निर्माताः वायकॉम18/संजय लीला भंसाली
पद्मावत रिव्यू: संजय लीला भंसाली ने चित्तौड़ की रानी पद्मावती की कहानी को इतिहास के आईने में देखते हुए अपने ढंग से रचने की कोशिश की थी लेकिन चौतरफा विरोध ने उन्हें किंवदंतियों की आड़ लेने को मजबूर कर दिया। इसका परिणाम फिल्म में साफ दिखता है। तकनीकी रूप से मजबूत होने के बावजूद पद्मावत का कथानक किसी से न्याय नहीं कर पाता। न इतिहास से, न किंवदंतियों से और न मिथकों से। इन सबके मिलने से बने मुरब्बे में खुद भंसाली अपनी प्रतिभा से न्याय नहीं कर पाए और जो फिल्म सामने आती है वह निराश करती है। कंप्यूटरग्राफिक्स वाले जंगल और जानवरों के शिकार के बीच कहानी अफगानिस्तान और सिंहल द्वीप से शुरू होती हुई चित्तौड़ तथा दिल्ली तक आती है।
'पद्मावत' REVIEW: भंसाली को माफ नहीं करेगा इतिहास, निराश करती है फिल्म


दिल्ली की खिलजी सल्तनत में सिंहासन के खेल के बीच चित्तौड़गढ़ के राजगुरु राघव चेतन को राजा महारावल रतन सिंह (शाहिद कपूर) इसलिए राज-निकाला देते हैं क्योंकि वह उनके और रानी पद्मावती (दीपिका पादुकोण) के एकांत पलों को छुप कर देख रहा था। यही राघव चेतन दिल्ली जाकर अलाउद्दीन खिलजी (रणवीर सिंह) को बताता है कि पद्मावती अनमोल रतन है और उसे खिलजी के खजाने में होना चाहिए। इससे प्रभावित होकर, सीमाएं फैलाने के लिए दर्जनों युद्ध लड़ने वाला खिलजी बांहें फैलाने के लिए नया युद्ध लड़ने का फैसला करता है। भंसाली ने युद्ध को राजपूती आन-बान- शान के हिसाब से दिखाया और संवाद भी उसी ढंग से रखे। अतः यहां विरोध की गुंजायश नहीं रह जाती। परंतु इसमें भी संदेह नहीं कि फिल्म का सबसे मजबूत पात्र अलाउद्दीन खिलजी है और कई जगहों पर महसूस होता है कि यहां उसकी अय्याशी, कामुकता, महिमा और शक्ति का बखान है। उसकी महत्वाकांक्षा फिल्म को आगे बढ़ाती है। न कि पद्मावती और राजा रतन सिंह का प्रेम और राजपूतों की दुश्मन को नाकों चने चबवा देने का जज्बा।

अलाउद्दीन का एक दृश्य ऐसा भी है जहां वह ऐसे सपने में खोने को है, जो अनर्थ को सामने ला सकता है। लेकिन फिल्मकार ने इस सपने पर ब्रेक लगा दिया। भंसाली ने पद्मावती के किरदार की बुद्धिमत्ता और सौंदर्य को दिखाया है लेकिन वह पर्दे पर अलाउद्दीन से पीछे रह जाती है। अलाउद्दीन पद्मावती को देखने की चाह रखता है और रानी राजा रतन सिंह को समझाती है कि अगर उनकी एक झलक से सैकड़ों जानें लेने वाला युद्ध रुक सकता है तो वह बलिदान के लिए तैयार हैं। फिल्म में अलाउद्दीन आईने में पद्मावती की एक झलक देखता है। शाहिद कपूर फिल्म की कमजोर कड़ी हैं। राजा रतन सिंह के किरदार से वह न्याय नहीं कर पाते।

रणवीर सिंह की कद-काठी, आक्रामकता और ऊर्जा के आगे शाहिद नहीं टिक पाते और जब अतिरिक्त कोशिश करते हुए ओजपूर्ण संवाद बोलते हैं तो उनके कंठ से पिता पंकज कपूर की आवाज सुनाई देती है। भंसाली की फिल्मों में भव्यता होती है और वह पद्मावत में भी है। लेकिन उनकी फिल्मों में प्राण फूंकने वाला मधुर गीत-संगीत यहां लापता है। फिल्म में पद्मावती और रतन सिंह का प्रेम उतना नहीं उभरता जितना अलाउद्दीन का खौफ। जिन रंगों से भंसाली ने पद्मावत का कैनवास रंगा, नृत्य रचे और युद्ध के दृश्य फिल्माए वह बाजीराव मस्तानी की याद दिलाते हैं। अतः यहां नयापन नहीं मिलता। वास्तव में भंसाली रानी पद्मावती की कहानी को बॉलीवुड के मसाला-मिश्रित ढंग से पेश करते हैं।

दुखद यह कि पद्मावत जैसे महाकाव्य से प्रेरित बताए जाने के बावजूद फिल्म में कविता की लय और छंदबद्धता गायब है। राग-रंग- विरह-मिलन की गहराई गुम है। भंसाली ने पद्मावत को बड़े भौतिक अर्थों में प्रकट किया है। जो दर्शक को किसी ऊंची भाव-भूमि पर नहीं ले जाता। इस लिहाज से भंसाली अपनी इस महत्वाकांक्षी फिल्म में न तो इतिहास से न्याय करते हैं और न ही महान साहित्यिक कृति से। फिल्म द्वारा उन्होंने पद्मावती की कहानी का नया ही ‘खिलजी-संस्करण’ तैयार कर दिया है। जिज्ञासावश भले ही दर्शक फिल्म देख कर भंसाली की जेबें भर दें परंतु तात्कालिक सिनेमाई चमक-दमक की धूल जब समय के साथ बैठेगी और सब साफ-साफ दिखेगा तब इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा।