तीन, दो, एक...। काउंटडाउन खत्म होने पर जैसे ही निर्भया के दोषियों को फांसी के फंदे से लटकाया गया, तिहाड़ जेल के आसपास का इलाका निर्भया जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद और भारत माता की जय के नारे से गूंजने लगा। देर रात से ही सड़कों पर इंतजार कर रहे लोग हाथों में तिरंगा और जुबां पर निर्भया जिंदाबाद के नारे के साथ इस घड़ी का इंतजार कर रहे थे।
Nirbhaya Case: 5:30 बजते ही निर्भया जिंदाबाद के नारे से गूंज उठा तिहाड़, खुशी से नम हुईं आंखें
सात साल, तीन महीने तीन दिन बाद जैसे ही निर्भया के गुनहगारों को शुक्रवार सुबह 5:30 बजे फांसी के फंदे से लटकाया गया, तिहाड़ के बाहर की सड़क पर जश्न का माहौल दिखा। दिल दहलाने वाली घटना को याद करते हुए कई आंखें भी नम हो गईं। फांसी की सजा होते ही देखते देखते तिहाड़ जेल के बाहर दोनों तरफ की सड़क के किनारे लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा। पास से गुजरते वाहनों को रोककर भी वहां से गुजरने वाले हर शख्स ने लंबी सांसें भरते हुए कहा कि अच्छा हुआ, काफी पहले फांसी होनी चाहिए थी।
जेल के बाहर मौजूद दिव्या ने कहा कि न्यायालय में देर है अंधेर नहीं। दरिंदो को देर से ही फांसी हुई, लेकिन निर्भया को न्याय मिला। हमें कानून पर पूरा भरोसा है। निर्भया के दोषियों को फांसी न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश के लिए एक संदेश है ताकि ऐसी वारदात को दोबारा अंजाम न दिया जा सके। कई महिलाएं रात से ही जेल के बाहर पहुंच चुकी थीं।
योगिता भयाना ने कहा कि निर्भया के साथ दरिंदगी करने वाले गुनहगारों को फांसी के फंदे पर लटकाने में देरी जरूर हुई। उन्होंने कहा कि ऐसी घटनाओं में सजा में देरी नहीं होनी चाहिए, लेकिन दोषियों की फांसी के बाद अब कभी भी कोई ऐसी दरिंदगी करने की जुर्रत नहीं कर सकेगा। सरदार इंदरजीत सिंह, कप्तान सहित कई लोग रात से ही फांसी की इस घड़ी का इंतजार कर रहे थे।
दोषियों को फंदे से लटकाए जाने पर तिहाड़ के बाहर मौजूद सुचेतना ने कहा कि इसका दर्द तो निर्भया की मां से पूछो, जिन्होंने सात साल इसी दिन के इंतजार में गुजारे। निर्भया के दरिंदों को फांसी में देरी के कारण कई महिलाओं और युवतियों की आंखों से आंसू छलक पड़े। उनका कहना था कि ऐसे कुकृत्य के दोषियों को सजा देने में आखिरकार इतनी देरी क्यों। आखिरी वक्त तक उसे बचाने की कोशिश इसलिए की जा रही थी, क्योंकि सात साल का वक्त मिल गया। फांसी की इस घड़ी के इंतजार में देर रात से ही कुछ महिलाएं मौजूद थीं, जिन्होंने फांसी के बाद ही घरों का रुख किया।