पंच परिवर्तन और संघ: संकल्प से सिद्धि तक
100 years of RSS: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष में केवल अपनी यात्रा का उत्सव नहीं मना रहा, बल्कि भारत के पुनर्निर्माण की दिशा में एक विचार-यात्रा प्रारंभ कर रहा है। इस यात्रा का केंद्र है ''पंच परिवर्तन'', एक ऐसी रूपरेखा जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों स्तरों पर सकारात्मक परिवर्तन की मांग करती है।
विस्तार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष में केवल अपनी यात्रा का उत्सव नहीं मना रहा, बल्कि भारत के पुनर्निर्माण की दिशा में एक विचार-यात्रा प्रारंभ कर रहा है। इस यात्रा का केंद्र है ''पंच परिवर्तन'', एक ऐसी रूपरेखा जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों स्तरों पर सकारात्मक परिवर्तन की मांग करती है।
संघ का यह प्रयास केवल संगठनात्मक ऊर्जा का विस्तार नहीं, बल्कि राष्ट्र की चेतना को नई दिशा देने वाला सामाजिक संकल्प है। भारत आज सामाजिक विषमताओं, पारिवारिक विघटन, पर्यावरणीय असंतुलन, आर्थिक परनिर्भरता और नागरिक दायित्वों की शिथिलता जैसी अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है। इन परिस्थितियों में ''पंच परिवर्तन'' केवल विचार नहीं, बल्कि इन समस्याओं के समाधान का समग्र मार्गदर्शन बनकर सामने आता है।
यह पांच परिवर्तन-सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, 'स्व' आधारित जीवनशैली और कर्तव्यनिष्ठ नागरिक निर्माण-भारतीय समाज के नवजागरण की आधारशिला के रूप में उभरते हैं।
सामाजिक समरसता-विविधता में एकता का सजीव दर्शन
समरसता भारतीय समाज की आत्मा है। यह केवल विचार नहीं, बल्कि जीवन का व्यवहार है। संघ का मानना है कि जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र के आधार पर कोई भेदभाव न रहे, तभी भारत अपने सांस्कृतिक स्वरूप को साकार कर सकेगा। समानता और आत्मीयता-यही समाज को जोड़ने की वास्तविक शक्ति है।
इसी भावना को साकार करने के लिए संघ के स्वयंसेवक गांव-गांव में सहभोजन, समरस उत्सव और संयुक्त सेवा परियोजनाएं आयोजित कर रहे हैं। ''एक मंदिर -एक जलस्रोत-एक श्मशान'' जैसे अभियानों ने ग्रामीण समाज में बंधुता का वातावरण बनाया है। श्रीराम और केवट का प्रसंग आज भी इस समरसता का प्रतीक है, जहां सम्मान और आत्मीयता जाति या वर्ग से ऊपर उठ जाती है।
कुटुंब प्रबोधन-परिवार ही राष्ट्र की प्रथम इकाई
भारतीय संस्कृति में परिवार केवल सामाजिक संस्था नहीं, बल्कि संस्कार की प्रयोगशाला है। आज के यांत्रिक जीवन में जब संवाद घट रहा है और उपभोक्तावाद बढ़ रहा है, तब कुटुंब प्रबोधन की आवश्यकता पहले से अधिक महसूस होती है। संघ के ''परिवार प्रबोधन अभियान'' के अंतर्गत देशभर में संयुक्त भोजन, साप्ताहिक पारिवारिक संवाद, सांस्कृतिक आयोजन और संस्कार वर्ग जैसे प्रयास किए जा रहे हैं।
इनसे पीढ़ियों के बीच संवाद पुनः स्थापित हो रहा है और परिवारों में भारतीय जीवन-मूल्य पुनर्जीवित हो रहे हैं। सशक्त परिवार ही सशक्त राष्ट्र की नींव रखता है। बालगोकुलम् और संस्कार भारती जैसी पहलें इस कुटुंब संस्कृति को नई ऊर्जा प्रदान कर रही हैं।
पर्यावरण संरक्षण-प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव
भारत का दृष्टिकोण सदैव ''प्रकृति मातरं वंदे'' का रहा है। संघ इस परंपरा को आधुनिक संदर्भ में पुनः स्थापित कर रहा है। वृक्षारोपण, जल-संरक्षण, प्लास्टिक-त्याग, जैविक खेती और नदी-सफाई जैसे अभियानों के माध्यम से संघ के स्वयंसेवक समाज में पर्यावरणीय संतुलन की चेतना फैला रहे हैं।
प्रकृति केवल संसाधन नहीं, बल्कि सृजन की सहयात्री है। संघ का अभियान ''एक वृक्ष-मातृभूमि के नाम'' इस कृतज्ञता का प्रतीक है। यह केवल पर्यावरणीय कार्यक्रम नहीं, बल्कि भारतीय जीवन-दर्शन की पुनर्स्थापना है।
'स्व' आधारित जीवनशैली-आत्मनिर्भरता का सांस्कृतिक स्वरूप
“स्व” आधारित जीवनशैली, पंच परिवर्तन का चौथा आयाम है। यह आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ-साथ सांस्कृतिक आत्मविश्वास का भी प्रतीक है। संघ का ''स्वावलंबन अभियान'' ग्रामीण और शहरी स्तर पर स्थानीय उत्पादन, हस्तशिल्प, खादी, चरखा, गौ-आधारित उद्योग और स्वदेशी उपक्रमों को प्रोत्साहन दे रहा है।
यह केवल आर्थिक नीति नहीं, बल्कि आत्मगौरव का आंदोलन है। स्वदेशी केवल व्यापार की नीति नहीं, आत्मा की पुकार है। विदर्भ, केरल और पूर्वोत्तर भारत में ऐसे कई संघ-प्रेरित लघु उद्योग आत्मनिर्भरता के सशक्त उदाहरण बने हैं। 'स्व' का यह भाव भारत को आर्थिक रूप से स्वतंत्र और सांस्कृतिक रूप से स्वाभिमानी राष्ट्र बनाने की दिशा में अग्रसर है।
राष्ट्रीय चेतना और कर्तव्यपरायण नागरिक निर्माण
संघ के विचार में, राष्ट्र निर्माण का मूल कर्तव्यनिष्ठ नागरिक है। शाखाओं और प्रशिक्षण शिविरों में स्वयंसेवकों को सिखाया जाता है कि अधिकारों से पहले कर्तव्य का बोध आवश्यक है। जब हर व्यक्ति राष्ट्र को परिवार मानेगा, तब भारत विश्व का नेतृत्व करेगा।
संघ के आपदा राहत, ग्राम स्वच्छता, शिक्षा सेवा केंद्र और स्वास्थ्य अभियानों के माध्यम से लाखों स्वयंसेवक सेवा और अनुशासन की भावना से समाज में सक्रिय हैं। यह परिवर्तन नागरिकता की एक नयी परिभाषा प्रस्तुत करता है, जहां ''राष्ट्र प्रथम'' सर्वोच्च मूल्य बन जाता है।
पंच परिवर्तन का यह सूत्र वास्तव में नवजागरण की ओर बढ़ते भारत का वह दीपस्तंभ है, जो राष्ट्र की चेतना को नयी दिशा, नयी ऊर्जा और नयी दृष्टि प्रदान करता है। इसका उद्देश्य केवल सामाजिक ढांचे में परिवर्तन लाना नहीं, बल्कि ऐसे भारत का सृजन करना है जो सामाजिक रूप से समरस, पारिवारिक रूप से सुदृढ़, पर्यावरणीय रूप से संतुलित, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और नागरिक रूप से कर्तव्यनिष्ठ हो।
संघ की शाखाएँ हों, सेवा के विविध आयाम, शिक्षा के क्षेत्र में संस्कार-संपन्न प्रयास हों अथवा ग्राम विकास का सतत प्रवाह- प्रत्येक कार्य में इस पंच परिवर्तन की प्रेरणा स्वाभाविक रूप से स्पंदित होती है।
यह केवल एक विचारधारा नहीं, बल्कि राष्ट्र पुनर्निर्माण की सतत साधना है-वह साधना जो भारत को उसकी आत्मा से जोड़ती है, कर्म से सशक्त करती है और विचार से प्रबुद्ध बनाती है। जब समाज का प्रत्येक घटक अपने ‘स्व’ की पहचान कर कर्तव्य के पथ पर अग्रसर होता है, तब राष्ट्र मात्र भौगोलिक सीमाओं में बँधा एक देश नहीं रहता, वह एक जीवंत, जागृत और प्रकाशमान चेतना बन उठता है।
यही पंच परिवर्तन की आत्मा है-जो भारत को फिर से “वसुधैव कुटुम्बकम्” के प्राचीन मंत्र का विश्वध्वजवाहक बना सकती है। और अंत में, संघ-भावना के इसी मनोभाव में,
“त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयं,
त्वदीयाय वंदे परं देवतायाः”
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