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Naxalism: नक्सली तो मर ही रहा है, मगर नक्सलवाद फिर भी जिंदा

Jay singh Rawat जयसिंह रावत
Updated Fri, 21 Nov 2025 06:18 PM IST
सार

सरकार ने 2026 तक देश को पूरी तरह नक्सलवाद-मुक्त करने का लक्ष्य रखा है और हालिया आंकड़े बताते हैं कि यह लक्ष्य अब पहले की तुलना में अधिक यथार्थवादी लगने लगा है।

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Naxalites are dying but Naxalism is still alive
आठ नक्सली गिरफ्तार - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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भारत में सुरक्षा बलों की लगातार सफल कार्रवाइयों ने माओवादी उग्रवाद को अब तक के सबसे कमजोर मुकाम पर पहुंचा दिया है। शीर्ष कमांडरों के सफाए, बड़े पैमाने पर आत्मसमर्पण और दबाव बढ़ने के साथ ऐसा प्रतीत होता है कि नक्सलवाद का ग्राफ नीचे जा रहा है। 

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परंतु यह केवल सैन्य उपलब्धियों का प्रश्न नहीं है; इसकी जड़ें उन असमानताओं में हैं जिन्हें मिटाए बिना इस आंदोलन का पुनर्जीवन किसी भी समय संभव है। जंगलों में बंदूकें शांत होंगी तभी जब लोगों के भीतर जमीं असंतुष्टि भी शांत होगी।
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सुरक्षा मोर्चे पर लगातार बढ़त

सरकार ने 2026 तक देश को पूरी तरह नक्सलवाद-मुक्त करने का लक्ष्य रखा है और हालिया आंकड़े बताते हैं कि यह लक्ष्य अब पहले की तुलना में अधिक यथार्थवादी लगने लगा है। गृह मंत्रालय के अनुसार 2014 से सितंबर 2025 तक देशभर में 8,751 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया और 1,801 मारे गए।

इसी अवधि में 5,000 से अधिक हथियार बरामद किए गए, जिनमें राइफलें, विस्फोटक और संचार उपकरण शामिल हैं। 2025 में सुरक्षा बलों ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की। मई में छत्तीसगढ़ में CPI (माओवादी) के महासचिव नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू एक बड़ी कार्रवाई में मारे गए।

इसके बाद नवंबर में माओवादी सैन्य गतिविधियों का संचालन करने वाले मदवी हिंडमा के मारे जाने ने उनकी कमान व्यवस्था को गहरा झटका दिया। अकेले छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में वर्ष 2025 में 144 माओवादी या तो मारे गए, या गिरफ्तार हुए अथवा आत्मसमर्पण करने पर मजबूर हुए। एक दशक पहले 76 जिलों में फैला रेड कॉरिडोर अब सिमटकर केवल 11 जिलों तक रह गया है।

इनमें तीन जिले—सुकमा, बीजापुर और नारायणपुर—अब भी सबसे अधिक संवेदनशील माने जाते हैं। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना ने अपनी सीमाओं से माओवाद को लगभग पूरी तरह बेदखल कर दिया है और उग्रवादी गतिविधियाँ वहाँ प्रतीकात्मक रह गई हैं। कई अभियानों में इस वर्ष लगभग 270 माओवादी ढेर किए गए और दर्जनों गिरफ्तार हुए।

जीत की राह में छिपी पुरानी चोटें

नक्सलवाद केवल विचारधारा का प्रश्न नहीं था। 1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन से निकली इस लपट को हवा मिली थी विस्थापन, भूमि-अधिकारों के हनन और विकास योजनाओं में उपेक्षा ने। खनन, बांध और उद्योगों के विस्तार ने हजारों परिवारों को उनकी जमीन से बेदखल किया और न्याय तक पहुंच की कमी ने उनके भीतर गहरी पीड़ा और असंतोष पैदा किया।

इस असंतोष ने कई क्षेत्रों में माओवादी नेटवर्क को फलने-फूलने में मदद की।आज भी हालात पूरी तरह नहीं बदले हैं। 2025 में ही नक्सल हिंसा के चलते 255 लोगों की जान गई। इनमें निर्दोष ग्रामीणों की मौतें भी शामिल थीं, जिन्होंने सुरक्षा अभियानों को उपेक्षा और भय से जोड़ दिया।

अनेक मानवाधिकार संगठन चेतावनी देते हैं कि यदि नागरिकों की सुरक्षा, न्याय और सम्मान सुनिश्चित नहीं हुआ, तो दबा हुआ असंतोष फिर किसी नई शक्ल में फूट सकता है।

विकास ही असली दीर्घकालिक इलाज

नक्सलवाद को समाप्त करने की लड़ाई अब केवल बंदूकों तक सीमित नहीं रह सकती। विकास-आधारित पहलकदमियों के बिना स्थायी समाधान अधूरा है। केंद्र ने माओवादी प्रभावित क्षेत्रों के लिए बजट में भारी वृद्धि की है और सैकड़ों नए सुरक्षा कैंप तथा हेलिपैड बनाए हैं, जिससे प्रशासन की पहुंच बढ़ी है। लेकिन केवल सुरक्षा ढांचा खड़ा कर देना पर्याप्त नहीं है; इन इलाकों में जीवनस्तर सुधारना सबसे अधिक आवश्यक है।

दूरस्थ गांवों में अब भी स्कूल अधूरे हैं, स्वास्थ्य सुविधाएं सीमित हैं, सड़कें बरसात में धंस जाती हैं और नौकरियों के अवसर लगभग नदारद हैं। अदालतें और प्रशासनिक दफ्तर कई-कई घंटे दूर हैं। आकांक्षी जिलों का कार्यक्रम शिक्षा और स्वास्थ्य में कुछ सुधार लाया है, पर क्रियान्वयन में सुस्ती और भ्रष्टाचार अभी भी बड़ी बाधाएं हैं।

यदि आदिवासी युवाओं को कौशल प्रशिक्षण, तकनीक, रोजगार और सम्मानजनक अवसर दिए जाएं, तो बंदूक पकड़ने की प्रेरणा स्वाभाविक रूप से समाप्त हो सकती है।

छोटे-पैमाने पर सहकारी खनन, वन-उत्पाद आधारित उद्यम और ग्रामीण उद्योग इन क्षेत्रों को आर्थिक ताकत दे सकते हैं। पुनर्वास योजनाओं की पारदर्शिता भी आवश्यक है ताकि आत्मसमर्पण करने वाले वास्तव में मुख्यधारा में लौट सकें।

चुनौती अब भी बाकी

नक्सलवाद की कमर टूट रही  हैं, लेकिन उसकी जड़ें अभी जीवित हैं। यह विद्रोह अक्सर मृत नहीं होता, बल्कि अवसर मिले तो फिर उठ खड़ा होता है। यदि विकास कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार, अविश्वास या उपेक्षा बढ़ी, तो यह “जोंबी विद्रोह” किसी भी समय फिर से सक्रिय हो सकता है।

सुरक्षा एजेंसियों के वरिष्ठ विशेषज्ञ समय-समय पर चेताते रहे हैं कि गोलियाँ केवल समय खरीदती हैं; स्थायी समाधान न्याय और विकास से आता है।

असली जीत तब जब वे परिस्थितियां भी समाप्त हों

भारत आज माओवादी उग्रवाद के अंत के सबसे करीब है, लेकिन असली जीत तब होगी जब वे परिस्थितियाँ भी समाप्त हों जो वर्षों से इस संघर्ष को जन्म देती रही हैं। जंगलों में बंदूकें शांत कर देना आसान है, लेकिन मन की वे बेचैनियाँ शांत करना कठिन, जो सामाजिक असमानता, उपेक्षा और अन्याय से पैदा होती हैं।

देश के सामने चुनाव यही है- क्या वह केवल विद्रोह को दबाना चाहता है या उसे जड़ से खत्म करना? माओवादी-मुक्त भारत का अर्थ सिर्फ कमांडरों का सफाया नहीं, बल्कि उन फासलों को मिटाना है जिनसे यह विद्रोह जन्मा था। यदि विकास, करुणा और न्याय का रास्ता अपनाया गया, तो रेड कॉरिडोर के जंगल भविष्य में शांति और आशा से भर सकते हैं।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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