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राज्यसभा की रेस से कट सकता है पवन सिंह का पत्ता!
अमर उजाला डिजिटल डॉट कॉम Published by: आदर्श Updated Wed, 24 Dec 2025 09:26 PM IST
बिहार की राजनीति में एक बार फिर एक फिल्मी नाम सियासी सुर्खियों में क्यों है? चुनाव खत्म होने के बाद अचानक राज्यसभा की चर्चाओं में पवन सिंह का नाम कैसे आ गया? क्या बीजेपी उन्हें सिर्फ सम्मान देना चाहती है या इसके पीछे कोई बड़ा चुनावी प्लान छुपा है? आखिर पार्टी को पवन सिंह से ऐसा कौन-सा फायदा दिख रहा है जो उन्हें संसद के ऊपरी सदन तक पहुंचाने की बात हो रही है? और सबसे बड़ा सवाल—क्या बिहार की जटिल जातीय राजनीति में बीजेपी यह जोखिम उठाएगी या फिर पवन सिंह के लिए कोई दूसरा रास्ता तैयार है? और तो और पवन सिंह के साथ वो दूसरा नाम कौन सा है जो राज्यसभा की रेस में है जिसे पार्टी ऊपरी सदन में भेजने के बारे में सोच रही है? इन तमाम सवालों के जवाब छुपे हैं इस वीडियो में।
बिहार की राजनीति में इन दिनों एक ऐसा नाम फिर से चर्चा के केंद्र में है, जो मंच से लेकर स्क्रीन तक अपनी पकड़ के लिए जाना जाता है। चुनावी शोर थमने के बाद अब निगाहें राज्यसभा की संभावित रिक्तियों पर टिकी हैं और इसी कड़ी में भोजपुरी सिनेमा के सुपरस्टार पवन सिंह को लेकर सियासी गलियारों में हलचल तेज हो गई है। सवाल यह नहीं है कि उनका नाम क्यों उछल रहा है, बल्कि यह है कि बीजेपी उन्हें किस रणनीति के तहत आगे बढ़ा रही है।
पवन सिंह सिर्फ एक फिल्मी चेहरा नहीं रहे। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने खुद को राजनीतिक रूप से प्रासंगिक व्यक्तित्व के तौर पर स्थापित किया है। चुनावी सभाओं में उनकी मौजूदगी, गीत-संगीत के जरिए भावनात्मक जुड़ाव और सोशल मीडिया पर मजबूत पकड़ ने उन्हें ‘स्टार प्रचारक’ की श्रेणी में ला खड़ा किया है। यही वजह है कि बीजेपी के रणनीतिकार उन्हें सिर्फ बिहार तक सीमित नेता नहीं मानते, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर उपयोगी चेहरा समझते हैं।
बीजेपी के भीतर यह आकलन मजबूत होता जा रहा है कि पवन सिंह जैसे लोकप्रिय चेहरे संसद के ऊपरी सदन में पार्टी की ‘सॉफ्ट पावर’ को बढ़ा सकते हैं। राज्यसभा में ऐसे नेता, जो जनसंस्कृति से आते हों, पार्टी की छवि को आम मतदाता के बीच अधिक सहज बनाते हैं। पवन सिंह का नाम इसी वजह से बार-बार उभर रहा है। पार्टी के एक वर्ग का मानना है कि उन्हें सम्मानजनक भूमिका देकर लंबे समय तक जोड़े रखना राजनीतिक रूप से फायदेमंद रहेगा।
दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी की नजर केवल बिहार तक सीमित नहीं है। पूर्वी भारत के राज्यों में भोजपुरी भाषी आबादी एक अहम फैक्टर बन चुकी है। पश्चिम बंगाल के औद्योगिक इलाकों से लेकर असम के चाय बागानों तक, भोजपुरी संस्कृति की मौजूदगी साफ दिखती है। पवन सिंह वहां एक जाना-पहचाना नाम हैं। पार्टी नेतृत्व मानता है कि भविष्य के चुनावों में उनकी लोकप्रियता को चुनावी पूंजी में बदला जा सकता है।
हालांकि तस्वीर का दूसरा पहलू भी उतना ही अहम है। बिहार की राजनीति में जातीय संतुलन एक संवेदनशील मुद्दा है। बीजेपी पहले से ही सामाजिक समीकरण साधने की कोशिश में लगी है। ऐसे में एक ही समय में दो सवर्ण चेहरों को राज्यसभा भेजना पार्टी के लिए असहज स्थिति पैदा कर सकता है। यही वजह है कि अंतिम फैसला आसान नहीं माना जा रहा।
पार्टी के भीतर यह विकल्प भी चर्चा में है कि अगर राज्यसभा की राह जटिल होती है तो विधान परिषद का रास्ता अपनाया जा सकता है। एमएलसी पद के जरिए संगठन में संतुलन भी बना रहेगा और पवन सिंह को संवैधानिक जिम्मेदारी भी मिल जाएगी। लेकिन यह सवाल बना हुआ है कि क्या बड़े जनाधार वाले नेता के तौर पर स्थापित हो चुके पवन सिंह इस विकल्प से संतुष्ट होंगे।
कुल मिलाकर, पवन सिंह को लेकर चल रही चर्चाएं सिर्फ एक सीट की नहीं हैं। यह बीजेपी की उस रणनीति का हिस्सा हैं जिसमें लोकप्रिय चेहरों, क्षेत्रीय पहचान और सांस्कृतिक प्रभाव को राजनीतिक ताकत में बदला जाता है। आने वाले महीनों में यह साफ हो जाएगा कि पार्टी उन्हें किस मंच पर उतारती है, लेकिन इतना तय है कि पवन सिंह का नाम फिलहाल बिहार की राजनीति में चर्चा का बड़ा केंद्र बना रहेगा।
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