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अलविदा 'ही-मैन': धर्मेंद्र परदे के हीरो, राजनीति का अनचाहा किरदार

Jay singh Rawat जयसिंह रावत
Updated Mon, 24 Nov 2025 06:53 PM IST
सार

1980 के दशक में सत्ते पे सत्ता (1982) जैसे मल्टीस्टारर में उन्होंने रवि अनल का दोहरी भूमिका निभाई, जो आज भी फैमिली एंटरटेनमेंट का बेंचमार्क है। उनकी “गर्म धरम” वाली छवि इतनी मजबूत थी कि दर्शक उन्हें पर्दे पर देखकर ही तरोताजा महसूस करते थे।

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Dharmendra passes away Hero on screen unwanted character in politics
धर्मेंद्र। - फोटो : सोशल मीडिया
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विस्तार
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हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम युग के उस “ही-मैन” का नाम लेते ही आंखों के सामने एक ऐसा चेहरा उभर आता है, जो न केवल एक्शन का प्रतीक था, बल्कि रोमांस, कॉमेडी और पारिवारिक ड्रामे की भी जान था। धर्मेंद्र—जन्म नाम धर्मेंद्र सिंह देओल, 8 दिसंबर 1935 को पंजाब के नसराली गांव में एक साधारण परिवार में पैदा हुए। उनके पिता कंवल कृष्ण एक स्कूल शिक्षक थे, और बचपन से ही धर्मेंद्र को फिल्मों का शौक था।

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1958 में फिल्मफेयर के न्यू टैलेंट कॉन्टेस्ट जीतकर वे मुंबई पहुंचे, और 1960 में अपनी पहली फिल्म दिल भी तेरा हम भी तेरे से डेब्यू किया। लेकिन असली धमाल तब मचा जब 1964 में मंजिल जैसी फिल्मों ने उन्हें स्टार बना दिया।
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सात दशकों तक सक्रिय रहने वाले इस अभिनेता ने 300 से ज्यादा फिल्मों में काम किया, जिनमें से कई बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट रहीं।

धर्मेंद्र की खासियत थी उनकी बहुमुखी प्रतिभा। 1970 के दशक में वे एक्शन हीरो बने—सालाना (1970), यादों की बारात (1973) जैसी फिल्मों में उनका गुस्सा और ताकत दर्शकों को बांध लेती थी। याद कीजिए शोले (1975) का वह दृश्य, जहां वे वीरू के किरदार में गब्बर सिंह को ललकारते हुए चिल्लाते हैं, “मैं हरा नहीं मानूंगा!” या फिर चुपके चुपके (1975) में डॉ. परिमल बनकर अमिताभ बच्चन के साथ कॉमेडी का तड़का लगाते हुए।

1980 के दशक में सत्ते पे सत्ता (1982) जैसे मल्टीस्टारर में उन्होंने रवि अनल का दोहरी भूमिका निभाई, जो आज भी फैमिली एंटरटेनमेंट का बेंचमार्क है। उनकी “गर्म धरम” वाली छवि इतनी मजबूत थी कि दर्शक उन्हें पर्दे पर देखकर ही तरोताजा महसूस करते थे।

लेकिन जीवन का एक ऐसा मोड़ आया, जब यह सिनेमा का सुपरस्टार राजनीति के मैदान में उतरा। 2004 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने उन्हें राजस्थान के बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से टिकट दिया। यह फैसला फिल्मी स्टार पावर पर आधारित था—धर्मेंद्र की लोकप्रियता से पार्टी को उम्मीद थी कि वे आसानी से जीत जाएंगे। और ऐसा ही हुआ।

विपक्षी कांग्रेस के उम्मीदवार रामेश्वर लाल दूदी के खिलाफ चुनाव लड़े धर्मेंद्र। प्रचार के दौरान उन्होंने कुछ रैलियां कीं, जहां उनकी फिल्मी शैली झलकती थी।

एक सभा में उन्होंने जोशीले अंदाज में कहा, “मैं बीकानेर का बेटा हूं, यहां की मिट्टी से जुड़ा हूं। वोट नहीं मांगने आया, सेवा करने आया हूं।” लेकिन उनकी आवाज में वह पुराना फिल्मी ठाठ तो था, पर राजनीतिक गहराई कम लग रही थी।चुनाव परिणाम 2004 में घोषित हुए।

धर्मेंद्र ने 2,99,414 वोट हासिल किए, जबकि दूदी को 1,29,369। अंतर करीब 1,70,000 वोटों का था—एक शानदार जीत। बीजेपी ने इसे स्टार पावर की विजय बताया। लेकिन यहीं से कहानी ने मोड़ लिया। संसद पहुंचने के बाद धर्मेंद्र का राजनीतिक सफर उतना चमकदार न रहा, जितना उनकी जीत की उम्मीदें जगाती थीं।

संसद में उपस्थिति: आंकड़ों की सच्चाई

2004 से 2009 तक के कार्यकाल में धर्मेंद्र की संसदीय सक्रियता बेहद सीमित रही। लोकसभा के आधिकारिक रिकॉर्ड्स के अनुसार, उन्होंने कुल मिलाकर केवल तीन सवाल पूछे—एक पानी की कमी पर, एक ग्रामीण विकास पर, और तीसरा स्थानीय उद्योगों से जुड़ा। कोई भी प्राइवेट मेंबर बिल पेश नहीं किया।

उनकी उपस्थिति का औसत महज 22% रहा, जो राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे था। जब पत्रकारों ने 2006 में उनसे पूछा कि संसद क्यों नहीं आते, तो उनका सहज जवाब था: “मैं तो किसान हूं, खेतों में रहता हूं। दिल्ली की हवा मुझे सूट नहीं करती।” यह जवाब उनकी फिल्मी ईमानदारी को दर्शाता था, लेकिन राजनीति में निरंतरता और जवाबदेही की मांग करता है—जो यहां पूरी न हुई।

बीकानेर के मतदाताओं के बीच भी शिकायतें थीं। सांसद निधि कोष से कुछ सड़कें बनीं, दो-तीन स्कूलों को ग्रांट मिली, और एक सामुदायिक केंद्र का उद्घाटन हुआ। लेकिन स्थानीय मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि बड़े मुद्दों—जैसे रेगिस्तानी क्षेत्र में पानी की समस्या, कृषि सुधार, या बेरोजगारी—पर कोई ठोस पहल न हुई।

2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने टिकट के लिए आवेदन ही नहीं किया। बीजेपी ने भी उन्हें दोबारा मैदान में न उतारने का फैसला लिया, शायद सक्रियता की कमी को देखते हुए। इस तरह, उनका राजनीतिक अध्याय महज पांच साल का रहा, जो उनकी फिल्मी विरासत के मुकाबले फीका पड़ गया।

राजनीति में असफलता के कारण: गहराई से विश्लेषण

धर्मेंद्र की राजनीतिक यात्रा जिस तेजी से शुरू हुई, उतनी ही जल्दी पटरी से उतर गई। इसका सबसे बड़ा कारण था राजनीति का कोई पूर्व अनुभव न होना। उन्होंने कभी गांव की पंचायत में वोट नहीं मांगा, कभी छात्र संघ का चुनाव नहीं लड़ा, न किसी सामाजिक आंदोलन का हिस्सा बने। सीधे बॉलीवुड की चकाचौंध से संसद की कुर्सी तक का सफर उनके लिए बहुत लंबा साबित हुआ।

राजनीति में संगठन खड़ा करना, नीतियों की बारीकियां समझना और लगातार जनता के बीच रहना पड़ता है; ये सारी चीजें उनके स्वभाव और अनुभव से बाहर की थीं। सुनील दत्त ने पहले ब्रिगेड रैली, कैंसर पीड़ितों की मदद और सामाजिक कार्यों से अपनी जमीन बनाई थी, इसलिए संसद में भी उनका प्रभाव रहा।

धर्मेंद्र के पास वैसी कोई तैयारी नहीं थी।दूसरी बड़ी वजह थी उम्र। 2004 में जब वे चुनाव मैदान में उतरे तो उनकी उम्र 68 साल की थी। राजस्थान के रेगिस्तान में धूप में रैलियां करना, रात-रात भर सभाएं करना और विरोधियों के तीखे हमलों का जवाब देना उनके लिए शारीरिक रूप से थकाऊ साबित हुआ।

जीत के बाद भी दिल्ली आना-जाना और संसदीय सत्रों में लगातार मौजूदगी उनके स्वास्थ्य ने मुमकिन नहीं होने दी। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण पहलू था उनकी फिल्मी छवि का बोझ। जनता ने उन्हें वीरू समझकर वोट दिया था। लोग यही सोचते थे कि शोले वाला वीरू आएगा और एक झटके में सारी समस्याएं हल कर देगा।

शोले में जब वे गब्बर के गुर्गे को ललकारते हुए कहते हैं, “कुत्ते, मैं तेरा खून पी जाऊंगा!” तो हॉल तालियों से गूंज उठता था। लेकिन संसद में न लाठियां चलती हैं, न गालियां। वहां संयम, धैर्य और कूटनीति की जरूरत होती है। धर्मेंद्र का वह जोशीला अंदाज संसदीय बहस में फिट नहीं बैठा। लोग उनसे डायलॉग सुनना चाहते थे, जबकि संसद फाइलों और समझौतों से चलती है।

चौथा कारण था भारतीय संसदीय व्यवस्था की जटिलता। सांसद बन जाना काफी नहीं होता; कमेटी की मीटिंग्स में जाना, विधेयकों पर विचार करना, मंत्रालयों से लगातार समन्वय रखना और अपने क्षेत्र की हर छोटी-बड़ी योजना पर नजर रखना पड़ता है।

ये सारी चीजें फिल्मी सेट की तरह एक टेक में पूरी नहीं होतीं। धर्मेंद्र शायद सिनेमा की उस सरल दुनिया के आदी थे जहां डायरेक्टर कहता है “कट” और सीन खत्म। राजनीति में “कट” का बटन नहीं होता। उन्होंने इन जिम्मेदारियों को गंभीरता से नहीं लिया और धीरे-धीरे संसद से दूरी बना ली।

इन सब कारणों ने मिलकर यह साबित कर दिया कि लोकप्रियता वोट तो दिला सकती है, पर उसे बनाए रखने के लिए मेहनत, तैयारी और समर्पण चाहिए—जो धर्मेंद्र राजनीति के रंगमंच पर नहीं दिखा पाए।

धर्मेंद्र अकेले न थे बॉलीवुड से राजनीति में

धर्मेंद्र इस मामले में अकेले नहीं थे। बॉलीवुड से राजनीति की ओर कदम बढ़ाने वाले ज्यादातर सितारों की कहानी कमोबेश एक जैसी ही रही है। सुनील दत्त अपवाद थे। उन्होंने पहले कैंसर पीड़ितों की मदद, ब्रिगेड रैली जैसे सामाजिक कामों से अपनी पहचान बनाई और फिर 1984 से 2005 तक लगातार पांच बार मुंबई उत्तर से कांग्रेस के सांसद चुने गए।

उनकी सक्रियता और जनसेवा ने उन्हें सिनेमा के बाहर भी सम्मान दिलाया। गोविंदा की कहानी धर्मेंद्र से बहुत मिलती है। 2004 में मुंबई उत्तर से भारी मतों से जीते, लेकिन पांच साल में संसद में शायद ही कभी दिखे। फिल्मी शूटिंग को उन्होंने प्राथमिकता दी और 2009 में बुरी तरह हार गए।

हेमा मालिनी ने उलटा रास्ता अपनाया। राज्यसभा सदस्य रहते हुए उन्होंने धीरे-धीरे राजनीतिक समझ बढ़ाई और 2014 से मथुरा से लोकसभा सांसद हैं। सड़कें, पानी, अस्पताल जैसे विकास कार्यों पर उनकी नजर रहती है, इसलिए आज भी जनता उन्हें पसंद करती है।

शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी बोलने की कला का फायदा उठाया। पटना साहिब और फिर आसनसोल से सांसद रहे, संसद में जोर-शोर से बोलते रहे, हालांकि पार्टी बदलने के कारण विवाद भी झेले। जया प्रदा ने रामपुर और बिजनौर में क्षेत्रीय प्रभाव के दम पर दो बार जीत हासिल की, पर व्यक्तिगत विवादों ने उनकी छवि को नुकसान पहुंचाया।

इन सभी उदाहरणों से एक बात साफ होती है कि सिर्फ चेहरा चमकाने से राजनीति नहीं चलती। जनता पहले वोट चेहरे को देती है, लेकिन अगली बार काम मांगती है। जिसने मेहनत की, वही टिका; जिसने सिर्फ सेलिब्रिटी बनकर रहने की कोशिश की, वह गायब हो गया। धर्मेंद्र भी उसी दूसरी श्रेणी में चले गए।

विरासत: सिनेमा में अमर, राजनीति में सबक

24 नवंबर 2025 को, 89 वर्ष की आयु में धर्मेंद्र का निधन हो गया। कुछ हफ्ते पहले ही स्वास्थ्य संबंधी अफवाहें उड़ी थीं, जब उन्हें मुंबई के ब्रेच कैंडी अस्पताल में भर्ती कराया गया था। परिवार—पत्नी हेमा मालिनी, बेटियां ईशा और अहाना देओल—ने अफवाहों का खंडन किया था, लेकिन अंततः समय सब कुछ ले गया। उनका अंतिम संस्कार मुंबई में ही हुआ, जहां बॉलीवुड और राजनीतिक हस्तियां नजर आईं। धर्मेंद्र की असली विरासत सिनेमा में है।

पद्म भूषण (2012) से सम्मानित इस अभिनेता ने न केवल मनोरंजन दिया, बल्कि अपने बेटों सनी देओल और बॉबी देओल को इंडस्ट्री में स्थापित किया। यमला पगला दीवाना सीरीज जैसी फिल्मों में वे अंतिम दिनों तक सक्रिय रहे। राजनीति में उनकी विफलता एक सबक है—कि हर मंच के लिए अलग अभिनय चाहिए। 

धर्मेंद्र चले गए, लेकिन उनकी मुस्कान, उनका जोश—वह पर्दे पर जिंदा रहेगा। कुछ लोग सिनेमा के लिए ही जन्मे होते हैं, और धर्मेंद्र वही थे। राजनीति ने उन्हें न निगला, न चमकाया- बस एक छोटा सा अध्याय जोड़ा। और शायद यही जीवन का संतुलन है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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