्वान मंत्रों से होती है।
यह कठिन साधना क्यों?
दंडक्रम पारायण सबसे कठिन वैदिक साधना है। यह वेदों की उच्चतम वैदिक साधना मानी जाती है। इसमें केवल मंत्रों का समान्य पाठ नहीं होता, बल्कि मंत्रों का विशिष्ट शैली में अनुलोम-विलोम के रूप में पारायण होता है। यानी मंत्रों को उल्टा और सीधा साथ-साथ पढ़ना होता है। नकारात्मक शक्तियों का निवारण करना और जीवन की बाधाओं को दूर करना इसका उद्देश्य होता है।
देवव्रत महेश रेखे की उपलब्धि असाधारण क्यों?
दंडक्रम पारायण पूरा करने वाले को वेदमूर्ति की उपाधि दी जाती है। 1975 मंत्रों को उल्टा-सीधा याद रखना एक अत्यंत कठिन मानसिक साधना है। इसमें मानसिक शक्ति और स्मरण क्षमता जरूरी होती है। इसके पाठ से इन दोनों शक्तियों का विस्तार भी होता है। यह विधि वेदों की शुद्धता और परंपरा को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का काम करती है। इसी से वैदिक परंपरा का संरक्षण होता है। साधक को यह 50 दिनों तक लगातार और बिना किसी व्यवधान के पूरा करना पड़ता है। यह एक कठोर तपस्या के समान है। इसलिए इसे वैदिक पाठ का 'मुकुट' माना जाता है। इसमें अनेक वैदिक ऋचाएं और पवित्र शब्दों का बिना किसी चूक के उच्चारण शामिल है। दंडक्रम में पारायण करने पर मंत्रों का दो लाख से ज्यादा बार पारायण होता है।
महाराष्ट्र के अहिल्या नगर के 19 वर्षीय देवव्रत महेश रेखे ने शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा का दंडक्रम पारायण पूरे 50 दिनों तक लगातार किया। उन्होंने इसे विशिष्ट शैली में उल्टा और सीधा पढ़ते हुए पूरा किया। इस कठिन साधना को पूरा कर उन्होंने वेदमूर्ति की उपाधि हासिल की। इस उपलब्धि की तुलना केवल 200 साल पहले नासिक के वेदमूर्ति नारायण शास्त्र देव से की जा सकती है।
वेदमूर्ति वे महान विद्वान होते हैं, जिन्हें वेदों का संपूर्ण ज्ञान होता है। वे न केवल वेदों के ज्ञाता होते हैं, बल्कि वेदों की परंपरा और ज्ञान की रक्षा करने वाले संरक्षक भी होते हैं। देवव्रत महेश रेखे ने यह उपाधि पाकर यह साबित किया है कि युवा पीढ़ी में भी वैदिक ज्ञान और साधना का अद्भुत समर्पण संभव है।
माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता के 1975 मंत्रों में आखिर है क्या?
इसके प्रथम अध्याय की शुरुआत पलाश के पेड़ की एक शाखा काटने और उसे हवन के लिए उपयोग में लेने की प्रक्रिया के साथ होती है। पहले ही मंत्र में अन्न की प्राप्ति करने, तेजस्वी बनने, उन्नतिशील शक्तियां प्राप्त करने, मातृभूमि के रक्षक बनने और सज्जनों की संख्या में वृद्धि करने का आह्वान है।
किस अध्याय में है जीवन दर्शन का सार?
शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा का 40वां अध्याय विशुद्ध ज्ञान-परक है। उसका नाम 'ईशावास्योपनिषद' है। इसमें 17 मंत्र हैं, जो स्मरण, सामर्थ्य, अनुशासन, आत्म चेतना और कर्म पर जोर देते हैं। जानिए इन मंत्रों का सार...
1. ईश्वर ने जो सौंपा, उसी का उपयोग करें
इस सृष्टि में जो कुछ भी जड़ अथवा चेतन है, वह सब ईश्वर के अधिकार में है। केवल उसके द्वारा छोड़े गए और सौंपे गए का ही उपभोग करें। अधिक का लालच न करें। क्योंकि यह सब कुछ किसका है? किसी व्यक्ति का नहीं केवल 'ईश' का ही है।
2. अनुशासन से विकार नहीं आता
कर्म करते हुए पूर्णायु की कामना करें। अनुशासित कर्म मनुष्य को विकारग्रस्त नहीं करते। विकार मुक्त जीवन जीने के अतिरिक्त परम कल्याण का और कोई अन्यमार्ग नहीं है।
3. अनुशासन का उल्लंघन करने पर क्या होता है
अनुशासन का उल्लंघन करने वाले लोग 'असुर्य' यानी केवल शरीर एवं इन्द्रियों की शक्ति पर निर्भर रहने और सद्-विवेक की उपेक्षा करने वाले नामों से जाने जाते हैं। वे जीवनभर गहन अंधकार और अज्ञान से घिरे रहते हैं। आत्मा यानी आत्म चेतना के निर्देशों का हनन करने वाले लोग शरीर छूटने पर भी वैसे ही अंधकारयुक्त लोकों में जाते हैं।
4. स्मरण, सामर्थ्य और कर्म
यह जीवन यानी अस्तित्व वायु, अग्नि आदि पंचभूतों और आत्म चेतना के संयोग से बना है। शरीर तो अंततः भस्म हो जाने वाला है। इसलिए परमात्मा का स्मरण करो, अपने सामर्थ्य का स्मरण करो और जो कर्म कर चुके हो, उनका स्मरण करो।
5. सत्य का स्वरूप
सोने के चमकदार लुभावने जैसे पात्र से सत्य का स्वरूप ढंका हुआ है। जब आवरण हटता है, तब पता लगता है कि वह जो आदित्यरूप पुरुष है, वही आत्मरूप में है। 'ॐ' ही ब्रह्म रूप में व्याप्त है।
(नोट: इस समाचार में उल्लेखित जानकारी यजुर्वेद संहिता पर प्रकाशित पुस्तकों और वेदमूर्तियों से मिले मार्गदर्शन पर आधारित है।)