सिनेमा में अभिनय के सिल्वर जुबली साल पार कर चुके सौरभ शुक्ल की पैदाइश भले गोरखपुर की हो, लेकिन सियासत उन्हें समझ नहीं आती। वह सिर्फ और सिर्फ सिनेमा समझते हैं, कैसे? समझा रहे हैं अमर उजाला के लिए पंकज शुक्ल के साथ हुई इस खास मुलाकात में।
EXCLUSIVE: सात मिनट में पढ़िए सौरभ शुक्ला के अभिनय के सारे गुरुमंत्र, एक एक कर किए सारे खुलासे
आपने इतना सिनेमा देखा, आप खुद भी लेखक, निर्देशक हैं, आपको जब कोई किरदार मिलता है तो सिरा कहां से पकड़ते हैं?
मैं सबसे पहले पटकथा को लेकर चलता हूं। अपने जीवन से या आसपास के लोगों में उसका संदर्भ ढूंढता हूं। फिर जरूरत पड़ती है तो उसके दायरे से भी निकलकर पढ़ता हूं। उसकी पृष्ठभूमि देखता हूं। एक पटकथा में वे सारे सूत्र होते हैं जिनके आधार पर कोई कलाकार अपने किरदार की कल्पना कर सकता है। वही गीता है, वही बाइबल है। अपने आसपास के या जान पहचान के लोगों से भी कभी मदद मिल जाती है, जिनके साथ कभी ऐसा कुछ हुआ हो। हां, लेखक या निर्देशक होने का ये तो अंतर रहता है कि वह बाकी कलाकारों से अलग होता है। लेखक को अनुसंधान की आदत होती है। वह उसके पास एक अतिरिक्त गुण तो होता ही है।
फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ में जो याद रह जाने लायक किरदार हैं, उनमें से एक आपका भी गॉडफादर जैसा किरदार है मास्टरजी का। आप अपने निभाए किरदारों को यादगार बनाने के लिए अलग से क्या कुछ करते हैं?
इसको मैं अपनी खुशकिस्मती मानूंगा कि जिस तरह से मैंने चीजों को सोचा और जिस तरह से मैंने चीजों को निभाया, वह लोगों को पसंद आया। कहना चाहिए कि वह लोगों से जुड़ पाया। किसी भी किरदार को दर्शक जब पसंद करते हैं तो वह उस चरित्र में अपने जीवन की कुछ न कुछ छाप देखते हैं। अभिनय में सबसे पहले मैं अपने आप से जुड़ता हूं क्योंकि मैं भी एक आम इंसान हूं। मैं खुद से सवाल करता हूं कि क्या जनता इस किरदार को अपना सकेगी?
ऐसा ही एक और किरदार मुझे याद आता है, जस्टिस सुंदरलाल त्रिपाठी...
ये कमाल की बात है कि मैं आज तक कोर्ट नहीं गया हूं। इस किरदार को निभाने में भी इस फिल्म के निर्देशक सुभाष कपूर काफी मददगार साबित हुए थे। उन्होंने अदालतों के बहुत सारे किस्से मुझे बताए थे। ‘जॉली एलएलबी’ से पहले हिंदी फिल्मों में जज को एक कार्डबोर्ड कैरेक्टर के तौर पर देखा जाता था, एक इंसान के तौर पर नहीं। लेकिन आखिर वह भी इंसान है। तो उसमें इंसानियत के सूत्र तलाशे गए कि सुंदरलाल त्रिपाठी रहता कहां होगा, तनख्वाह कितनी होगी? अमेरिका का जज तो है नहीं कि एक बंगला होगा और वहां एक उसका लैब्राडॉर होगा और चार पांच नौकर चाकर होंगे। नहीं, ऐसा जज वह है नहीं, वह तो आम जिंदगी जीने वाला जज है।
निर्देशक अनुराग बासु का भी काफी लगाव रहा है आपसे। सुभाष कपूर और अनुराग दोनों अलग अलग तरीके के निर्देशक हैं, आपकी संगत कैसी रही उनके साथ?
बहुत अच्छी रही। अगर मैं सुभाष कपूर और अनुराग को देखूं तो दोनों की कार्यप्रणाली बहुत अलग है। अनुराग जिस तरह से फिल्में बनाते हैं, वह हमेशा कहानी में कुछ न कुछ खोजते रहते हैं। फिल्म बनाते वक्त भी ढूंढते रहते हैं, छोटी छोटी चीजें ढूंढते रहते हैं। सुभाष भी ये कहते हैं लेकिन सुभाष ये सब पहले खोजते हैं और फिर पटकथा लिखते हैं। पटकथा पूरी हो जाने के बाद वह ये दुनिया रचने निकलते हैं। अनुराग के साथ ऐसा होता है कि आप किसी यात्रा पर निकल तो गए लेकिन रुकना कहां है ये पता नहीं। रात फाइवस्टार होटल में भी हो सकती है और किसी ढाबे पर भी। उनके साथ यात्रा का एक अलग रोमांच है।