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गरज बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला
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बादशाहों, कलाकारों और पीर-फकीरों की दिल्ली में बारिश की आमद नहीं।
- फोटो : Social Media
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बादशाहों, कलाकारों और पीर-फकीरों की दिल्ली में बारिश की आमद नहीं। कभी कभार की रहनुमाई। मुट्ठी भर अहसान हो जैसे। दो मौसमों के बीच का शहर। ठंडे उनींदे दिन और जाड़े की रातें। गर्मी की धूप और उमस की चादर में लिपटा शहर। धुंधला या की एक धुएं में घुटा-घुटा। हवा रूठी हुई और इस कदर बिगड़ी की बाशिंदों को अस्पताल के चक्कर लगवा दे।
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सांस-सांस का हिसाब-किताब है।
परके साल मां आई थी तो इशारों-इशारों में शहर को पानी के लिए कोस गई थी और इस दफे तो फोन से ही तौबा कर ली। जिद के मारे यहां ले आता तो भी यही कहती- दुनिया जहान में बारिश की खबरें हैं, उफान से नाले इतरा रहे हैं, नदियां गुस्से से तमतमा रहीं हैं तौबा-तौबा हो रही कि लोग डूब मर रहे हैं लेकिन यहां मेहरबानी नहीं। रहम नहीं कि कुछ दिन हर दिल सुकून पहुंचने वाली पानी की बूंदें देख ले। थोड़ा भीग ले और कह ले कोई किसी से की सावन आया था।
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कोई गजल गा सके की आइए बारिशों का मौसम है/ इन दिनों चाहतो का मौसम..!
यहां तो हर मौसम आसमान पर छाने वाले बादलों के गुच्छे हैं। थोड़ा टकटकी लगा लो तो आंखों में अटकते ज्यादा हैं। ऐसे की आंखों में रौशनी के धब्बे अंधेरे के छल्ले बनकर समा जाते हैं। गर्मी से तपती, चुंधियाती और थकी-मांदी देह के साथ अनगिनत आंखें आकाश में अटकती हैं और अपने-अपने कामों में धंस जाती हैं।
ऑफिस में बॉस माथे से पसीना पोंछते हुए कह देंगे बारिश तो मुश्किल है यहां। बस, मैट्रो, और ऑटो में दूर से धक्के खाकर आया साथी बिना बोले ही चेहरे से उदासी पोंछकर बारिश को कोसकर निकल जाता है।
राह चलतों के माथे और पेशानियां पसीने के रेलों में भीगीं दिखती हैं। किसी पार्क में साड़ी के पल्लू और चुन्नी से उमस की उदासियां पोछतीं औरतें, दिनभर में दो-चार बार तो दबी आवाज में बारिश को कोसती हैं कि आसमान से झांक रहे मुए ये सफेद गुच्छे बरसें तो बदन की गर्मी में राहत मिले।
सब जगह एक सी शय है। चिलचिलाती धूप से गुजरते राहगीर, बादलों की लुका-छिपी के बीच ढलता दिन और रात को उमस से बैचेन और कुनमुनाते बच्चे।
दिल्ली में 5 साल हो रहे हैं। लगता है अब भी वाबस्ता ना हुआ हूं ठीक से। थोड़ा सा मुतअल्लिक़ होना बाकी है। लेकिन बताने वालों के पास बारिश के कई अफसानें हैं। दुनियादारी के किस्सों के साथ जुड़े हुए।
बताते हैं कि बारिश नसीब का खेल है यहां। भूले भटके किसी बादल के टुकड़े का मूड बन गया तो बरस गए वरना पांडवों के इंद्रप्रस्थ में इंद्र उतने मेहरबान नहीं हैं।
ऑफिस जाते-लौटते, गलियों-गलियां भटकते मेरी आंखों में पेड़ों के पत्ते नाचते हैं। एकदम प्यासे। कबूतरों और चिड़ियों के झुंड। बालकनी से झांकती पीपल और बरगद के पेड़ की डाल पर चिड़ियों की चहचहाट छोटे बेटे चू-चू (मेघन हां घर का यही नाम रखा है उसका) को दिखाते हुए सुबह होती है। कभी आसमान साफ दिखाई देता है तो कभी सफेद रुईदार फाहेनुमा बादलों के गुच्छों से अटा।
आंखें बारिश को तरसती है। देह पेड़ों, झाड़ियों, झुरमुट की छुअन को बेचैन रहती है। यदा-कदा पार्क में तितली दिखे तो यादों का एक झोंका ठंडक पहुंचा देता है।
चंद रोज पहले मेघन ने बालकनी से झमाझम बरसात की टिपटिपाहट सुनी थी। लेकिन थोड़ी ताल और संगत देकर लौट गई..!
फिर अब तक नहीं लौटी..!
आज सुबह मेघन को निदा की लिखी और जगजीत की गाई गजल सुनाई
गरज बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाना, बच्चों को गुड़धानी दे मौला.!
मैं आसमान देखते हुए ऑफिस पहुंचा हूं
और शाम को घर लौट जाऊंगा..!
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।