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सत्ता का पतन: तानाशाहों के लिए ढाका से बगदाद तक एक ही सबक

Anjarul Bari Rafiqui अंजरुल रफ़ीक़ी
Updated Tue, 18 Nov 2025 05:16 PM IST
सार

शेख़ हसीना लगभग 30 साल तक बांग्लादेश की सबसे शक्तिशाली नेता रहीं। राजनीति उनके इशारों पर चलती थी। लेकिन इतिहास का तौर तरीका बहुत क्रूर होता है।

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The Fall of Power A Common Lesson for Dictators from Dhaka to Baghdad
बांग्लादेश के अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण में होगी शेख हसीना के मामले की सुनवाई। - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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दुनिया की राजनीति का एक नियम कभी नहीं बदलता है यानी “ताकत हमेशा वफ़ादार नहीं रहती, और सत्ता कभी किसी की स्थायी नहीं होती।”

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बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को मानवता के खिलाफ अपराधों के मामले में मिली मौत की सजा ने इस नियम को फिर साबित कर दिया है। वही नियम जो कभी बगदाद, कभी त्रिपोली, कभी काहिरा, कभी दमिश्क, और कभी ख़ारतूम की धरती पर लिखा गया था।
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तीन दशक की सत्ता और अचानक तख्ता पलट

शेख़ हसीना लगभग 30 साल तक बांग्लादेश की सबसे शक्तिशाली नेता रहीं। राजनीति उनके इशारों पर चलती थी। लेकिन इतिहास का तौर तरीका बहुत क्रूर होता है।
जैसे इराक में सद्दाम हुसैन अपने ही महलों में अकेले हो गए, शाम के असद को दमिश्क छोड़कर रूस भागना पड़ा,
लीबिया के कद्दाफी को उनकी ही जनता ने सड़कों पर घसीटा,
मिस्र के हुस्नी मुबारक स्ट्रेचर पर अदालत में लाए गए,
और सूडान के उमर अल-बशीर जेल की कोठरी में पहुंचे।

शेख़ हसीना की कहानी भी अब उसी अंजाम पर पहुँच गई है।जहाँ सत्ता का घमंड बिखर जाता है।

यह सिर्फ एक केस नहीं—एक सोच का अंत है।

शेख़ हसीना पर चला केस सिर्फ राजनीति नहीं था, यह उस सोच का प्रतीक था जो दक्षिण एशिया से लेकर मध्य-पूर्व तक फैली रही है।

विरोध को देशद्रोह समझना,

अदालत को हथियार बनाना,

विपक्ष को मिटा देना,

और सत्ता को अपनी विरासत मान लेना।

लेकिन इतिहास गवाह है।
जो दूसरों के लिए कानून तोड़ता है, वही कानून एक न एक दिन उसके दरवाज़े पर खड़ा मिलता है।

जमात-ए-इस्लामी को खत्म करने की कोशिश—और आज का सच

शेख़ हसीना ने जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश को खत्म करने की हर संभव कोशिश की। संगठन के तकरीबन सभी बड़े नेताओं को फाँसी दे दी गई, पार्टी पर पाबंदी लगाई गई।
लेकिन आज वही जमात -ए- इस्लामी और ज्यादा मज़बूती से वापस आ गई,
और आज हसीना की अवामी लीग अपने अस्तित्व को बचाने में लगी है।

तानाशाहों का अंत हमेशा एक जैसा

सद्दाम, कद्दाफी, मुबारक, अल-बशीर, सभी ने विरोधियों को कुचला, लेकिन अंत में वे खुद गिर पड़े।
आज यही कहानी ढाका में दोहराई जा रही है।

यह आज के शासकों के लिए चेतावनी है।

यह सबक सिर्फ पुराने तानाशाहों के लिए नहीं है।
यह आज के हर उस शासक के लिए भी है जो सत्ता के नशे में चूर है।

इज़राइल के प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, जो ताकत के घमंड में फ़लस्तीन में ज़िंदगियाँ मिटा रहे हैं।

रूस के व्लादिमीर पुतिन,
जो युद्ध को अपना राजनीतिक एजेंडा बना चुके हैं।

उन्हें याद रखना चाहिए,
इतिहास की अदालत कभी बंद नहीं होती। फाइलें देर से खुलती हैं, पर खुलती ज़रूर हैं।

बांग्लादेश का वर्तमान संकट और क्षेत्रीय असर

बांग्लादेश का संकट बता रहा है कि राजनीतिक बदला खत्म नहीं होता, एक दिन वह सबसे शक्तिशाली को भी अपनी पकड़ में ले लेता है।

छात्र आंदोलन, जनता का ग़ुस्सा, और दमन के खिलाफ उठी नई पीढ़ी ने वह कर दिखाया जो 30 साल में कोई नहीं कर सका।

शेख़ हसीना देश छोड़कर भारत पहुँच गईं — लेकिन कानून और इतिहास कभी सीमाओं में कैद नहीं होते।

ढाका की अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत ने उन्हें मौत की सज़ा सुना दी। यह फैसला चाहे विवादित हो, लेकिन यह एक हकीकत है कि —
सत्ता हमेशा अस्थायी होती है।

भारत भी स्थिति को बहुत सोच-समझकर देख रहा है।
एक अस्थिर बांग्लादेश पूरे दक्षिण एशिया के लिए खतरा बन सकता है-
सुरक्षा, सीमा, शरणार्थी, चरमपंथ, व्यापार… सब पर असर पड़ेगा।

सबसे बड़ा सवाल

क्या बांग्लादेश अब ऐसा राजनीतिक ढांचा बनाएगा जो व्यक्ति-पूजा से ऊपर हो?

एक लोकतांत्रिक बांग्लादेश के लिए ज़रूरी है कि— विरोध को अपराध न माना जाए,

अदालतें सत्ता का औज़ार न बनें, और हर नागरिक को बराबरी से न्याय मिले।

शेख़ हसीना का अंत सिर्फ एक नेता की हार नहीं है — यह हर शासक के लिए चेतावनी है,
जो सोचता है कि सत्ता हमेशा उसकी मुट्ठी में रहेगी।

इतिहास कहता है:
“ताकत कभी किसी की नहीं होती, लेकिन अंत हमेशा ताकत का पीछा ज़रूर करता है।”

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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