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Dadasaheb Phalke: पहली फिल्म की हीरोइन ढूंढने रेड लाइट एरिया पहुंचे थे दादा साहब फाल्के, होटल में पूरी हुई थी तलाश

एंटरटेनमेंट डेस्क, अमर उजाला Published by: हर्षिता सक्सेना Updated Sat, 30 Apr 2022 07:17 AM IST
सार

हिंदी सिनेमा के पितामाह कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के की जयंती हर साल 30 अप्रैल को मनाई जाती है। दादा साहब ने ना सिर्फ हिंदी सिनेमा की नींव रखी बल्कि बॉलीवुड को पहली हिंदी फिल्म भी दी।

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Dada Sahab Phalke Birthday: Dadasaheb Phalke had reached the red light area to find the heroine of his first film raja harish chandra
Dadasaheb Phalke‬

हिंदी सिनेमा के पितामाह कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के की जयंती हर साल 30 अप्रैल को मनाई जाती है। दादा साहब ने ना सिर्फ हिंदी सिनेमा की नींव रखी बल्कि बॉलीवुड को पहली हिंदी फिल्म भी दी। दादा साहब का जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के नासिक में एक मराठी परिवार में हुआ था। उनका असली नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था, लेकिन बाद में उन्हें दादा साहब फाल्के के नाम से जाना गया। दादा साहेब सिर्फ एक निर्देशक ही नहीं बल्कि एक मशहूर निर्माता और स्क्रीन राइटर भी थे। भारतीय सिनेमा के जन्मदाता दादा साहब ने फिल्म इंडस्ट्री में अपने 19 साल के करियर में दादा साहब ने 121 फिल्में बनाई, जिसमें 26 शॉर्ट फिल्में शामिल हैं।

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दादा साहेब ने अपनी शिक्षा कला भवन, बड़ौदा में पूरी की थी। यहां से उन्होंने मूर्तिकला, इंजीनियरिंग, चित्रकला, पेंटिंग और फोटॉग्राफी की शिक्षा ली। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने फोटोग्राफी को बतौर करियर चुना, लेकिन पत्नी और बच्चे की अनाचक हुई मौत के बाद उन्होंने इस पेशे से दूरी बना ली। कौन जानता था कि फोटोग्राफी छोड़ने का उनका यह फैसला उन्हें एक ऐसे रास्ते पर ले जाएगा, जो इतिहास में उन्हें हमेशा के लिए अमर कर देगा। हमेशा से ही कुछ नया करने की चाह रखने वाले दादा साहब के जीवन में फ्रेंच फिल्म 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' एक नया मोड़ लेकर आई। 

 

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Dada Sahab Phalke Birthday: Dadasaheb Phalke had reached the red light area to find the heroine of his first film raja harish chandra
दादा साहेब फाल्के, एलिस गुई ब्लाक - फोटो : Social media

'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' फिल्म एक मूक फिल्म थी। फ्रेंच डायरेक्टर एलिस गुई ब्लाक द्वारा बनाई गई इस फिल्म को देखने के बाद दादा साहब ने तय किया कि वे भी फिल्म इस क्षेत्र में कुछ नया करेंगे और भारतीय धार्मिक और मिथकीय चरित्रों को रूपहले पर्दे पर जीवंत करेंगे। बस फिर क्या था, दादा साहब के इसी विचार ने जन्म दिया पहली हिंदी फिल्म 'राजा हरिश्चन्द्र' को। साल 1913 आई इस मूक फिल्म ने हिंदी फिल्म जगत की नींव रखी।

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लेकिन, उस समय में इस फिल्म को बनाना उतना आसान नहीं था। फिल्म को बनाने के लिए दादा साहब ने दो महीने तक हर रोज शाम में चार से पांच घंटे सिनेमा देखा। जबकि बाकी समय में वह फिल्म बनाने की उधेड़-बुन में लगे रहते थे। उनकी इस दीवानगी का असर उनकी सेहत पर भी पड़ा, जिसकी वजह से लगभग उनकी आंखो की रोशनी चली गई। यही नहीं अपनी इस फिल्म में तारामती का किरदार निभाने के लिए दादा साहब को हीरोइन ढूंढने के लिए भी काफी मशक्कत करनी पड़ी। फिल्म के लिए अभिनेत्री ना मिलने की वजह से वह रेड लाइट एरिया तक पहुंच गए थे।

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दादा साहब ने जब वहां की लड़कियों से बात कर उन्हें फिल्म में काम करने की फीस बताई तो लड़कियों ने कहा था कि इतना पैसा तो उन्हें एक रात में ही मिल जाता है। दादा साहब एक ढाबे पर चाय पीने जाया करते थे, जहां उनकी नजर एक बावर्ची पर पड़ी। बावर्जी के हाथ नाजुक थे और चाल ढाल महिलाओं जैसी थी। लिहाजा राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामति का रोल निभाने के लिए दादा साहब ने अन्ना सालुंके को फाइनल कर लिया। दादा साहब कई बार खुद साड़ी पहनकर लड़कों को एक्टिंग करना भी बताते थे। बता दें कि इस फिल्म का कुल बजट उस दौर में 15 हजार था। पहली फिल्म की सफलता के बाद उन्होंने अपने फिल्मी करियर में कई बेहतरीन फिल्में दीं। इन फिल्मों में मोहिनी भस्मासुर (1913), सत्यवान सावित्री (1914), लंका दहन (1917), श्री कृष्ण जन्म (1918) और कालिया मर्दन (1919) शामिल हैं। उनकी आखिरी मूक मूवी सेतुबंधन थी और आखिरी बोलती फिल्म गंगावतरण थी।

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