Vijay Diwas: कारगिल विजय ने सिखाया सामने से युद्ध करने का कौशल, अपनी चौकियों को खाली न छोड़ने का सबक
सेवानिवृत्त मेजर उमाकांत शर्मा बताते हैं कि यह युद्ध हमारे लिए हैरान कर देने वाला था। हमारे 90 किलोमीटर क्षेत्र में पाकिस्तान की सेना पक्के बंकर बनाकर कब्जा करके बैठ गई थी। इस युद्ध की सबसे बड़ी चुनौती सामने से लड़ने की थी। दूसरा कोई विकल्प सेना के पास नहीं था।
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कारगिल में वर्ष 1999 में भारत पर थोपे गए कारगिल युद्ध में जीत की आज रजत जयंती है। युद्ध से भारत और भारतीय सेना को दो बड़े सबक मिले। पहला अपनी चौकियों को किसी भी मौसम में खाली नहीं छोड़ने और दूसरा दुर्गम और पहाड़ों की चोटियों पर भी लड़ने के लिए तैयारी रखना। इस युद्ध से सेना में अचानक हुए हमले में दुश्मन को जवाब देने का कौशल भी विकसित हुआ।
सेवानिवृत्त मेजर उमाकांत शर्मा बताते हैं कि यह युद्ध हमारे लिए हैरान कर देने वाला था। हमारे 90 किलोमीटर क्षेत्र में पाकिस्तान की सेना पक्के बंकर बनाकर कब्जा करके बैठ गई थी। इस युद्ध की सबसे बड़ी चुनौती सामने से लड़ने की थी। दूसरा कोई विकल्प सेना के पास नहीं था। इस युद्ध ने सेना के अफसरों में तुरंत बड़े निर्णय लेने की क्षमता विकसित की। युद्ध के बाद भारतीय सेना ने कारगिल की पहाड़ी चोटियों पर अपने पक्की चौकियां विकसित की हैं और हर मौसम में देश की सीमा की रक्षा के लिए जवान तैनात रहते हैं।
विजयपथ की दीवार पर सूचीबद्ध 450 बलिदानियों में से 52 जम्मू-कश्मीर से हैं। उनमें से 20 लद्दाख के बौद्ध और नौ मुस्लिम हैं। एक स्थानीय बुजुर्ग ने पहचान जाहिर न करते हुए बताया कि युद्ध के बाद विश्वास की कमी को काफी हद तक पूरा कर लिया गया है। उन्हें हमारी वफादारी पर आशंका थी लेकिन युद्ध खत्म होने के बाद चीजों का आकलन किया तो बदलाव आया। युद्ध के तुरंत बाद कई युवाओं को सेना में नियुक्त किया गया। इस समय मेरे गांव से ही 50 सैनिक हैं, जो पहले अकल्पनीय था।
कारगिल युद्ध में सेना ने अपने कई बहादुर जवानों को खोया। सैनिकों के बलिदान की बदौलत तब और आज के कारगिल में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है। युद्ध के समय कारगिल पिछ़ड़ा क्षेत्र था। यहां पहुंच पाना मुश्किल काम था। युद्ध के बाद देश के सीमाओं को और मजबूत करने के लिए यहां विकास हुआ।
एक युद्ध से किसी वीरान और पिछड़े इलाके को विश्व स्तरीय पहचान मिलना खुद में बिरला उदाहरण है। इन पच्चीस वर्षों में केवल कारगिल ही नहीं बल्कि समूचे लद्दाख का सुरक्षा की दृष्टि से चौतरफा विकास हुआ है। दुश्मन की किसी भी हरकत का जवाब देने के लिहाज से सरकार ने इस क्षेत्र में हर सुविधा उपलब्ध करवाई है। सीमा तक सड़क से लेकर होटल, बैंक, अस्पताल, स्कूल-कॉलेज, पानी, बिजली की सुविधा मिली है।
श्रीनगर और लेह के बीच द्रास मुख्य पड़ाव। साइबेरिया के बाद यह दुनिया की दूसरी सबसे ठंडी जगह है। यहां तापमान शून्य से 40 डिग्री सेल्सियस तक कम रहता है। तोलोलिंग की तलहटी में 1999 में 84 दिन के संघर्ष में प्रसिद्ध हुई दो चोटियों के बीच सेना ने कारगिल युद्ध स्मारक बनाया है। स्मारक में एक संग्रहालय और एक बलुआ पत्थर की दीवार है जिस पर बलिदानी सैनिकों के नाम लिखे हैं। ऊपर एक बड़ा सा तिरंगा कारगिल विजय के प्रतीक के रूप में लहराता है। यहां से टाइगर हिल और तोलोलिंग दोनों दिखाई देते हैं। वर्ष 2023 में श्रीनगर-लेह मार्ग खुला होने के चार महीने में युद्ध स्मारक पर लगभग 90,000 आगंतुक आए।