हिमाचल प्रदेश में बादल फटने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन से हर साल तबाही हो रही है। इसी मानसून 50 से ज्यादा जगह बादल फट चुके हैं। पहाड़ों पर 30 वर्षों में अत्यधिक बारिश की घटनाओं में 200 फीसदी तक बढ़ोतरी हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग के साथ इसके लिए विशेषज्ञ पहाड़ों पर बन रहीं झीलों एवं बांधों को भी जिम्मेदार मान रहे हैं। उनका कहना है कि नब्बे के दशक में बादलों का फटना अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों तक सीमित था लेकिन अब ये घटनाएं निचले इलाकों में हर साल हो रही हैं। राज्य आपदा प्रबंधन के रिकॉर्ड के अनुसार साल 2018 से 2022 के बीच हिमाचल में बादल फटने की महज छह घटनाएं ही दर्ज हुई, जबकि बाढ़ की 57 व भारी भूस्खलन की 33 घटनाएं सामने आईं। वर्ष 2023 में तीन बड़ी घटनाओं में 8 से 11 जुलाई, 14-15 अगस्त और 22-23 अगस्त को हिमाचल में भारी नुकसान हुआ। इस दौरान इस दौरान में 6 जगह बादल फटे, 32 बाढ़ और 163 भूस्खलन की घटनाएं हुईं। पूरे मानसून सीजन के दौरान 45 जगह बादल फटे, बाढ़ की 83 और भूस्खलन की 5748 घटनाएं हुईं। साल 2024 की बरसात के दौरान बादल फटने की 14, भूस्खलन की तीन और बाढ़ की 40 घटनाएं दर्ज की गईं। इस मानसून सीजन में प्राकृतिक आपदाओं की इन रिकॉर्ड घटनाओं में जान माल का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। आगे पढ़ें...
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कराहते पहाड़।
- फोटो : संवाद
हिमाचल में नदी-नालों के रास्तों में बस गए लोग, 13 साल में तय नहीं हो सके नो कंस्ट्रक्शन जोन
प्रदेश में नदी-नालों का रास्ता रोककर जगह-जगह निर्माण हो रहे हैं। आपदा के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में लोग बस गए हैं। केंद्र सरकार के निर्देशों के 13 साल बाद भी हिमाचल में नदी-नालों के आसपास नो कंस्ट्रक्शन जोन चिह्नित नहीं हो सके हैं। आपदाओं से बचाव के लिए केंद्र ने बाढ़ प्रबंधन और नदी- नालों के तटों की सुरक्षा के लिए साल 2012 में फ्लड प्लेन जोन अधिनियम लागू करने के निर्देश दिए थे। इसके तहत आपदा को लेकर उच्च, मध्यम और कम जोखिम वाले क्षेत्र तय कर निर्माण पर प्रतिबंध लागू किए जाने थे, लेकिन केंद्र सरकार के निर्देश हिमाचल में अब तक लागू नहीं हो पाए। दूसरी ओर, हिमाचल की तरह मिलती-जुलती भौगोलिक स्थिति वाले पड़ोसी राज्य उत्तराखंड ने 2013 में ही उत्तराखंड बाढ़ मैदान परिक्षेत्रण अधिनियम लागू कर दिया है। बादल फटने, बाढ़ और भूस्खलन से ऐसे ही क्षेत्रों में जानमाल का सर्वाधिक नुकसान हो रहा है।आगे पढ़ें...
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डीपीआर में खामियां, भूमि अधिग्रहण भी उपयुक्त नहीं, फिर सीधे काट दिए खड़े पहाड़
प्रदेश में फोरलेन सड़कों की डीपीआर और निर्माण में खामियां बरसात में तबाही का कारण बन रही है। पहले लागत बचाने के लिए जमीन का सही तरीके से अधिग्रहण नहीं किया और उसके बाद खड़े पहाड़ काट दिए। फोरलेन बनाने के लिए मैदानों में अपनाई जाने वाली तकनीक को पहाड़ों में लागू करने की चूक भारी पड़ रही है। अवैज्ञानिक तरीके से नब्बे डिग्री में पहाड़ की कटिंग से सड़कों के आसपास भारी भूस्खलन के साथ मकान जमींदोज हो रहे हैं। कटिंग से जर्जर हुए पहाड़ बरसात में दरक रहे हैं। बड़ी-बड़ी चट्टानें उखड़ रही हैं। आगे पढ़ें...
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पहाड़ों को खोद नदी-नालों के किनारे डंप कर दिया तबाही का सामान, जानें क्या बोले विशेषज्ञ
हिमाचल प्रदेश में मलबे को ठिकाने लगाने के लिए पंचायतों और शहरी निकायों के पास एक भी डंपिंग साइट नहीं है। बड़ी परियोजनाएं बना रहीं कंपनियों की कागजों में डंपिंग साइटें हैं, परंतु यहां भी नियमानुसार मलबे को ठिकाने नहीं लगाया जा रहा है। हिमाचल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास ऐसे कई मामले पहुंचे हैं। प्रदेश हाईकोर्ट की ओर से नियुक्त किए गए एमिकस क्यूरी की अध्ययन रिपोर्ट में ऐसे कई खुलासे हुए हैं। पहाड़ों को खोदकर नदी-नालों, खड्डों के किनारे डंप किया मलबा तबाही का सामान बन गया है। राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण हो, बिजली परियोजनाएं हों या फिर अन्य विकास कार्य, कंपनियां टनों के हिसाब से मलबा नदी-नालों के किनारे डंप कर रही हैं। भारी बारिश में यह मलबा तबाही का कारण साबित हो रहा है। इससे भी बाढ़ की स्थिति पैदा हो रही है।आगे पढ़ें...
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सुरंगों-ब्लास्टिंग से जर्जर हो रहे पहाड़, अत्यधिक जल विद्युत दोहन दे रहा खतरे का संकेत
पन बिजली क्षमता हिमाचल प्रदेश के लिए नेमत है, लेकिन इसका अत्यधिक दोहन पहाड़ों को प्रभावित करने लगा है। चंबा से किन्नौर तक मानकों को ठेंगा दिखा रहे कई प्रोजेक्टों ने संवेदनशील पहाड़ों को गंभीर पर्यावरणीय संकट में डाल दिया है। सुरंगों, अवैज्ञानिक तरीके से ब्लास्टिंग, वन कटान और नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में हस्तक्षेप के चलते पहाड़ों की भूगर्भीय स्थिरता कमजोर हो रही है। इससे भूस्खलन, बादल फटने और जलस्रोतों के सूखने जैसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। वर्ष 2024 में बादल फटने की सात घटनाओं में से चार जलविद्युत परियोजना क्षेत्रों में हुईं थीं। 2023 में कुल्लू, मलाणा और सैंज घाटी में कई आपदाएं आईं। किन्नौर संघर्ष समिति के अनुसार प्रदेश में कई जलविद्युत परियोजनाओं में पर्यावरणीय मानकों का पालन नहीं किया जा रहा। नदियों में आवश्यक न्यूनतम 10 फीसदी जल प्रवाह भी कई जगहों पर नहीं छोड़ा जा रहा, इससे डाउन स्ट्रीम में पारिस्थितिकी पर संकट गहराता जा रहा है। आगे पढ़ें...