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युगांडाई भारतीयों के निष्कासन के 40 साल
अपूर्व कृष्ण/बीबीसी संवाददाता, लंदन
Updated Fri, 23 Nov 2012 10:40 AM IST
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पूर्वी अफ़्रीकी देश युगांडा में 60-70 के दशक में एक कामयाब व्यापारी रहे महेंद्र लखानी की ज़िंदगी एक सैनिक शासक के एलान से कुछ यूँ बदली कि उन्हें 36 साल एक शहर में बस ड्राईवर बनकर रहना पड़ा। ब्रिटेन के लेस्टर शहर में रहनेवाले 70 वर्षीय लखानी कहते हैं, “अक्सर कभी कोई युगांडा परिचित आता था बस में तो देखकर बोलता था कि आप इतना बड़ा व्यापारी था, आप ड्राईवर बन गए? मैं उसको क्या बोलता अपने दिल का हाल।”
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महेंद्र लखानी उन भारतीयों में से एक थे जिनके बाप-दादा को अंग्रेज़ औपनिवेशिक दौर में मज़दूरी-व्यापार के लिए अफ़्रीकी देशों में ले गए थे और बाद में जब ये देश आज़ाद हुए तो परिस्थितियाँ बदलने लगीं। ठीक 40 साल पहले ऐसा ही कुछ हुआ पूर्वी अफ़्रीका के देश युगांडा में कई पीढ़ियों और बरसों से बसे भारतीयों के साथ।
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वहाँ के शासक इदी अमीन ने अगस्त 1972 में उन सभी भारतीयों (एशियाईयों) को देश छोड़ने का फ़रमान जारी कर दिया जो युगांडा के नागरिक नहीं थे, साथ में 90 दिन के भीतर देश ना छोड़ने पर जेल भेजने की धमकी भी दी। जनरल अमीन का कहना था कि एशियाई लोग युगांडा की अर्थव्यवस्था का दोहन कर रहे हैं।
ब्रिटेन
आनन-फ़ानन में हज़ारों की संख्या में भारतीय-पाकिस्तानी-बांग्लादेशी मूल के एशियाई लोगों ने जत्थों में युगांडा से निकलना शुरू किया। मकान-मोटर-माल-मोहल्ला सब जहाँ था वहीं रह गया। जनरल अमीन का आदेश था कि ऐसे लोग साथ केवल दो सूटकेस और 55 पाउंड यानी कुछ हज़ार रूपए ही ले जा सकते हैं।
महेंद्र लखानी की पत्नी इंदिराबेन लखानी कहती हैं,”हम अपनी कार कम्पाला के एयरपोर्ट पर छोड़कर आ गए, आते समय हम हवाई जहाज़ की खिड़की से मुड़-मुड़कर देख रहे थे, जैसे कि हमारी कार हमें देख रही हो।" गठरी-बक्से उठाए ऐसे सबसे अधिक लोग ब्रिटेन पहुँचे क्योंकि वे ब्रिटेन के नागरिक थे।
युगांडा में बसे 60,000 एशियाइयों में लोगों में से आधे ब्रिटेन आए। बाक़ी लोग अमरीका, कनाडा और भारत लौटे।
महेंद्र लखानी उन दिनों को याद करते कहते हैं,"मैं भारत भी गया था, वहाँ दूतावास के अधिकारियों ने हमसे बड़ी अच्छी तरह बात की मगर भारत में रहने नहीं दिया क्योंकि हम भारतीय नागरिक नहीं थे"।
लेस्टर
मंझधार में झूलते ऐसे 30,000 ब्रिटिश एशियाई लोगों में से कोई 10,000 लोग ब्रिटेन के शहर लेस्टर जाने की तैयारी कर रहे थे जहाँ पहले से ही भारतीयों की एक अच्छी-ख़ासी आबादी रहती थी। मगर लेस्टर में परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। तब शहर के बहुसंख्यक गोरे लोगों में से एक तबका युगांडा से भारतीयों के शहर में आने का विरोध कर रहा था और इसे लेकर जुलूस-प्रदर्शन हुए।
साथ ही लेस्टर की नगरपालिका ने युगांडा के एक अख़बार में एक विज्ञापन छपवाया जिसमें एशियाई लोगों से लेस्टर नहीं आने का अनुरोध किया गया था। मगर इसके बावजूद अधिकतर भारतीयों को ब्रिटेन ने अपनाया और धीरे-धीरे इन भारतीयों ने भी लेस्टर और ब्रिटेन में अपनी पहचान साबित की।
युगांडा से भारतीयों के निष्कासन की 40वीं वर्षगांठ पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने संसद में कहा, युगांडा और केन्या से आए एशियाई लोगों ने ब्रिटेन में असाधारण योगदान किया है। वहीं लेस्टर शहर में, जहाँ 40 साल पहले जिन लोगों को आने से हतोत्साहित किया जा रहा था, वहाँ इस साल नगरपालिका में एक प्रस्ताव पारित कर युगांडा से आए एशियाई लोगों का आभार प्रकट किया गया।
ये प्रस्ताव रखा शहर के युवा काउंसिलर संदीप मेघानी ने जिनकी पिछली पीढ़ी युगांडा में बसी थी और जिन्हें 40 साल बाद हज़ारों दूसरे एशियाई लोगों के साथ निकाल दिया गया था। संदीप मेघानी कहते हैं,"मैं हैरान रह गया जब मुझे पता चला कि कभी कोई ऐसा विज्ञापन छपा था। मुझे लगता है 40 साल पहले लेस्टर एक अलग शहर था और तब नगरपालिका ने जो भी किया वो मूर्खतापूर्ण और असभ्य था।"
लेस्टर के मेयर सर पीटर सॉल्स्बी भी स्वीकार करते हैं कि जो हुआ वो दुर्भाग्यपूर्ण था। उन्होंने कहा, "इस विज्ञापन को लेकर तब लेबर पार्टी के भीतर भी मतभेद था, मैं 1973 में काउंसिलर चुना गया और मुझे याद है कि चुनाव के फ़ौरन बाद विज्ञापन छपवाने वाले लोगों को बाहर कर दिया गया।"