Movie Review: बेलबॉटम
लेखक: असीम अरोड़ा और परवेज शेख
कलाकार: अक्षय कुमार, वाणी कपूर, लारा दत्ता, हुमा कुरैशी, आदिल हुसैन, अनिरुद्ध दवे आदि
निर्देशक: रंजीत एम तिवारी
निर्माता: वाशू भगनानी, निखिल आडवाणी आदि।
रेटिंग: ***1/2
फिल्म ‘बेलबॉटम’ की शुरुआत किसी एजेंडा फिल्म की तरह होती है। हिंदी सिनेमा के नामचीन निर्देशकों से अंतरंगता रखने वाले जानते हैं कि कैसे हाल के बरसों में हिंदी सिनेमा के दिग्गजों को एक पहले से पढ़ाई गई पट्टी के हिसाब से फिल्में बनाने के लिए ‘प्रेरित’ करने की कोशिशें चलती रही हैं। इस फिल्म में भी दर्शकों को बार बार ये बताया जाता है कि कैसे 70 और 80 के दशक की सरकारों की नाकामी के चलते देश में आतंकवाद ने सिर उठाना शुरू कर दिया था। थोड़ी देर को ये भी लगता है कि कहीं ये फिल्म किसी एक प्रधानमंत्री की इस सिलसिले में नाकामी दिखाने के लिए बनी एजेंडा फिल्म तो नहीं है। लेकिन, इंदिरा गांधी की शख्सीयत ऐसी रही है कि एजेंडा फिल्ममेकर भी उनकी दमक के आगे टिक नहीं पाते हैं। ‘इंदु सरकार’ में मधुर भंडारकर इसका एहसास कर चुके हैं। इंदिरा गांधी दुनिया की इकलौती ऐसी नेता हैं जिन्होंने किसी देश पर जीत हासिल करने के बाद उस पर कब्जा करने की बजाय आजाद हिस्से को नया देश बना दिया। तब से पाकिस्तान इस घात में रहा है कि किसी तरह भारत के किसी हिस्से को ‘आजाद’ करके इसका बदला लिया जाए। अक्षय कुमार की फिल्म ‘बेलबॉटम’ ऐसी ही एक कोशिश की कहानी कहती है। अक्षय कुमार को एक सोलो सुपरहिट फिल्म की दरकार अरसे से रही है और निर्देशक रंजीत ए तिवारी ने इस फिल्म में ये काम कर दिखाया है। फिल्म शुरू में थोड़ा सुस्त रफ्तार से चलती है। लेकिन, एक बार फिल्म की कहानी असल मुद्दे पर आती है तो फिर आखिर तक रफ्तार में रहती है। हां, थोड़ा झटका ये फिल्म क्लाइमेक्स में खाती है लेकिन कुल मिलाकर फिल्म बोर नहीं करती।
फिल्म ‘बेलबॉटम’ की कहानी समझने से पहले उन दिनों को समझना भी जरूरी है जब देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं। इंदिरा गांधी ने ही इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आईबी को दो हिस्सों में बांटकर आईबी को घरेलू मामलों की जिम्मेदारी दी और इसके दूसरे हिस्से को रॉ यान रिसर्च एंड एनालिसिस विंग में तब्दील कर दिया। फिल्म ‘बेलबॉटम’ में एक शख्स लगातार इंदिरा गांधी के साथ दिखता है जिसे रॉ एजेंट बेलबॉटम का बॉस ए रॉ के संस्थापक के रूप में परिचित कराता है। रॉ के फाउंडर रहे आर एन काव 1984 में इंदिरा गांधी के सुरक्षा सलाहकार थे। फिल्म दिखाती है कैसे इंदिरा गांधी ने एक जोशीले रॉ एजेंट पर दांव लगाया? कैसे तमाम अफसरों और मंत्रियों के विरोध के बावजूद इस एजेंट की बात सुनी? और, कैसे देश ने पहली बार आतंकवादियों से वार्ता करने की पाकिस्तान की मांग ठुकराई। इसी कहानी के बीच चलती है एक विमान अपहरण की कहानी, जिसे अपहर्ताओं से मुक्त कराने की जिम्मेदारी रॉ एजेंट बेलबॉटम उठाता है।
फिल्म ‘बेलबॉटम’ की कहानी सच्ची घटनाओं से प्रेरित है। इसमें निर्देशक और उनके लेखक ने अपनी तरफ से भी तमाम कल्पनाएं जोड़ी हैं। इसी के चलते मामला कहीं कहीं पर पूरा फिल्मी भी हो जाता है। यूपीएससी की परीक्षा देते देते उम्र गुजार चुके बेटे अंशुल और उसकी मां वाला ट्रैक फिल्म में काफी लंबा है और फिल्म की रफ्तार को भी धीमी करता है। और, देश के लिए लड़ने निकले रॉ के एजेंट के सारे किए धरे को सिर्फ मां की मौत का बदला जैसा दिखाने से भी फिल्म थोड़ी कमजोर होती है। लेकिन, अक्षय कुमार ने एक रॉ एजेंट के तौर पर अच्छा काम कर दिखाया है और अपनी पिछली फिल्म ‘लक्ष्मी’ में की गई ओवरएक्टिंग का दाग भी धो डाला है। वाणी कपूर के साथ उनकी जोड़ी जमती है। एक्शन में तो वह माहिर हैं ही, फिल्म के कुछ दृश्यों में वह दर्शकों को अपने साथ भावनाओं में भी बहा ले जाने में सफल रहते हैं, खासतौर से मां को एयरपोर्ट पर विदाई देते समय का दृश्य।
इस फिल्म से हिंदी फिल्मों के क्रेडिट्स हिंदी में भी लिखे जाने की पंरपरा पटरी पर आती दिख रही है। शाहरुख खान की फिल्मों की तरह अब अक्षय की फिल्मों में भी हीरोइनों के नाम उनके नाम से पहले आने लगे हैं। फिल्म ‘बेलबॉटम’ की तीन हीरोइनें हैं और तीनों अलग अलग अपना काम करके निकल जाती हैं। इस फिल्म को देखकर फिर कहा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा में नायकों की पत्नियों के किरदारों पर और काम होने की जरूरत है। फिल्म ‘भुज’ में जो गलती हुई, वही गलती यहां फिल्म ‘बेलबॉटम’ में भी दोहराई गई है। फिल्म की कहानी में रॉ एजेंट की पत्नी के किरदार में दिखी वाणी कपूर का किरदार सिर्फ खूबसूरत दिखने के अलावा और कुछ नहीं है। उनसे बेहतर किरदार बाकी दोनों हीरोइनों लारा दत्ता और हुमा कुरैशी को मिले हैं। इंदिरा गांधी के रोल में लारा दत्ता ने कमाल का अभिनय किया है और इस किरदार के लिए उन्हें अगले साल तमाम पुरस्कार मिलने भी पक्के हैं। फिल्म में आदिल हुसैन और अनिरुद्ध दवे ने भी अपने अपने किरदारों के साथ पूरा न्याय किया है। आदिल के हिस्से में फिल्म के कुछ चुटीले संवाद भी आए हैं।
बलिया, उत्तर प्रदेश से जाकर कोलकाता में बसे तिवारी परिवार में जन्मे और पले बढ़े रंजीत तिवारी इससे पहले फरहान अख्तर को लेकर फिल्म ‘लखनऊ सेंट्रल’ बना चुके हैं। उनके लिए ये फिल्म इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि उनको फिल्म निर्देशन की बारीकियां सिखाने वाले निखिल आडवाणी ने उन पर इस फिल्म के लिए विश्वास किया। कम लोगों को ही पता होगा कि फिल्म ‘बेलबॉटम’ की शुरुआत निखिल और रंजीत ने ही मिलकर की थी। फिल्म से बाकी लोग इसके बाद ही जुड़े। असीम अरोड़ा ने ये कहानी अखबारों की कतरनों और किताबों से निकाली है और परवेज शेख के साथ मिलकर फिल्म को लिखा भी उन्होंने करीने से है। हॉलीवुड फिल्मों से निकली किसी कहानी के कालखंडों को बार बार आगे पीछे करके कथानक सुनाने की परंपरा अभी हिंदी सिनेमा के दर्शकों के लिए नई है और इसीलिए थोड़ी खटकती भी है। लेकिन, निर्देशक और लेखकों ने मिलकर फिल्म को आखिर तक मनोरंजक बनाए रखने में कामयाबी हासिल की है।