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बिहार चुनाव परिणाम और मंथन: आखिर इस हार से महागठबंधन ने क्या सीखा ?
सार
- बिहार चुनाव में एनडीए की जीत और नीतीश कुमार के सीएम बने रहने के बावजूद, मुख्य सवाल विपक्ष की हार से जुड़ा है।
- राजद और कांग्रेस हार की समीक्षा में आत्ममंथन के बजाय, चुनाव आयोग और सलाहकारों पर ठीकरा फोड़ रहे हैं।
- विपक्ष का अति-आत्मविश्वास और जमीन से कटे वैचारिक मुद्दे उनकी हार का कारण बने। वहीं, पाकिस्तान के विश्लेषकों ने भी माना कि एनडीए की 'विकास-केंद्रित' रणनीति प्रभावी रही।
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नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव और राहुल गांधी
- फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
Bihar Chunav Mahagathbandhan ki Haar ke Karan: जैसा कि इससे पहले ब्लॉग में लिखा गया था कि बिहार में सरकार चाहे किसी की भी बनें, नीतीश कुमार अपरिहार्य हैं, सत्य साबित हुआ है। हालांकि बिहार में एनडीए की बंपर जीत, महागठबंधन की दयनीय पराजय और नीतीश कुमार के दसवीं बार सीएम बनने का रिकॉर्ड बनने के बाद जो सवाल उठ रहे हैं, उनमें पहला तो नीतीश कब तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहेंगे और दूसरा इस हार के बाद महागठबंधन के मुख्य घटक दलों ने कोई सबक लिया है या नहीं या फिर वो अभी भी ‘मेरे मुर्गे की डेढ़ टांग’ वाली राजनीति पर आमादा हैं?
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जहां तक नीतीश कुमार के सीएम पद पर टिकने की बात है तो बतौर मुख्यमंत्री उनकी यह आखिरी पारी होगी। लेकिन वो इस पद से कब हटेंगे अथवा हटाए जाएंगे, यह आगे की परिस्थिति पर निर्भर करता है। क्योंकि नीतीश का अपना पक्का और प्रतिबद्ध वोट बैंक है। ऐसे में नीतीश तभी हटेंगे, जब वो खुद ऐसा चाहें अथवा कोई ऐसे अप्रत्याशित हालात बनें। उनके हटने से पहले भी बीजेपी इस बात को सुनिश्चित करेगी कि नीतीश कुमार और जदयू के वोट बैंक का बड़ा हिस्सा उसके पाले में शिफ्ट हो जाए। राजद नेता तेजस्वी यादव चुनाव प्रचार के दौरान यह कहते रहे हैं कि बीजेपी जदयू के टुकड़े करा देगी। यह भविष्य में संभव है, लेकिन सहजता से होगा। बीजेपी नीतीश के विकल्प के तौर पर अति पिछड़े वर्ग के नेता सम्राट चौधरी को तैयार कर रही है।
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नीतीश का क्या होगा, इससे भी अहम सवाल यह है कि इस हार से विपक्षी दलों ने क्या सीखा ? महागठबंधन के दो मुख्य घटकों राष्ट्रीय जनता दल ( राजद) और कांग्रेस ने पराजय का तात्कालिक विश्लेषण कर अपनी सुविधा से हार के कारण खोज लिए हैं। जो हुआ, उसमे आत्ममंथन और सच को स्वीकार करने से ज्यादा ठीकरा फोड़ने किसी सिर की तलाश ज्यादा है। जहां तक राजद का प्रश्न है तो वहां हार के कारणों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा से ज्यादा जल्दी तेजस्वी यादव की विधायक दल नेता पर ताजपोशी की । इसके पीछे शायद यह डर था कि कहीं बीजेपी राजद में ही सेंध न लगा दे।
यही कारण है कि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव व राबड़ी देवी अपने परिवार के भीतर लगी आग की परवाह न कर बेटे तेजस्वी को विधायक दल का नेता बनवाने के बाद लालू यादव और राबड़ी देवी बैठक से चले गए। इस बीच पार्टी के नाराज कार्यकर्ताओं ने राबड़ी के आवास के बाहर नारेबाजी और प्रदर्शन किया। दरअसल राजद की इस करारी हार का कारण तेजस्वी के दो सलाहकारों संजय यादव और रमीज नेमत को जिम्मेदार माना जा रहा है, लेकिन लालू परिवार उन्हें बचा रहा है। पार्टी कार्यकर्ताओं का आरोप है कि संजय यादव की रणनीति और चुनाव प्रबंधन की कमजोरी के कारण ही पार्टी को चुनाव में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है।
इस चुनाव ने यह भी साबित किया कि राजद का एमवाय समीकरण अब पहले जैसा असरदार नहीं रह गया है। यादवों का एक तबका एनडीए की तरफ चला गया तो तेजस्वी द्वारा एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी को ‘एक्स्ट्रीमिस्ट’ कहना मुसलमानों को नागवार गुजरा। राजद की समीक्षा बैठक में यह माना गया कि पार्टी लोगों तक अपनी बातों को सही ढंग से पहुंचाने में असफल रही। राजद नेता संजय कुमार ने कहा कि समीक्षा में इस बात पर चर्चा हुई कि है कि गलती कहां हुई, संगठन कहां कमजोर पड़ा, बूथ प्रबंधन ढीला रहा या फिर चुनावी संदेश जनता तक प्रभावी ढंग से नहीं पहुंचा। अब पार्टी इसे सुधारने क्या कदम उठाती है, यह देखने की बात है।
उधर कांग्रेस द्वारा हार की फौरी समीक्षा में अपनी कमजोरियों को सुधारने की जगह एसआईआर और चुनाव आयोग को दोषी पाया गया। पार्टी ने कहा कि चुनाव आयोग तुरंत यह दिखाना चाहिए कि वह भाजपा की 'छाया' में काम नहीं कर रहा है। एसआईआर का जो मुद्दा बिहार में पिट चुका, उसे पार्टी अब राष्ट्रीय स्तर पर उठाने जा रही है। अभी 12 राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों में लगभग 50 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं के विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया चल रही है। अंतिम मतदाता सूची अगले साल 7 फरवरी को आएगी। उसके पहले कांग्रेस दिसम्बर के पहले हफ्ते में दिल्ली में एसआईआर के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर की रैली करने जा रही है। इससे क्या लाभ होगा, समझना मुश्किल है।
दरअसल पार्टी की समस्या ऐसे मुद्दों की तलाश है, जो जनता से सीधे कनेक्ट करे। चौकीदार चोर, जाति जनगणना, संविधान बचाओ, मोदी को आईडियोलॉजिकली उड़ा देने और वोट चोरी के बाद अब एसआईआर का मुद्दा भी पिट गया है। दूसरे, चुनाव सिर्फ ‘हाइड्रोजन बम’ फोड़ने से नहीं जीते जाते। उसके लिए ऐसी ड्रिलिंग मशीनों की जरूरत होती है, जो जमीनी स्तर पर लोगों के बीच पैठ बना सके। यूं कहा तो जा रहा है कि कांग्रेस भी भाजपा की तरह वोटरों से सीधे कनेक्ट, बूथ मैनेजमेंट आदि पर ध्यान देगी ताकि अपने वोट ज्यादा से ज्यादा डलवाए जा सके। हालांकि जमीन पर वैसा ज्यादा कुछ नजर नहीं आता।
हालांकि पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने समीक्षा बैठक के बाद एक्स पर पोस्ट किया कि पार्टी ने मतदाता सूचियों की अखंडता की सुरक्षा के लिए "एक व्यापक रणनीति समीक्षा" की है। ऐसे समय में जब संस्थाओं में जनता का विश्वास पहले से ही कमज़ोर है, SIR प्रक्रिया के दौरान चुनाव आयोग का आचरण "बहुत ही निराशाजनक" रहा है।
प्रश्न यह भी है कि महागठबंधन की हार के लिए राजद और कांग्रेस में ज्यादा जिम्मेदार कौन है? या फिर दोनों हैं? चुनाव के दौरान दोनों में मनमुटाव के अलावा यह पराजय गठबंधन की आंतरिक कलह, रणनीतिक चूक और बाहरी हमलों का नतीजा मानी जा रही है। तेजस्वी को चुनाव प्रबंधन से ज्यादा चिंता जल्द से जल्द सीएम पद की शपथ लेने की थी। जमीन के नीचे वास्तव में क्या हो रहा है, इसकी हवा न तो तेजस्वी को थी और न ही राहुल गांधी को।
बिहार से राज्यसभा सांसद और पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने कहा कि पार्टी में सभी तो टिकट बंटवारे और खुद चुनाव लड़ने में व्यस्त थे। निगरानी करने वाला कोई नहीं था। ऐसा लग रहा था कि चुनाव का कोई प्रबंधन ही नहीं है। बिहार के लोगों का मानना है कि राहुल और तेजस्वी दोनों एकजुट ताकत बनने के बजाए एक दूसरे की नाव डुबो गए।
इस बीच देश की 272 जानी-मानी हस्तियों ने एक खुला पत्र जारी कर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी पर परोक्ष हमला करते हुए उनके रवैये की आलोचना की है। सिविल सोसाइटी के वरिष्ठ नागरिक के तौर पर उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता जताई कि भारत के लोकतंत्र पर बल प्रयोग से नहीं, बल्कि उसकी आधारभूत संस्थाओं के खिलाफ जहरीली बयानबाज़ी से हमला हो रहा है। कुछ राजनेता, नीतिगत विकल्प पेश करने के बजाय, अपनी नाटकीय राजनीतिक रणनीति के तहत भड़काऊ लेकिन निराधार आरोपों का सहारा लेते हैं। वैसे यह पत्र भी उसी तरह से प्रायोजित हो सकता है, जैसा कि प्रबुद्ध लोगों का एक खेमा अक्सर चुनाव के पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना और जनता को भाजपा से कथित रूप से सावधान करने के लिए जारी करता रहता है।
दिलचस्प बात तो यह है कि बिहार में महागठबंधन की तगडी हार का पराजित पार्टियों से ज्यादा गंभीर विश्लेषण तो पाकिस्तान में हुआ है। वहां के विश्लेषकों ने टीवी डिबेट्स में कहा कि इस चुनाव में जहां कांग्रेस ने 'लोकतंत्र' जैसे वैचारिक मुद्दों को उठाया, वहीं बीजेपी ने कुशलता से आम नागरिक के जीवन से जुड़े व्यावहारिक विषयों जैसे- रोटी, पानी और आर्थिक सुधार पर अपना ध्यान केंद्रित रखा। 'विकास-केंद्रित' रणनीति ने ही एनडीए को प्रचंड जीत दिलाई। इन विश्लेषकों ने पाक सरकार को भी इसी 'जन-केंद्रित' मॉडल को अपनाने की सलाह दी है।
वैसे इन नतीजों के बाद महागठबंधन के नेतृत्व को बदलने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। आगे-आगे देखिए, होता है क्या?
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